सिक्ख: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
 
(6 intermediate revisions by 2 users not shown)
Line 1: Line 1:
[[चित्र:Sikh-Symbol.jpg|thumb|250px|सिक्ख धर्म का प्रतीक]]
[[चित्र:Sikh-Symbol.jpg|thumb|250px|सिक्ख धर्म का प्रतीक]]
'''सिक्ख''' लोगों को [[गुरु नानक]] (1469-1538 ई.) के अनुयायियों के रूप में जाना जाता है। मुख्य रूप से [[पंजाब]] ही उनका निवास स्थान है। प्रारम्भ वे शान्तिप्रिय थे और उनमें परस्पर जाति-पाँति का कोई भेदभाव नहीं था, हालाँकि उनमें से अधिकांश [[हिन्दू]] से सिक्ख बने थे। ये सभी धर्मों में निहित आधारभूत सत्य में विश्वास करते हैं और उनका दृष्टिकोण धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित और उदार है। 1538 ई. में गुरु नानक की मृत्यु के उपरान्त सिक्खों का मुखिया गुरु कहलाने लगा।
'''सिक्ख''' लोगों को [[गुरु नानक]] (1469-1539 ई.) के अनुयायियों के रूप में जाना जाता है। मुख्य रूप से [[पंजाब]] ही उनका निवास स्थान है। प्रारम्भ में वे शान्तिप्रिय थे और उनमें परस्पर जाति-पाँति का कोई भेदभाव नहीं था, हालाँकि उनमें से अधिकांश [[हिन्दू]] से सिक्ख बने थे। ये सभी धर्मों में निहित आधारभूत सत्य में विश्वास करते हैं और उनका दृष्टिकोण धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित और उदार है। 1539 ई. में गुरु नानक की मृत्यु के उपरान्त सिक्खों का मुखिया 'गुरु' कहलाने लगा। सिक्खों ने [[भारत]] में समय-समय पर यहाँ के [[इतिहास]] में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। [[मुग़ल काल]] में कितने ही सिक्ख राजाओं ने अपने पुत्रों को देश की ख़ातिर बलिदान कर दिया। [[औरंगज़ेब]] ने तो सिक्खों के प्रति कठोर दृष्टिकोण अपनाया। [[बन्दा बहादुर]] आज भी भारतीय इतिहास में अपनी शहादत के लिए याद किया जाता है।
{{tocright}}
==इतिहास==
==दस गुरु==
15वीं शताब्दी में [[सिक्ख धर्म]] 'गुरु नानकदेव' के द्वारा चलाया गया। सिक्ख जाति को एक लड़ाकू जाति के रूप में परिवर्तित करने का महत्त्वपूरण कार्य [[गुरु हर गोविन्द सिंह]] ने किया। सिक्खों के दसवें [[गुरु गोविन्द सिंह]] के नेतृत्व में सिक्ख एक राजनीतिक एवं फ़ौजी शक्ति बनकर उभरे। गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु के बाद 'गुरु' की परम्परा समाप्त हो गई। उनके शिष्य [[बन्दा बहादुर|बन्दा सिंह]], जिसे 'बन्दा बहादुर' के नाम से भी जाना जाता है, उसने अपने गुरु की मृत्यु के बाद सिक्खों का नेतृत्व संभाला। उसके शिष्य उसे 'सच्चा पादशाह' कहकर सम्बोधित करते थे। 1715 ई. में बन्दा सिंह को पकड़कर उसकी हत्या कर दी गई। 1748 ई. में नवाब 'कर्पूर सिंह' ने सिक्खों के अलग-अलग दल को 'खालसा दल' में शामिल किया, जिसका नेतृत्व '[[जस्सा सिंह]]' ने किया। सिक्खों का विभाजन 12 मिसलों में हुआ था। 1760 ई. तक सिक्खों का [[पंजाब]] पर पूर्ण अधिकार हो गया था। सिक्खों ने 1763 से 1773 ई. के बीच सिक्ख शक्ति का विस्तार पूर्व में [[सहारनपुर]], पश्चिम में [[अटक]], दक्षिण में [[मुल्तान]] और उत्तर में [[जम्मू-कश्मीर]] तक कर लिया।
सिक्खों के क्रमश: दस गुरु हुए हैं-
{| class="bharattable-green" border="1" style="margin:5px; float:right"
#[[गुरु नानकदेव]] (1469-1539)
|+ सिक्खों के दस गुरु
#[[गुरु अंगद]] (1539-1552 ई.)
! गुरु का नाम
#गुरु अमरदास (1552-1574 ई.)
! समयकाल
#गुरु रामदास (1574-1581 ई.)
|-
#गुरु अर्जुन (1581-1606 ई.)
| [[गुरु नानकदेव]]
#[[गुरु हरगोविंद सिंह]] (1606-1645 ई.)
|1469-1539
#[[गुरु हरराय]] (1645-1661 ई.)
|-
#गुरु हरकिशन (1661-1664 ई.)
| [[गुरु अंगद]]
#[[गुरु तेग बहादुर सिंह]] (1664-1675 ई.) और
|1539-1552 ई.
#[[गुरु गोविन्द सिंह]] (1675-1708 ई.)।
|-
| गुरु अमरदास
| 1552-1574 ई.
|-
| गुरु रामदास
| 1574-1581 ई.
|-
| गुरु अर्जुन
|1581-1606 ई.
|-
| [[गुरु हरगोविंद सिंह]]
|1606-1645 ई.
|-
| [[गुरु हरराय]]
|1645-1661 ई.
|-
| गुरु हरकिशन
|1661-1664 ई.
|-
| [[गुरु तेग बहादुर सिंह]]
|1664-1675 ई.
