सन्न्यासोपनिषद: Difference between revisions
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*संन्यासी के लिए आचरण की शुद्धता, पवित्रता और सन्तोष का होना परम अनिवार्य माना गया है। उसे भोग-विलास से दूर रहना चाहिए। आहार-विहार पर संयम रखना चाहिए। सदैव आत्म-चिन्तन करते रहना चाहिए। ओंकार का जय करके मोक्ष पाने का प्रयत्न करना चाहिए। | *संन्यासी के लिए आचरण की शुद्धता, पवित्रता और सन्तोष का होना परम अनिवार्य माना गया है। उसे भोग-विलास से दूर रहना चाहिए। आहार-विहार पर संयम रखना चाहिए। सदैव आत्म-चिन्तन करते रहना चाहिए। ओंकार का जय करके मोक्ष पाने का प्रयत्न करना चाहिए। | ||
*वास्तव में संन्यासी वह है, जिसने आत्मा के उत्थान हेतु माता-पिता, स्त्री-पुत्र, बन्धु-बान्धव आदि का पूर्ण रूप से त्याग कर दिया हो। आत्मा का ध्यान ही संन्यासी का यज्ञोपवीत है, विद्या ही उसकी चोटी है, जल के लिए उदर ही संन्यासी का पात्र है, जलाशय का तट ही उसका आश्रय-स्थल है, उसके लिए न रात्रि है, न दिन है। पूर्ण रूप से विरक्त, सभी को सुख देने वाला, आशा, ईर्ष्या, अहंकार से दूर, लौकिक भोगों को त्यागने वाला, मोक्ष की इच्छा का प्रबल साधक, ज्ञानी, शान्ति, धैर्य और श्रद्धा का पात्र व ब्रह्म का उपासक ही संन्यासी कहे जाने योग्य है। | *वास्तव में संन्यासी वह है, जिसने आत्मा के उत्थान हेतु माता-पिता, स्त्री-पुत्र, बन्धु-बान्धव आदि का पूर्ण रूप से त्याग कर दिया हो। आत्मा का ध्यान ही संन्यासी का यज्ञोपवीत है, विद्या ही उसकी चोटी है, जल के लिए उदर ही संन्यासी का पात्र है, जलाशय का तट ही उसका आश्रय-स्थल है, उसके लिए न रात्रि है, न दिन है। पूर्ण रूप से विरक्त, सभी को सुख देने वाला, आशा, ईर्ष्या, अहंकार से दूर, लौकिक भोगों को त्यागने वाला, मोक्ष की इच्छा का प्रबल साधक, ज्ञानी, शान्ति, धैर्य और श्रद्धा का पात्र व ब्रह्म का उपासक ही संन्यासी कहे जाने योग्य है। | ||
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Revision as of 13:28, 25 March 2010
संन्यासोपनिषद
सामवेद से सम्बद्ध इस उपनिषद में मात्र दो अध्याय हैं।
- प्रथम अध्याय में 'संन्यास' के विषय में बताया गया है और दूसरे अध्याय में साधन-चतुष्टय-विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व (मोक्ष)- की बात कही गयी है। संन्यास का अधिकारी कौन है? इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है। संन्यासी के भेद बताते हुए वैराग्य-संन्यासी, ज्ञान-संन्यासी, ज्ञान-वैराग्य-संन्यासी और कर्म-संन्यासी की विस्तृत व्याख्या की गयी है।
- यहां छह प्रकार के संन्यास-
- 'कुटीचक्र',
- 'बहूदक',
- 'हंस',
- 'परमहंस',
- 'तुरीयातीत' और
- 'अवधूत' आदि – का उल्लेख किया गया है। इसी क्रम में उपनिषदकार ने 'आत्मज्ञान' को स्थिति और स्वरूप का भी वर्णन किया है।
संन्यासी कौन है?
- संन्यासी के लिए आचरण की शुद्धता, पवित्रता और सन्तोष का होना परम अनिवार्य माना गया है। उसे भोग-विलास से दूर रहना चाहिए। आहार-विहार पर संयम रखना चाहिए। सदैव आत्म-चिन्तन करते रहना चाहिए। ओंकार का जय करके मोक्ष पाने का प्रयत्न करना चाहिए।
- वास्तव में संन्यासी वह है, जिसने आत्मा के उत्थान हेतु माता-पिता, स्त्री-पुत्र, बन्धु-बान्धव आदि का पूर्ण रूप से त्याग कर दिया हो। आत्मा का ध्यान ही संन्यासी का यज्ञोपवीत है, विद्या ही उसकी चोटी है, जल के लिए उदर ही संन्यासी का पात्र है, जलाशय का तट ही उसका आश्रय-स्थल है, उसके लिए न रात्रि है, न दिन है। पूर्ण रूप से विरक्त, सभी को सुख देने वाला, आशा, ईर्ष्या, अहंकार से दूर, लौकिक भोगों को त्यागने वाला, मोक्ष की इच्छा का प्रबल साधक, ज्ञानी, शान्ति, धैर्य और श्रद्धा का पात्र व ब्रह्म का उपासक ही संन्यासी कहे जाने योग्य है।
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