दक्षिणामूर्ति उपनिषद

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 12:35, 25 March 2010 by Govind (talk | contribs)
Jump to navigation Jump to search

दक्षिणामूर्ति उपनिषद

  • कृष्ण यजुर्वेदीय परम्परा से जुड़े इस उपनिषद में 'शिवतत्त्व' का विवेचन किया गया है। महर्षि शौनक आदि और मार्कण्डेय ऋषि के मध्य प्रश्नोत्तर के रूप में इसकी रचना की गयी है। मार्कण्डेय ऋषि इसमें 'शिवतत्व' का बोध कराते हैं, जिससे दीर्घ आयु प्राप्त होती है।
  • एक बार ब्रह्मावर्त देश में महाभाण्डीर नामक वटवृक्ष के नीचे शौनकादि महर्षियों ने दीर्घकाल तक चलने वाले यज्ञ का प्रारम्भ किया। उस समय शौनकादि ऋषियों ने 'तत्त्वज्ञान' प्राप्त करने के लिए चिरंजीवी मार्कण्डेय ऋषि से चिरंजीवी होने का कारण पूछा। तब उन्होंने बताया कि उनके दीर्घायु होने का कारण शिवतत्व का ज्ञान है।
  • उस ज्ञान के विषय में बताते हुए उन्होंने कहा कि जिस साधना के द्वारा दक्षिणामुख शिव का प्रकटीकरण होता है, वही परम रहस्यमय शिवतत्त्व का ज्ञान है।

उन्होंने कहा-'सबसे पहले 'ॐ नम:' शब्द का उच्चारण करके 'भगवते' पद का उच्चारण करें। पुन: 'दक्षिणा' पद कहें, फिर 'मूर्तये' पद कहें, फिर 'अस्मद' शबद के चतुर्थी का एक वचन 'मह्यं' पद कहें तथा बाद में 'मेधां प्रज्ञां' पदों का उच्चारण करें। पुन: 'प्र' का उच्चारण करके वायु बीज 'य' का उच्चारण कर आगे 'च्छ' पद बोलें। सबसे अन्त में अग्नि का स्त्री पद 'स्वाहा' कहें। इस प्रकार चौबीस अक्षर का यह मनु मन्त्र है। यह पूरा इस प्रकार बनता है—
'ॐ नमो भगवते दक्षिणामूर्तये मह्यं मेधां प्रज्ञां प्रयच्छ स्वाहा।'
'इस प्रकार मन्त्र बोलकर ध्यान करें- मैं स्फटिक मणि एवं रजत सदृश शुभ्र वर्ण वाले दक्षिणमूर्ति भगवान शिव की स्तुति करता हूँ।'
ये शिव ज्ञानमुद्रा को धारण करने वाले हैं, अमृततत्त्व को देने वाले हैं, गले में अक्ष (रुद्राक्ष) माला धारण करते हैं, जिनके तीन नेत्र है, भाल पर चन्द्रमा का निवास है और कटि में सर्प लिपटे हुए हैं तथा जो विभिन्न वेष धारण करने में सिद्धहस्थ हैं।
मार्कण्डेय मुनि ने फिर कहा—'इसके उपरान्त नवाक्षरी मन्त्र का उच्चारण करें-
'ॐ दक्षिणामूर्तितरों।'
उसके बाद अट्ठारह अक्षर का मनु मन्त्र बोलें-
'ॐ ब्लूं नमो ह्रीं ऐं दक्षिणामूर्तये ज्ञानं देहि स्वाहा।'
'सभी मन्त्रों में यह अति गोपनीय मन्त्र है। इसमें शिव का ध्यान करते हुए देखें कि उनके समस्त शरीर पर भस्म का लेप है, मस्तक पर चन्द्रकला है, कर-कमलों में रुद्राक्ष की माला, वीणा, पुस्तक तथा ज्ञानमुद्रा है, सर्पों से सुशोभित काया है, व्याघ्रचर्मधारी भगवान शिव की यह दक्षिणामूर्ति है। वे सदैव हमारी रक्षा करें।'
मार्कण्डेय मुनि बोले-'शिव के सर्वरक्षक स्वरूप का ध्यान करते हुए इन मन्त्रों को बोलें—
ॐ ह्रीं श्रीं साम्बशिवाय तुभ्यं स्वाहा।
ॐ नमो भगवते तुभ्यं वटमूलवासिने वागीशाय महाज्ञानदायिने मायिने नम:।'
सभी मन्त्रों में श्रेष्ठ यह 'आनुष्टुभमन्त्रराज' है। भगवान शिव की मौन, शान्त मुद्रा मृत्युपर्यन्त बनी रहे, इसी की कामना करनी चाहिए।
मार्कण्डेय मुनि ने फिर कहा—'प्रभु दर्शन के लिए ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की आवश्यकता होती है। इसके द्वारा अज्ञान-रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है और आत्मा-रूपी दीपक प्रज्वलित हो उठता है।'आत्मतत्व' का बोध होने से ही परमात्मा के परम आनन्द में प्रवेश हो जाता है। इसीलिए ब्रह्मज्ञानियों ने उसी 'दक्षिणामुखी शिव' की उपासना पर बल दिया है। इससे समस्त भव-बन्धन और पाप नष्ट हो जाते हैं। साधक 'मोक्ष' को प्राप्त कर लेता है।'

उपनिषद के अन्य लिंक


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः