हुस्न-ए-अदा[1] भी खूबी-ए-सीरत में चाहिए, यह बढ़ती दौलत, ऐसी ही दौलत में चाहिए। आ जाए राह-ए-रास्त[2] पर काफ़िर तेरा मिज़ाज, इक बंदा-ए-ख़ुदा तेरी ख़िदमत में चाहिए। देखे कुछ उनके चाल-चलन और रंग-ढंग, दिल देना इन हसीनों को मुत में चाहिए। यह इश्क़ का है कोई दारूल-अमां[3] नहीं, हर रोज़ वारदात मुहब्बत में चाहिए। माशूक़ के कहे का बुरा मानते हो ‘दाग़‘, बर्दाश्त आदमी की तबीअत में चाहिए।