मुलाक़ात -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़: Difference between revisions

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यह रात उस दर्द का शजर है
यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
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इसी की शबनम से, ख़ामुशी के
इसी की शबनम से, ख़ामुशी के
यह चंद क़तरे, तेरी ज़बीं पर
यह चंद क़तरे, तेरी ज़बीं पर
बरस के, हीरे पिरो गए हैं  
बरस के, हीरे पिरो गए हैं
 
(2)
बहुत सियह है यह रात लेकिन
इसी सियाही में रूनुमा है
वो नहरे-ख़ूँ जो मेरी सदा है
इसी के साए में नूर गर है
वो मौजे-ज़र जो तेरी नज़र है
वो ग़म जो इस वक़्त तेरी बाँहों
के गुलसिताँ में सुलग रहा है
(वो ग़म जो इस रात का समर है)
कुछ और तप जाए अपनी आहों
की आँच में तो यही शरर है
हर इक सियह शाख़ की कमाँ से
जिगर में टूटे हैं तीर जितने
जिगर से नीचे हैं, और हर इक
का हमने तीशा बना लिया है
 
(3)
अलम नसीबों, जिगर फ़िगारों
की सुबह अफ़्लाक पर नहीं है
जहाँ पे हम-तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रौशन उफ़क़ यहीं है
यहीं पे ग़म के शरार खिल कर
शफ़क का गुलज़ार बन गए हैं
यहीं पे क़ातिल दुखों के तीशे
क़तार अंदर क़तार किरनों
के आतशीं हार बन गए हैं
 
यह ग़म जो इस रात ने दिया है
यह ग़म सहर का यक़ीं बना है
यक़ीं जो ग़म से करीमतर है
सहर जो शब से अज़ीमतर है
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Latest revision as of 14:08, 20 June 2013

मुलाक़ात -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
जन्म 13 फ़रवरी, 1911
जन्म स्थान सियालकोट
मृत्यु 20 नवम्बर, 1984
मृत्यु स्थान लाहौर
मुख्य रचनाएँ 'नक्श-ए-फरियादी', 'दस्त-ए-सबा', 'जिंदांनामा', 'दस्त-ए-तहे-संग', 'मेरे दिल मेरे मुसाफिर', 'सर-ए-वादी-ए-सिना' आदि।
विशेष जेल के दौरान लिखी गई आपकी कविता 'ज़िन्दा-नामा' को बहुत पसंद किया गया था।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की रचनाएँ

(1)
यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
अज़ीमतर है कि उसकी शाख़ों में

लाख मशा'ल-बकफ़ सितारों
के कारवाँ, घिर के खो गए हैं
हज़ार महताब उसके साए
में अपना सब नूर, रो गए हैं
यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
मगर इसी रात के शजर से
यह चंद लमहों के ज़र्द पत्ते
गिरे हैं और तेरे गेसुओं में
उलझ के गुलनार हो गए हैं
इसी की शबनम से, ख़ामुशी के
यह चंद क़तरे, तेरी ज़बीं पर
बरस के, हीरे पिरो गए हैं

(2)
बहुत सियह है यह रात लेकिन
इसी सियाही में रूनुमा है
वो नहरे-ख़ूँ जो मेरी सदा है
इसी के साए में नूर गर है
वो मौजे-ज़र जो तेरी नज़र है
वो ग़म जो इस वक़्त तेरी बाँहों
के गुलसिताँ में सुलग रहा है
(वो ग़म जो इस रात का समर है)
कुछ और तप जाए अपनी आहों
की आँच में तो यही शरर है
हर इक सियह शाख़ की कमाँ से
जिगर में टूटे हैं तीर जितने
जिगर से नीचे हैं, और हर इक
का हमने तीशा बना लिया है

(3)
अलम नसीबों, जिगर फ़िगारों
की सुबह अफ़्लाक पर नहीं है
जहाँ पे हम-तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रौशन उफ़क़ यहीं है
यहीं पे ग़म के शरार खिल कर
शफ़क का गुलज़ार बन गए हैं
यहीं पे क़ातिल दुखों के तीशे
क़तार अंदर क़तार किरनों
के आतशीं हार बन गए हैं

यह ग़म जो इस रात ने दिया है
यह ग़म सहर का यक़ीं बना है
यक़ीं जो ग़म से करीमतर है
सहर जो शब से अज़ीमतर है


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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