कलचुरी वंश

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कोकल्ल प्रथम ने लगभग 845 ई. में कलचुरी वंश की स्थापना की थी। उसने त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया था। सम्भवतः ये चन्द्रवंशी क्षत्रिय थे। कोकल्ल प्रतिहार शासक भोज एवं उसके सामन्तों को युद्ध में हराया । उसने तुरुष्क, वंग एवं कोंकण पर भी अधिकार कर लिया। विलहारी लेख में कोकल्ल के विषय में कहा गया है कि 'समस्त पृथ्वी को विजित कर उसने दक्षिण में कृष्णराज एवं उत्तर में भोज को अपने दो कीर्तिस्तम्भ के रूप में स्थापित किया। कोकल्ल के 18 पुत्रों में से उसका बड़ा पुत्र शंकरगण अगला कलचुरी शासक बना।

शंकरगण (878 से 888 ई.)

शंकरगण ने 878 से 888 के मध्य शासन किया। दक्षिणी कोशल के शासक को पराजित कर उसने पाली पर अधिकार कर लिया। उसकी मृत्यु के बाद इसके दो पुत्रों- बालहर्ष एवं चुवराज प्रथम में बालहर्ष का शासन अल्पकालीन रहा। उसके बाद युवराज प्रथम केयूर वर्ष की उपाधि धारण कर सिंहासन पर बैठा। उसने गौड़ एवं कलिंग को युद्ध में परास्त कर दिया। उसने लाट प्रदेश की भी विजय की। राजशेखर कृत 'सिद्धसालभंजिका' में युवराज को 'उज्जयिनी भुजंग' कहा गया है। युवराज प्रथम के राजदरबार में रहते हुए ही 'राजशेखर' में अपने दो ग्रंथों- 'काव्यमीमांसा' एवं 'विद्धसालभंजिका' की रचना की।

लक्ष्मणराज (888 से 1019 ई.)

युवराज प्रथम का पुत्र .एवं उत्तराधिकारी लक्ष्मणराज विस्तावादी प्रवृति का शासक था। पूर्व में उसने उड़ीसा, बंगाल एवं कोशल को जीता। उड़ीसा अभियान में लक्ष्मणराज ने वहां के शासक से सोने एवं मणियों से निर्मित कलिया नाग को छीन लिया था। अपने विजय अभियान के अन्तर्गत ही लक्ष्मणराज ने सोमनाथ पत्तन को जीता। वह शैव मतावलम्बी था। लक्ष्मणराज के दो पुत्र शंकरगण एवं युवराज द्वितीय निर्बल शासक थे। युवराज द्वितीय के पुत्र कोकल्ल द्वितीय ने कलचुरी वंश के सिंहासन पर बैठ के सिंहासन पर बैठ कर कलचुरियों की खोई प्रतिष्ठा को पुनः कायम किया। उसने चामुण्डाराज नामक चालुक्य राजा को पराजित किया था। चालुक्यों के अतिरिक्त गौड़ एवं कुन्तल के अभियानों में भी सफलता प्राप्त हुई। उसने 1019 ई. तक शासन किया।

गांगेयदेव विक्रमादित्य (1019 से 1040ई.)

गांगेय देव कोकल्ल द्वितीय का पुत्र था। उसने भोज परमार एवं राजेन्द्र चोल के साथ एक संघ बनाकर चालुक्य परेश जयसिंह पर आक्रमण किया, पर सफलता उसके हाथ नहीं लगी। उसने अंग, उत्कल, काशी एवं प्रयाग को जीत कर कलचुरी राज्य का विस्तार किया। वह अपने पूर्वजों की ही तरह शैवमतानुयायी था।

कर्णदेव (1040 से 1070 ई.)

गांगेय देव के बाद उसका पुत्र कर्ण देव अथव लक्ष्मी कर्ण सिंहसानारूढ़ हुआ। उसने चालुक्य नरेश भीम के साथ मिल कर मालवा के परमार वंश के शासक भोज को परास्त किया। कलिंग विजय के उपरान्त उसने 'त्रिकलिंगाधिपति' की उपाधि धारण की । चन्देल नरेश कीर्तिवर्मन से पराजित होने पर उसकी शक्ति कमजोर हो गई और यही से कलचुरी साम्राज्य लड़खड़ाने लगा, जिसका अन्त चन्देल शासक त्रैलोक्य वर्मन ने विजयसिंह को परास्त करके त्रिपुरी को अपने राज्य में मिलाकर कर दिय। कर्णदेव एवं विजयसिंह के मध्य कुछ अन्य कलचुरी शासक यशःकर्ण, गयकर्ण, नरसिंह, जयसिंह आदि थे।



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