जाबालदर्शनोपनिषद
जाबालदर्शनोपनिषद
अष्टांग योग का विवेचन
- इस सामवेदीय उपनिषद में भगवान विष्णु के अवतार दत्तात्रेय जी और उनके शिष्य सांकृति का 'अष्टांगयोग' के विषय में विस्तृत विवेचन प्रश्नोत्तर-रूप् में विवेचन किया गया है। इसमें कुल दस खण्ड हैं। इस उपनिषद को 'योगपरक' कहा जा सकता है।
- प्रथम खण्ड में योग के आठों अंगों का विवेचन है। ये आठ अंग हैं-
- यम,
- नियम,
- आसन,
- प्राणायाम,
- प्रत्याहार,
- धारणा,
- ध्यान तथा
- समाधि हैं।
- इनमें यम के दस भेद हैं-
- अहिंसा,
- सत्य,
- अस्तेय,
- ब्रह्मचर्य,
- दया,
- क्षमा,
- सरलता,
- धृति,
- मिताहार और
- ब्राह्याभ्यन्तर की पवित्रता। इनके पालन के बिना 'योग' करना व्यर्थ है।
- दूसरे खण्ड में दस नियमों का विस्तार से वर्णन किया गया है। ये दस नियम हैं-
- तप,
- सन्तोष,
- आस्तिकता,
- दान,
- ईश्वर की पूजा,
- लज्जा,
- जप,
- मति,
- व्रत और
- सिद्धान्तों का श्रवण करना।
- तीसरे खण्ड में नौ प्रकार के यौगिक आसनों का उल्लेख है। ये आसन हैं-
- स्वास्तिक,
- गोमुख,
- पद्मासन,
- वीरासन,
- सिंहासन,
- मुक्तासन,
- भद्रासन,
- मयूरासन और
- सुखासन।
- चौथे खण्ड में नाड़ियों का परिचय तथा आत्मतीर्थ और 'आत्मज्ञान' की महिमा का वर्णन किया गया है। इस मानव-शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियां हैं। उनमें 'सुषुम्ना,' 'पिंगला,' 'इड़ा,' 'सरस्वती,' 'वरुणा,' 'पूषा,' 'यशस्विनी,' 'हस्तिजिह्वा,' 'अलम्बुषा,' 'कुहू,' 'विश्वोदरा,' 'पयस्विनी,' 'शंखिनी' औ 'गान्धारी', ये चौदह नाड़ियां प्रमुख मानी गयी हैं। इनमें भी प्रथम तीन अत्यन्त प्रमुख हैं।
- पांचवें खण्ड में 'नाड़ी-शोधन' तथा 'आत्म-शोधन' का प्रक्रिया और विधियों का उल्लेख किया गया है।
- छठे खण्ड में 'प्राणायाम' की विधि, उसके प्रकार, फल तथा प्रयोग का वर्णन है। इसमें 'पूरक,' 'कुम्भक' और 'रेचक' द्वारा प्राणों का संयम पूर्ण किया जाता है।
- सातवें खण्ड में 'प्रत्याहार' के विविध प्रकारों तथा उसके फल का विवरण है। मनुष्य को जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब ब्रह्म ही है। इस प्रकार समझते हुए ब्रह्म को चित्त में एकाग्र कर लेना प्रत्याहार कहलाता है।
- आठवें खण्ड में 'धारणा' का वर्णन है। अन्त: आकाश में बाह्य आकाश को धारण करना।
- नवें खण्ड में 'ध्यान' का वर्णन है। ऋत एवं सत्य-स्वरूप अविनाशी 'परब्रह्म' को अपनी आत्मा के रूप में आदूरपूर्वक ध्यान में लाना।
- दसवें खण्ड में 'समाधि' अवस्था का वर्णन किया गया है। परमात्मा' तथा 'जीवात्मा' के एकाकी भाव को बुद्धि द्वारा समझना समाधि कहलाता है।
समाधि में पहुंचा हुआ पुरुष परमात्मा से एकत्व प्राप्त करके किसी भी जीव अथवा प्राणी को अपने से अलग नहीं देखता। वह सम्पूर्ण विश्व को माया का विलास मात्र मानता है और परमात्मा में लीन होकर परमानन्द को प्राप्त हो जाता है।
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