परब्रह्मोपनिषद: Difference between revisions

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Revision as of 08:15, 25 March 2010


परब्रह्मोपनिषद

  • अथर्ववेदीय इस उपनिषद में परब्रह्म की प्राप्ति हेतु संन्यास-धर्म का विस्तृत विवेचन किया गया है। शौनक ऋषि के पूछने पर महर्षि पिप्पलाद 'ब्रह्मविद्या' का विवेचन करते हैं। वे बताते हैं कि सृष्टि से पूर्व परम सत्ता अकेली ही स्थित थी। उसी ने अपनी इच्छा से इस सृष्टि का सृजन किया। वही सत्य है और सभी प्राणियों का नियन्ता है। वह सूक्ष्म रूप में सभी में विराजमान रहता हें केवल श्रवण मात्र से उसे नहीं जाना जा सकता। उसे कपालाष्टक-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि- द्वारा ही जाना जा सकता है।
  • उस 'ब्रह्म-रूप' पुरुष को सत्व, आन्तरिक शिखा और बाह्य यज्ञोपवीत द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। एक सच्चा संन्यासी इसी ब्रह्म-'प यज्ञोपवीत को धारण करता हैं जो बाहर और भीतर दोनों प्रकार से यज्ञोपवीत धारण करता है, वही वस्तुत: संन्यासी है। भीतरी यज्ञोपवीत से तात्पर्य 'ब्रह्मतत्त्व के प्रति जिज्ञासा' से है, जो सदैव और हर पल बनी रहनी चाहिए। ऐसा साधक ही सच्चा संन्यासी है।



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