|-
| [[गुरु गोविन्द सिंह]]
| 1675-1708 ई.
|-
|}
==गुरु अर्जुन का वध==  
==गुरु अर्जुन का वध==  
चौथे गुरु रामदास अत्यन्त साधु प्रकृति के व्यक्ति थे, इसलिए बादशाह [[अकबर]] भी उनका आदर करता था। उसने [[अमृतसर]] में एक जलाशय से युक्त भू-भाग उन्हें दान दिया, जिस पर आगे चलकर सिक्ख [[स्वर्ण मंदिर|स्वर्णमन्दिर]] का निर्माण हुआ। पाँचवें गुरु अर्जुन ने सिक्खों के '''आदि ग्रन्थ''' नामक धर्म ग्रन्थ का संकलन किया, जिसमें उनके पूर्व के चारों गुरुओं तथा कुछ [[हिन्दू]] और [[मुसलमान]] संतों की वाणी संकलित है। उन्होंने खालसा पंथ की आर्थिक स्थिति को दृढ़ता प्रदान करने के लिए प्रत्येक सिक्ख से धार्मिक चंदा वसूल करने की प्रथा चलाई। बादशाह [[जहाँगीर]] के आदेश पर गुरु अर्जुन का इस कारण वध कर दिया गया कि उन्होंने दया के वशीभूत होकर बादशाह के विद्रोही पुत्र शाहज़ादा खुसरो को शरण दी थी।
चौथे गुरु रामदास अत्यन्त साधु प्रकृति के व्यक्ति थे, इसलिए बादशाह [[अकबर]] भी उनका आदर करता था। उसने [[अमृतसर]] में एक जलाशय से युक्त भू-भाग उन्हें दान दिया, जिस पर आगे चलकर सिक्ख [[स्वर्ण मंदिर|स्वर्णमन्दिर]] का निर्माण हुआ। पाँचवें गुरु अर्जुन ने सिक्खों के '''आदि ग्रन्थ''' नामक धर्म ग्रन्थ का संकलन किया, जिसमें उनके पूर्व के चारों गुरुओं तथा कुछ [[हिन्दू]] और [[मुसलमान]] संतों की वाणी संकलित है। उन्होंने खालसा पंथ की आर्थिक स्थिति को दृढ़ता प्रदान करने के लिए प्रत्येक सिक्ख से धार्मिक चंदा वसूल करने की प्रथा चलाई। बादशाह [[जहाँगीर]] के आदेश पर गुरु अर्जुन का इस कारण वध कर दिया गया कि उन्होंने दया के वशीभूत होकर बादशाह के विद्रोही पुत्र शाहज़ादा खुसरो को शरण दी थी।
Line 21: Line 46:
गुरु गोविन्द सिंह ने भली-भाँति विचार करके शान्तिप्रिय सिक्ख सम्प्रदाय को सैनिक संगठन का रूप दिया, जो दृढ़तापूर्वक मुसलमानों के अतिक्रमण तथा अत्याचारों का सामना कर सके। साथ ही उन्होंने सिक्खों में ऐसी अनुशासन की भावना भरी कि वे लड़ाकू शक्ति बन गए। उन्होंने अपने पंथ का नाम '''खालसा (पवित्र)''' रखा। साथ ही समस्त सिक्ख समुदाय को एकता के सूत्र में आबद्ध करने के विचार से सिक्खों को केश, कच्छ, कड़ा, कृपाण और कंघा– ये पाँच वस्तुएँ आवश्यक रूप से धारण करने का आदेश दिया। उन्होंने स्थानीय [[मुग़ल]] हाकिमों से कई युद्ध किए, जिनमें उनके दो बालक पुत्र मारे गए, किन्तु वे हतोत्साहित न हुए। मृत्यु पर्यन्त वे सिक्खों का संगठन करते रहे। 1708 ई. में एक [[अफ़ग़ान]] ने उनकी हत्या कर दी।
गुरु गोविन्द सिंह ने भली-भाँति विचार करके शान्तिप्रिय सिक्ख सम्प्रदाय को सैनिक संगठन का रूप दिया, जो दृढ़तापूर्वक मुसलमानों के अतिक्रमण तथा अत्याचारों का सामना कर सके। साथ ही उन्होंने सिक्खों में ऐसी अनुशासन की भावना भरी कि वे लड़ाकू शक्ति बन गए। उन्होंने अपने पंथ का नाम '''खालसा (पवित्र)''' रखा। साथ ही समस्त सिक्ख समुदाय को एकता के सूत्र में आबद्ध करने के विचार से सिक्खों को केश, कच्छ, कड़ा, कृपाण और कंघा– ये पाँच वस्तुएँ आवश्यक रूप से धारण करने का आदेश दिया। उन्होंने स्थानीय [[मुग़ल]] हाकिमों से कई युद्ध किए, जिनमें उनके दो बालक पुत्र मारे गए, किन्तु वे हतोत्साहित न हुए। मृत्यु पर्यन्त वे सिक्खों का संगठन करते रहे। 1708 ई. में एक [[अफ़ग़ान]] ने उनकी हत्या कर दी।
==वीर बन्दा==
==वीर बन्दा==
{| class="bharattable-green" border="1" style="margin:5px; float:right"
|+ सिक्खों के मिसल और उनके संस्थापक
! मिसल का नाम
! मिसल के संस्थापक
|-
| सिंहपुरिया मिसल
| कपूर सिंह
|-
| अहलूवालिया मिसल
| जस्सा सिंह अहलूवालिया
|-
| रामगढ़िया मिसल
| जस्सा सिंह रामगढ़िया
|-
| कनहिया मिसल
| जय सिंह
|-
| फुलकिया मिसल 
| फूल सिंह
|-
| भाँगी मिसल
| हरि सिंह
|-
| सुकरचकिया मिसल
| चरत सिंह
|-
| निशानवालिया मिसल
| सरदार संगत सिंह
|-
| करोड़ सिंधिया मिसल
| भगेल सिंह
|-
| उल्लेवालिया मिसल
| गुलाब सिंह
|-
| नकाई मिसल
| हीरा सिंह
|-
| शहीदी मिसल
| बाबा दीप सिंह
|}
