अवधूत: Difference between revisions
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तांत्रिक बौद्ध साधना में ललना, रसना और अवधूती नामक तीन नाड़ियाँ प्रमुख मानी गई हैं। अवधूती सुषुम्नास्थानीय है। यह मध्यदेशीया एवं मध्य ग्राह्य-ग्राहक-विवर्जिता होती है। (ललना पज्ञा स्वभावेन रसनोपायसंस्थिता। अवधूती मध्यदेशे तु ग्राह्यग्राहकवर्जता।-अद्वयवज्रसंगह) यह धर्ममुद्रा तथा महामुद्रा की अभेदता का हेतु है। यह महासुखाश्रयसहजांनदप्रदायिका है और अद्वयस्वभावा है। बोधिचित् के मध्यवर्गीया अवधूतिका में ऊर्ध्वसंचार से भिन्न-भिन्न प्रकार के आनंदों का आस्वाद बताया जाता है।<ref>सं.ग्रं.-बंगला विश्वकोश, प्रथम खंड; उपासक संप्रदाय (द्वितीय-भाग), अभिधान राजेंद्र; कल्याणी मल्लिक : नाथसंप्रदायेर इतिहास, दर्शन ओ साधनप्रणाल (कलकत्ता, १९५० ई.); मोकाशी : 'महाराष्ट्रांतील पांच संप्रदाय' (पुणें, १९५४ ई.)। </ref> | तांत्रिक बौद्ध साधना में ललना, रसना और अवधूती नामक तीन नाड़ियाँ प्रमुख मानी गई हैं। अवधूती सुषुम्नास्थानीय है। यह मध्यदेशीया एवं मध्य ग्राह्य-ग्राहक-विवर्जिता होती है। (ललना पज्ञा स्वभावेन रसनोपायसंस्थिता। अवधूती मध्यदेशे तु ग्राह्यग्राहकवर्जता।-अद्वयवज्रसंगह) यह धर्ममुद्रा तथा महामुद्रा की अभेदता का हेतु है। यह महासुखाश्रयसहजांनदप्रदायिका है और अद्वयस्वभावा है। बोधिचित् के मध्यवर्गीया अवधूतिका में ऊर्ध्वसंचार से भिन्न-भिन्न प्रकार के आनंदों का आस्वाद बताया जाता है।<ref>सं.ग्रं.-बंगला विश्वकोश, प्रथम खंड; उपासक संप्रदाय (द्वितीय-भाग), अभिधान राजेंद्र; कल्याणी मल्लिक : नाथसंप्रदायेर इतिहास, दर्शन ओ साधनप्रणाल (कलकत्ता, १९५० ई.); मोकाशी : 'महाराष्ट्रांतील पांच संप्रदाय' (पुणें, १९५४ ई.)। </ref> | ||
'''अवधूत''' ([[विशेषण]]) [भूतकालिक कर्मणि कृदन्त (क्त)] [अव+धू+क्त] | |||
1. हिलाया हुआ, लहराया हुआ | |||
2. त्यागा हुआ, अस्वीकृत, घृणित<ref>रघु. 19/43</ref> | |||
3. अपमानित, तिरस्कृत,'''-तः''' ([[पुल्लिंग]]) वह संन्यासी जिसने सांसारिक बंधनों तथा विषय-वासनाओं को त्याग दिया है-यो विलंघ्याश्रमान् वर्णानात्मन्येव स्थितः पुमान्, अतिवर्णाश्रमी योगी अवधूतः स उच्यते। या-अक्षरत्वात् वरेण्यत वरेण्यत्वात् धूतसंसारबंधनात्, तत्त्वमस्यर्थसिद्धत्वादवधूतोऽभिधीयते।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश|लेखक=वामन शिवराम आप्टे|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=119|url=|ISBN=}}</ref> | |||
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Latest revision as of 10:03, 16 May 2024
अवधूत साधुओं का एक भेद। उ. खेवरा, सेवरा, पारधी, सिवसाधक, अवधूत। आसन मारे बैठ सब पाँच आत्मा भूत-जायसी। आरंभ में अवधूतोपनिषद् में इस शब्द की जो व्याख्या दी गई है, उससे इस पद से संकेतित व्यक्ति के वैशिष्ट्य का विवरण हो जाता है। इस उपनिषद् के अनुसार इस शब्द में आए अ का अक्षरत्व अथवा अक्षरपद, व का अर्थ वरेण्य का सर्वश्रेष्ठ पद, धू का अर्थ धूत संसारवर्धन अथवा सांसारिक वासनाओं का उच्छेद और त का अर्थ है तत्वमस्यादिलक्ष्यत्व। इस पद से विशिष्ट व्यक्ति का व्याख्यान इस उपनिषद् के अतिरिक्त अवधूतगीता, गोरक्षनाथरचित सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति, गोरक्ष-सिद्धांत-संग्रह आदि ग्रंथों में उपलब्ध है।
'महानिर्वाणतंत्र' में प्रधानत: चार प्रकार के अवधूत कहे गए है:
