मिहिरकुल

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मिहिरकुल अथवा 'मिहिरगुल' हूण राजा तोरमाण का पुत्र तथा उसका उत्तराधिकारी था। यह पाँचवीं शताब्दी ई. के अन्तिम दशकों में गुप्त साम्राज्य की पश्चिमी मिहिरगुल लगभग 500 ई. में गद्दी पर बैठा। उसका साम्राज्य भारत से बाहर अफ़ग़ानिस्तान तक विस्तृत था। उसकी राजधानी पंजाब में 'साकल' अथवा 'सियालकोट' थी। मिहिरकुल को बड़ा ही अत्याचारी शासक माना जाता है, जिसने बौद्धों पर बहुत अत्याचार किये और उनका कठोरतापूर्वक दमन किया।

विजय अभियान

एक राजा के रूप में तोरमाण ने भी भारत में कई विजय अभियान किए थे। तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना। उसके शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर के सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं। इससे सिद्ध होता है कि हूणों ने मालवा इलाके में अपनी स्थति मज़बूत कर ली थी। मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों में हमेशा उसके साथ रहता था। उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और गुप्तों से भी नजराना वसूल किया। मिहिरकुल ने पंजाब स्थित सियालकोट को अपनी राजधानी बनाया था।[1]

शिव भक्त

मिहिकुल एक कट्टर शैव था। उसने अपने शासन काल में हज़ारों शिव मंदिर बनवाये। मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान 'स्थाणु' (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सिर नहीं झुकाया था। मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में अपने को शिव भक्त कहा हैं। मिहिरकुल के सिक्कों पर 'जयतु वृष' लिखा हैं, जिसका अर्थ हैं- 'जय नंदी'।

यात्री विवरण

'कास्मोस इन्दिकप्लेस्तेस' नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी। उसने 'क्रिस्टचिँन टोपोग्राफ़ी' नामक अपने ग्रन्थ में लिखा हैं, की हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाको में रहते थे। उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम दो हज़ार हाथियों के साथ चलता हैं। वह भारत का स्वामी हैं। मिहिरकुल के लगभग सौ वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री ह्वेनसांग 629 ईसवीं में भारत आया था। वह अपने ग्रन्थ 'सी-यू-की' में लिखता हैं, की सैंकडो वर्ष पहले मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था, जो सियालकोट से भारत पर राज करता था। वह कहता हैं, कि मिहिरकुल नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली और बहादुर था।[1]

ह्वेनसांग बताता हैं कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुँचाया। वह कहता हैं कि एक बार मिहिरकुल ने बौद्ध भिक्षुओं से बौद्ध धर्म के बारे में जानने कि इच्छा व्यक्त की। परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने उसका अपमान किया, उन्होंने उसके पास किसी वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु को भेजने की जगह, एक सेवक को बौद्ध गुरु के रूप में भेज दिया। मिहिरकुल को जब इस बात का पता चला तो वह गुस्से में आग-बबूला हो गया और उसने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी। उसने उत्तर भारत के सभी बौद्ध भिक्षुओं का क़त्ले-आम करा दिया और बौद्ध मठो को तुडवा दिया। ह्वेनसांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया।

पराजय

गांधार क्षेत्र में मिहिरकुल के भाई के विद्रोह के कारण, उत्तर भारत का साम्राज्य उसके हाथ से निकलकर उसके विद्रोहियों के हाथों में चला गया। लगभ 528 ई. में मगध के राजा बालादित्य और मंदसोर के राजा यशोधर्मन ने मिलकर मिहिरकुल को पराजित किया और भगा दिया। मिहिरकुल भागकर कश्मीर आ गया और यहाँ का शासक बन बैठा।[1]

मन्दिर व नगर स्थापना

कल्हण ने बारहवी शताब्दी में राजतरंगिणी नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा हैं। उसने मिहिरकुल का एक शक्तिशाली विजेता के रूप में चित्रण किया हैं। वह कहता हैं कि मिहिरकुल काल का दूसरा नाम था। वह पहाड़ से गिरते हुए हाथी कि चिंघाड से आनंदित होता था। उसके अनुसार मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे। उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक नगर बसाया था। कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था। उसने गांधार क्षेत्र में 700 ब्राह्मणों को 'अग्रहार' (ग्राम दान) में दिए थे। कल्हण मिहिरकुल को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं। मिहिरकुल ही नहीं, वरन सभी हूण शिव के भक्त थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 भाटी, डॉ. सुशील। शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। । अभिगमन तिथि: 14 दिसम्बर, 2011।

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