आगे चलकर गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ भी संकलित हुईं और यह संकलन '''गुरु ग्रन्थ साहब''' का परिशिष्ट बना। समस्त सिक्ख समुदाय उनका इतना आदर करता था कि उनकी मृत्यु के उपरान्त गुरु पद ही समाप्त कर दिया गया। यद्यपि उनके उपरान्त ही [[बन्दा बहादुर|बन्दा वीर]] ने सिक्खों का नेतृत्व भार सम्भाल लिया। वीर बन्दा के नेतृत्व में 1708 ई. से लेकर 1716 ई. तक सिक्ख निरन्तर मुग़लों से लोहा लेते रहे, पर 1716 ई. में बन्दा बन्दी बनाया गया और बादशाह [[फ़र्रुख़सियर]] की आज्ञा से हाथियों से रौंदवाकर उसकी हत्या करवा दी गई। सैकड़ों सिक्खों को घोर यातनाएँ दी गईं। फिर भी इन अत्याचारों से खालसा पंथ की सैनिक शक्ति को किसी भी प्रकार से दबाया नहीं जा सका। गुरु के अभाव में, व्यक्तिगत नेतृत्व के स्थान पर, संगठन का भार कई व्यक्तियों के एक समूह पर आ पड़ा, जिन्होंने अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अपने सहधर्मियों का संगठन किया।
आगे चलकर गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ भी संकलित हुईं और यह संकलन '''गुरु ग्रन्थ साहब''' का परिशिष्ट बना। समस्त सिक्ख समुदाय उनका इतना आदर करता था कि उनकी मृत्यु के उपरान्त गुरु पद ही समाप्त कर दिया गया। यद्यपि उनके उपरान्त ही [[बन्दा बहादुर|बन्दा वीर]] ने सिक्खों का नेतृत्व भार सम्भाल लिया। वीर बन्दा के नेतृत्व में 1708 ई. से लेकर 1716 ई. तक सिक्ख निरन्तर मुग़लों से लोहा लेते रहे, पर 1716 ई. में बन्दा बन्दी बनाया गया और बादशाह [[फ़र्रुख़सियर]] की आज्ञा से हाथियों से रौंदवाकर उसकी हत्या करवा दी गई। सैकड़ों सिक्खों को घोर यातनाएँ दी गईं। फिर भी इन अत्याचारों से खालसा पंथ की सैनिक शक्ति को किसी भी प्रकार से दबाया नहीं जा सका। गुरु के अभाव में, व्यक्तिगत नेतृत्व के स्थान पर, संगठन का भार कई व्यक्तियों के एक समूह पर आ पड़ा, जिन्होंने अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अपने सहधर्मियों का संगठन किया।
==शक्ति विस्तार==
==शक्ति विस्तार==
फ़ेजुल्लापुर के कपूर सिंह ने खालसा दल अथवा सिक्ख राज्य की नींव डाली। अन्य सिक्ख सरदारों ने [[नादिरशाह]] के आक्रमण के उपरान्त [[पंजाब]] में फैली हुई अव्यवस्था का लाभ उठाकर सिक्खों का संगठन किया और [[रावी नदी]] के तट पर डालीवाल में एक दुर्ग का निर्माण कराया तथा [[लाहौर]] तक धावे मारने शुरू कर दिए। [[अहमदशाह अब्दाली]] के बार-बार के आक्रमणों और विशेषकर 1768 ई. के [[पानीपत]] के तृतीय युद्ध ने पंजाब में सिक्खों की शक्ति बढ़ाने में विशेष योग दिया, क्योंकि उनके प्रयास से पंजाब में [[मुग़ल]] शासन समाप्त प्राय हो गया था तथा सिक्खों में नवीन आशा एवं साहस का संचार हो रहा था। वे अब्दाली का पीछा करते रहे और छापामार युद्ध की नीति अपनाकर पंजाब में उसकी स्थिति को विषम बना दिया। अंतत: 1767 ई. में उसके [[भारत]] से [[अफ़ग़ानिस्तान]] लौट जाने पर सिक्खों ने अपनी वीरता तथा अध्यवसाय से पंजाब के समस्त मैदानी भाग को अपने नियंत्रण में ले लिया।
फ़ेजुल्लापुर के कपूर सिंह ने खालसा दल अथवा सिक्ख राज्य की नींव डाली। अन्य सिक्ख सरदारों ने [[नादिरशाह का आक्रमण|नादिरशाह के आक्रमण]] के उपरान्त [[पंजाब]] में फैली हुई अव्यवस्था का लाभ उठाकर सिक्खों का संगठन किया और [[रावी नदी]] के तट पर डालीवाल में एक दुर्ग का निर्माण कराया तथा [[लाहौर]] तक धावे मारने शुरू कर दिए। [[अहमदशाह अब्दाली]] के बार-बार के आक्रमणों और विशेषकर 1768 ई. के [[पानीपत]] के तृतीय युद्ध ने पंजाब में सिक्खों की शक्ति बढ़ाने में विशेष योग दिया, क्योंकि उनके प्रयास से पंजाब में [[मुग़ल]] शासन समाप्त प्राय हो गया था तथा सिक्खों में नवीन आशा एवं साहस का संचार हो रहा था। वे अब्दाली का पीछा करते रहे और छापामार युद्ध की नीति अपनाकर पंजाब में उसकी स्थिति को विषम बना दिया। अंतत: 1767 ई. में उसके [[भारत]] से [[अफ़ग़ानिस्तान]] लौट जाने पर सिक्खों ने अपनी वीरता तथा अध्यवसाय से पंजाब के समस्त मैदानी भाग को अपने नियंत्रण में ले लिया।
 