- 'ब्रह्मावधूत' जो किसी भी वर्ण का ब्रह्मेपासक हो और किसी भी आश्रम में हो;
- 'शैवावधूत' जो विधिपूर्वक संन्यास ले चुका हो:
- 'बीरावधूत' जिसके सिर के बाल दीर्घ तथा बिखरे हों, गले में हाड़ या रुद्राक्ष की माला पड़ी हो, कटि में कौपीन हो, शरीर पर भस्म या रक्तचंदन हो, हाथ में काष्ठदंड, परशु एवं डमरू हो और साथ में मृगचर्म हो;
- 'कुलावधूत' जो कुलाचार में अभिषिक होकर भी गृहस्थाश्रम में रहे।
वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत रामानंद के शिष्यों में भी अवधूत कहलाने वाले साधु पाए जाते हैं। इनके सिर पर बड़े-बड़े बाल रहते हैं, गले में स्फटिक की माला रहती है और शरीर पर कंथा एवं हाथ में दरियाई खप्पर दीख पड़ते हैं। बंगाल में इनके पृथक्-पृथक् अखाड़े हैं और इनमें सभी जातियों के लोग समाविष्ट होते हैं। भिक्षा के लिए जब ये गृहस्थों के द्वार पर जाते हैं तब 'बीर अवधूत' नाम का स्मरण करके एकतारा या अन्य वाद्ययंत्र बजाकर गाने लग जाते हैं। ये लोग प्राय: अव्यवस्थित रूप में ही रहा करते हैं। इन्हें बंगाल में कभी-कभी बाउल नाम से भी अभिहित करते हैं जो सर्वथा इनसे भिन्न वर्ग के कुछ अन्य लागों की ही वास्तविक संज्ञा है। नागपंथ में अवधूत की स्थिति अत्यंत उच्च मानी जाती है और 'गोरक्ष-सिद्धांत-संग्रह' के अनुसार वह सभी प्रकार के प्रकृतिविकारों से रहित हुआ करता है। वह कैवल्य की उपलब्धि के लिए आत्मस्वरूप के अनुसंधान में निरत रहा करता है और उसकी अनुभूति निर्गुण एवं सगुण से परे होती है। गुरू दत्तात्रेय को भी अवधूत कहा जाता है और दत्तसंप्रदाय (अवधूत मत) में इसका पूर्ण विवेचन है। पश्चिमोत्तर प्रदेश में उन स्त्रियों को 'अवधूती' कहते हैं जो पुरुष संन्यासी के वेश में रहकर भस्म, रुद्राक्षादि धारण करती हैं तथा साधारणत: किसी गंगागिरि नाम की वैसी ही संन्यासिन या अवधूतनी की परंपरा की समझी जाती हैं।[1]
तांत्रिक बौद्ध साधना में ललना, रसना और अवधूती नामक तीन नाड़ियाँ प्रमुख मानी गई हैं। अवधूती सुषुम्नास्थानीय है। यह मध्यदेशीया एवं मध्य ग्राह्य-ग्राहक-विवर्जिता होती है। (ललना पज्ञा स्वभावेन रसनोपायसंस्थिता। अवधूती मध्यदेशे तु ग्राह्यग्राहकवर्जता।-अद्वयवज्रसंगह) यह धर्ममुद्रा तथा महामुद्रा की अभेदता का हेतु है। यह महासुखाश्रयसहजांनदप्रदायिका है और अद्वयस्वभावा है। बोधिचित् के मध्यवर्गीया अवधूतिका में ऊर्ध्वसंचार से भिन्न-भिन्न प्रकार के आनंदों का आस्वाद बताया जाता है।[2]
अवधूत (विशेषण) [भूतकालिक कर्मणि कृदन्त (क्त)] [अव+धू+क्त]
1. हिलाया हुआ, लहराया हुआ
2. त्यागा हुआ, अस्वीकृत, घृणित[3]
3. अपमानित, तिरस्कृत,-तः (पुल्लिंग) वह संन्यासी जिसने सांसारिक बंधनों तथा विषय-वासनाओं को त्याग दिया है-यो विलंघ्याश्रमान् वर्णानात्मन्येव स्थितः पुमान्, अतिवर्णाश्रमी योगी अवधूतः स उच्यते। या-अक्षरत्वात् वरेण्यत वरेण्यत्वात् धूतसंसारबंधनात्, तत्त्वमस्यर्थसिद्धत्वादवधूतोऽभिधीयते।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 281 |
- ↑ सं.ग्रं.-बंगला विश्वकोश, प्रथम खंड; उपासक संप्रदाय (द्वितीय-भाग), अभिधान राजेंद्र; कल्याणी मल्लिक : नाथसंप्रदायेर इतिहास, दर्शन ओ साधनप्रणाल (कलकत्ता, १९५० ई.); मोकाशी : 'महाराष्ट्रांतील पांच संप्रदाय' (पुणें, १९५४ ई.)।
- ↑ रघु. 19/43
- ↑ संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 119 |