सितम ही करना जफ़ा[1] ही करना निगाह-ए-लुत्फ़ कभी न करना तुम्हें क़सम है हमारे सर की हमारे हक़ में कमी न करना। कहाँ का आना कहाँ का जाना वो जानते ही नहीं ये रस्में वहाँ है वादे की भी ये सूरत कभी तो करना कभी न करना। हमारी मय्यत पे तुम जो आना तो चार आँसू बहा के जाना ज़रा रहे पास-ए-आबरू भी कहीं हमारी हँसी न करना। वो इक हमारा तरीक़-ए-उल्फ़त कि दुश्मनों से भी मिल के चलना ये एक शेवा तेरा सितमगर कि दोस्त से दोस्ती न करना।