==स्वतंत्र राज्य की स्थापना==  
==स्वतंत्र राज्य की स्थापना==  
1773 ई. तक उनका अधिकार क्षेत्र पूर्व में [[सहारनपुर]] से पश्चिम में [[अटक]] तक तथा उत्तर में पहाड़ी भाग से लेकर दक्षिण में [[मुल्तान]] तक विस्तृत हो गया। इस प्रकार सिक्ख अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने में सफल हुए, किन्तु उनमें एक शासकीय ईकाई का अभाव था। वे बारह मिसलों (टुकड़ियों) में विभक्त थे, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार थे-
1773 ई. तक उनका अधिकार क्षेत्र पूर्व में [[सहारनपुर]] से पश्चिम में [[अटक]] तक तथा उत्तर में पहाड़ी भाग से लेकर दक्षिण में [[मुल्तान]] तक विस्तृत हो गया। इस प्रकार सिक्ख अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने में सफल हुए, किन्तु उनमें एक शासकीय ईकाई का अभाव था। वे बारह मिसलों (टुकड़ियों) में विभक्त थे, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार थे- 1-सिंहपुरिया मिसल, 2-अहलूवालिया मिसल, 3-रामगढ़िया मिसल, 4-कनहिया मिसल, 5-फुलकिया मिसल, 6-भाँगी मिसल, 7-सुकरचकिया मिसल, 8-निशानवालिया मिसल, 9-करोड़ सिंधिया मिसल, 10-उल्लेवालिया मिसल, 11-नकाई मिसल और 12-शहीदी मिसल। [[अहमदशाह अब्दाली]] और और मुग़लों की सत्ता के पतन के उपरान्त सिक्ख किसी भी बाह्य शक्ति के भय से रहित होकर परस्पर संघर्षरत हो गए। फलस्वरूप उपर्युक्त बारह मिसलों के छिन्न-भिन्न होने की स्थिति उत्पन्न हो गई। किन्तु सुकरचकिया मिसल के नायक [[रणजीत सिंह]] ने अपनी योग्यता और बुद्धिमत्ता से इस आशंका को दूर कर दिया।
1-अहलूवालिया, 2-भाँगी, 3-डलवालिया, 4-फैज्जुलापुरिया, 5-कन्हैया, 6-करोड़ा सिंहिया, 7-नकाई, 8-निहंग, 9-निशालवाला, 10-फुलकिया, 11-रामगढ़िया और 12-सुकरचकिया।
[[अहमदशाह अब्दाली]] और और मुग़लों की सत्ता के पतन के उपरान्त सिक्ख किसी भी बाह्य शक्ति के भय से रहित होकर परस्पर संघर्षरत हो गए। फलस्वरूप उपर्युक्त बारह मिसलों के छिन्न-भिन्न होने की स्थिति उत्पन्न हो गई। किन्तु सुकरचकिया मिसल के नायक [[रणजीत सिंह]] ने अपनी योग्यता और बुद्धिमत्ता से इस आशंका को दूर कर दिया।


