अंत:करण: Difference between revisions
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'''अंत:करण''' (कांशेंस) यह पारिभाषिक शब्द है। इसका तात्पर्य उस मानसिक शक्ति से है जिससे व्यक्ति उचित और अनुचित का निर्णय करता है। सामान्यत लोगों की यह धारणा होती है कि व्यक्ति का अंतकरण किसी कार्य के औचित्य और अनौचित्य का निर्णय करने में उसी प्रकार सहायता कर सकता है जैसे उसके कर्ण सुनने में, अथवा नेत्र देखने में सहायता करते हैं। व्यक्ति में अंतकरण का निर्माण उसके नैतिक नियमों के आधार पर होता है। अत अंतकरण व्यक्ति की आत्मा का वह क्रियात्मक सिद्धांत माना जा सकता है जिसकी सहायता से व्यक्ति द्वंद्वों की उपस्थिति में किसी निर्णय पर पहुँचता है। 'शाकुंतल' (1,19) में कालिदास कहते हैं:<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=52 |url=}}</ref> | '''अंत:करण''' (कांशेंस) यह पारिभाषिक शब्द है। इसका तात्पर्य उस मानसिक शक्ति से है जिससे व्यक्ति उचित और अनुचित का निर्णय करता है। सामान्यत लोगों की यह धारणा होती है कि व्यक्ति का अंतकरण किसी कार्य के औचित्य और अनौचित्य का निर्णय करने में उसी प्रकार सहायता कर सकता है जैसे उसके कर्ण सुनने में, अथवा नेत्र देखने में सहायता करते हैं। व्यक्ति में अंतकरण का निर्माण उसके नैतिक नियमों के आधार पर होता है। अत अंतकरण व्यक्ति की आत्मा का वह क्रियात्मक सिद्धांत माना जा सकता है जिसकी सहायता से व्यक्ति द्वंद्वों की उपस्थिति में किसी निर्णय पर पहुँचता है। 'शाकुंतल' (1,19) में कालिदास कहते हैं:<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=52 |url=}}</ref> | ||
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Revision as of 11:43, 19 May 2018
अंत:करण (कांशेंस) यह पारिभाषिक शब्द है। इसका तात्पर्य उस मानसिक शक्ति से है जिससे व्यक्ति उचित और अनुचित का निर्णय करता है। सामान्यत लोगों की यह धारणा होती है कि व्यक्ति का अंतकरण किसी कार्य के औचित्य और अनौचित्य का निर्णय करने में उसी प्रकार सहायता कर सकता है जैसे उसके कर्ण सुनने में, अथवा नेत्र देखने में सहायता करते हैं। व्यक्ति में अंतकरण का निर्माण उसके नैतिक नियमों के आधार पर होता है। अत अंतकरण व्यक्ति की आत्मा का वह क्रियात्मक सिद्धांत माना जा सकता है जिसकी सहायता से व्यक्ति द्वंद्वों की उपस्थिति में किसी निर्णय पर पहुँचता है। 'शाकुंतल' (1,19) में कालिदास कहते हैं:[1]
सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु
प्रमाणमन्तकरणप्रवृत्तय।
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संबंधित लेख
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 52 |