चैतन्य सम्प्रदाय: Difference between revisions
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*परब्रह्म का स्वयंरूप श्रीकृष्ण हैं जो अपने पूर्णरूप से [[द्वारिका]] में, पूर्णतर रूप से [[मथुरा]] में और पूर्णतम रूप से से [[वृंदावन]] में विराजते थे। | *परब्रह्म का स्वयंरूप श्रीकृष्ण हैं जो अपने पूर्णरूप से [[द्वारिका]] में, पूर्णतर रूप से [[मथुरा]] में और पूर्णतम रूप से से [[वृंदावन]] में विराजते थे। | ||
*भगवान के तीन प्रकार के अवतार होते हैं- | *भगवान के तीन प्रकार के अवतार होते हैं- पुरुषावतार, लीलावतार तथा गुणावतार। | ||
*भगवान की तीन प्रकार की शक्तियां होती हैं- अन्तर्ग, बहिरंग और तटस्थ। | *भगवान की तीन प्रकार की शक्तियां होती हैं- अन्तर्ग, बहिरंग और तटस्थ। | ||
*अन्तरंग शक्ति ही उनके स्वरूप की शक्ति है। इसके सत, चित और आनंद तीन भेद हैं। भगवान सत से विद्यमान, चित से स्वयं प्रकाशवान तथा जगत के प्रकाशयिता होते हैं। | *अन्तरंग शक्ति ही उनके स्वरूप की शक्ति है। इसके सत, चित और आनंद तीन भेद हैं। भगवान सत से विद्यमान, चित से स्वयं प्रकाशवान तथा जगत के प्रकाशयिता होते हैं। |
Revision as of 08:01, 20 July 2011
- इस संप्रदाय के प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु हैं।
- तात्विक सिद्धांत की दृष्टि से इसे अचिंत्य भेदाभेदवादी संप्रदाय कहते हैं।
- इसके अनुसार परमतत्त्व एक ही हैं जो सच्चिदानंद स्वरूप हैं, जो अनंत शक्ति संपन्न तथा अनादि है।
- उपाधि भेद के द्वारा उसको परमात्मा, ब्रह्म औ भगवान कहा गया है।
- परमतत्त्व श्रीकृष्ण ही माने गये हैं।
- उनकी अनंत शक्तियां प्रकट हों तो भगवान, अप्रकट हों तो ब्रह्मा तथा कुछ प्रकट और कुछ अप्रकट हों तो परमात्मा भेदों का जन्म होता है।
- इस संप्रदाय के अनुसार ब्रह्म ज्ञान गम्य है, परमात्मा योगगम्य तथा भगवान भक्तिगम्य होता है।
- श्रीकृष्ण की तुलना में ब्रह्म की स्थिति ऐसी है जैसे सूर्य की तुलना में उसके प्रकाश की। परब्रह्म के तीन रूप हैं- स्वयंरूप, तदेकात्मकरूप तथा आवेशरूप।
- परब्रह्म का स्वयंरूप श्रीकृष्ण हैं जो अपने पूर्णरूप से द्वारिका में, पूर्णतर रूप से मथुरा में और पूर्णतम रूप से से वृंदावन में विराजते थे।
- भगवान के तीन प्रकार के अवतार होते हैं- पुरुषावतार, लीलावतार तथा गुणावतार।
- भगवान की तीन प्रकार की शक्तियां होती हैं- अन्तर्ग, बहिरंग और तटस्थ।
- अन्तरंग शक्ति ही उनके स्वरूप की शक्ति है। इसके सत, चित और आनंद तीन भेद हैं। भगवान सत से विद्यमान, चित से स्वयं प्रकाशवान तथा जगत के प्रकाशयिता होते हैं।
- आनंद से आनंदमग्न रहते हैं। इसी को आह्लादिनी शक्ति कहा जाता है। राधा इसी का स्वरूप है।
- बहिरंग शक्ति माया है जिससे जगत की उत्पत्ति होती है।
- तटस्थ शक्ति सम्पन्न जीव है जो एक ओर अंतरंग से तथा दूसरी ओर बहिरंग से संबंधित रहती है। रसखान के काव्य में चैतन्य संप्रदाय के सिद्धांत भी नहीं मिलते।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