==रणजीत सिंह का नेतृत्व==
==रणजीत सिंह का नेतृत्व==
Line 50: Line 115:
[[Category:इतिहास कोश]]
[[Category:इतिहास कोश]]
[[Category:सिक्ख धर्म]]
[[Category:सिक्ख धर्म]]
[[Category:सिक्ख धर्म कोश]]
[[Category:सिक्ख धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__

Latest revision as of 13:48, 21 March 2014

thumb|250px|सिक्ख धर्म का प्रतीक सिक्ख लोगों को गुरु नानक (1469-1539 ई.) के अनुयायियों के रूप में जाना जाता है। मुख्य रूप से पंजाब ही उनका निवास स्थान है। प्रारम्भ में वे शान्तिप्रिय थे और उनमें परस्पर जाति-पाँति का कोई भेदभाव नहीं था, हालाँकि उनमें से अधिकांश हिन्दू से सिक्ख बने थे। ये सभी धर्मों में निहित आधारभूत सत्य में विश्वास करते हैं और उनका दृष्टिकोण धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित और उदार है। 1539 ई. में गुरु नानक की मृत्यु के उपरान्त सिक्खों का मुखिया 'गुरु' कहलाने लगा। सिक्खों ने भारत में समय-समय पर यहाँ के इतिहास में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। मुग़ल काल में कितने ही सिक्ख राजाओं ने अपने पुत्रों को देश की ख़ातिर बलिदान कर दिया। औरंगज़ेब ने तो सिक्खों के प्रति कठोर दृष्टिकोण अपनाया। बन्दा बहादुर आज भी भारतीय इतिहास में अपनी शहादत के लिए याद किया जाता है।

इतिहास

15वीं शताब्दी में सिक्ख धर्म 'गुरु नानकदेव' के द्वारा चलाया गया। सिक्ख जाति को एक लड़ाकू जाति के रूप में परिवर्तित करने का महत्त्वपूरण कार्य गुरु हर गोविन्द सिंह ने किया। सिक्खों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्ख एक राजनीतिक एवं फ़ौजी शक्ति बनकर उभरे। गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु के बाद 'गुरु' की परम्परा समाप्त हो गई। उनके शिष्य बन्दा सिंह, जिसे 'बन्दा बहादुर' के नाम से भी जाना जाता है, उसने अपने गुरु की मृत्यु के बाद सिक्खों का नेतृत्व संभाला। उसके शिष्य उसे 'सच्चा पादशाह' कहकर सम्बोधित करते थे। 1715 ई. में बन्दा सिंह को पकड़कर उसकी हत्या कर दी गई। 1748 ई. में नवाब 'कर्पूर सिंह' ने सिक्खों के अलग-अलग दल को 'खालसा दल' में शामिल किया, जिसका नेतृत्व 'जस्सा सिंह' ने किया। सिक्खों का विभाजन 12 मिसलों में हुआ था। 1760 ई. तक सिक्खों का पंजाब पर पूर्ण अधिकार हो गया था। सिक्खों ने 1763 से 1773 ई. के बीच सिक्ख शक्ति का विस्तार पूर्व में सहारनपुर, पश्चिम में अटक, दक्षिण में मुल्तान और उत्तर में जम्मू-कश्मीर तक कर लिया।

सिक्खों के दस गुरु
गुरु का नाम समयकाल
गुरु नानकदेव 1469-1539
गुरु अंगद 1539-1552 ई.
गुरु अमरदास 1552-1574 ई.
गुरु रामदास 1574-1581 ई.
गुरु अर्जुन 1581-1606 ई.
गुरु हरगोविंद सिंह 1606-1645 ई.
गुरु हरराय 1645-1661 ई.
गुरु हरकिशन 1661-1664 ई.
गुरु तेग बहादुर सिंह 1664-1675 ई.
गुरु गोविन्द सिंह 1675-1708 ई.

गुरु अर्जुन का वध

चौथे गुरु रामदास अत्यन्त साधु प्रकृति के व्यक्ति थे, इसलिए बादशाह अकबर भी उनका आदर करता था। उसने अमृतसर में एक जलाशय से युक्त भू-भाग उन्हें दान दिया, जिस पर आगे चलकर सिक्ख स्वर्णमन्दिर का निर्माण हुआ। पाँचवें गुरु अर्जुन ने सिक्खों के आदि ग्रन्थ नामक धर्म ग्रन्थ का संकलन किया, जिसमें उनके पूर्व के चारों गुरुओं तथा कुछ हिन्दू और मुसलमान संतों की वाणी संकलित है। उन्होंने खालसा पंथ की आर्थिक स्थिति को दृढ़ता प्रदान करने के लिए प्रत्येक सिक्ख से धार्मिक चंदा वसूल करने की प्रथा चलाई। बादशाह जहाँगीर के आदेश पर गुरु अर्जुन का इस कारण वध कर दिया गया कि उन्होंने दया के वशीभूत होकर बादशाह के विद्रोही पुत्र शाहज़ादा खुसरो को शरण दी थी।

औरंगज़ेब का क्रोध

गुरु अर्जुन के पुत्र गुरु हरगोविंद सिंह ने सिक्खों का सैनिक संगठन किया, एक छोटी-सी सिक्खों की सेना एकत्र की। उन्होंने शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह करके एक युद्ध में शाही सेना को परास्त भी कर दिया। किन्तु अन्त में उन्होंने भागकर कश्मीर के पर्वतीय प्रदेश में शरण ली। वहीं पर उनकी मृत्यु हो गई। अगले दोनों गुरु, गुरु हरराय और गुरु हरकिशन के काल में कोई घटना नहीं घटी। उन्होंने गुरु अर्जुन द्वारा प्रचलित धार्मिक चन्दे की प्रथा एवं उनके पुत्र हरगोविन्द की सैनिक-संगठन की नीति का अनुसरण करके खालसा पंथ को और भी शक्तिशाली बनाया। नवें गुरु तेग बहादुर सिंह को औरंगज़ेब का कोप-भाजन बनना पड़ा। उसने गुरु को बन्दी बनाकर उसके सम्मुख प्रस्ताव रखा कि या तो इस्लाम धर्म स्वीकार करो अथवा प्राण देने के लिए तैयार हो जाओ। बाद में उनका सिर उतार लिया गया। उनकी शहादत का समस्त सिक्ख सम्प्रदाय, उनके पुत्र तथा अगले गुरु गोविन्द सिंह पर गम्भीर प्रभाव पड़ा।

सिक्खों का संगठन

गुरु गोविन्द सिंह ने भली-भाँति विचार करके शान्तिप्रिय सिक्ख सम्प्रदाय को सैनिक संगठन का रूप दिया, जो दृढ़तापूर्वक मुसलमानों के अतिक्रमण तथा अत्याचारों का सामना कर सके। साथ ही उन्होंने सिक्खों में ऐसी अनुशासन की भावना भरी कि वे लड़ाकू शक्ति बन गए। उन्होंने अपने पंथ का नाम खालसा (पवित्र) रखा। साथ ही समस्त सिक्ख समुदाय को एकता के सूत्र में आबद्ध करने के विचार से सिक्खों को केश, कच्छ, कड़ा, कृपाण और कंघा– ये पाँच वस्तुएँ आवश्यक रूप से धारण करने का आदेश दिया। उन्होंने स्थानीय मुग़ल हाकिमों से कई युद्ध किए, जिनमें उनके दो बालक पुत्र मारे गए, किन्तु वे हतोत्साहित न हुए। मृत्यु पर्यन्त वे सिक्खों का संगठन करते रहे। 1708 ई. में एक अफ़ग़ान ने उनकी हत्या कर दी।

वीर बन्दा

सिक्खों के मिसल और उनके संस्थापक
मिसल का नाम मिसल के संस्थापक
सिंहपुरिया मिसल कपूर सिंह
अहलूवालिया मिसल जस्सा सिंह अहलूवालिया
रामगढ़िया मिसल जस्सा सिंह रामगढ़िया
कनहिया मिसल जय सिंह
फुलकिया मिसल फूल सिंह
भाँगी मिसल हरि सिंह
सुकरचकिया मिसल चरत सिंह
निशानवालिया मिसल सरदार संगत सिंह
करोड़ सिंधिया मिसल भगेल सिंह
उल्लेवालिया मिसल गुलाब सिंह
नकाई मिसल हीरा सिंह
शहीदी मिसल बाबा दीप सिंह

आगे चलकर गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ भी संकलित हुईं और यह संकलन गुरु ग्रन्थ साहब का परिशिष्ट बना। समस्त सिक्ख समुदाय उनका इतना आदर करता था कि उनकी मृत्यु के उपरान्त गुरु पद ही समाप्त कर दिया गया। यद्यपि उनके उपरान्त ही बन्दा वीर ने सिक्खों का नेतृत्व भार सम्भाल लिया। वीर बन्दा के नेतृत्व में 1708 ई. से लेकर 1716 ई. तक सिक्ख निरन्तर मुग़लों से लोहा लेते रहे, पर 1716 ई. में बन्दा बन्दी बनाया गया और बादशाह फ़र्रुख़सियर की आज्ञा से हाथियों से रौंदवाकर उसकी हत्या करवा दी गई। सैकड़ों सिक्खों को घोर यातनाएँ दी गईं। फिर भी इन अत्याचारों से खालसा पंथ की सैनिक शक्ति को किसी भी प्रकार से दबाया नहीं जा सका। गुरु के अभाव में, व्यक्तिगत नेतृत्व के स्थान पर, संगठन का भार कई व्यक्तियों के एक समूह पर आ पड़ा, जिन्होंने अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अपने सहधर्मियों का संगठन किया।

शक्ति विस्तार

फ़ेजुल्लापुर के कपूर सिंह ने खालसा दल अथवा सिक्ख राज्य की नींव डाली। अन्य सिक्ख सरदारों ने नादिरशाह के आक्रमण के उपरान्त पंजाब में फैली हुई अव्यवस्था का लाभ उठाकर सिक्खों का संगठन किया और रावी नदी के तट पर डालीवाल में एक दुर्ग का निर्माण कराया तथा लाहौर तक धावे मारने शुरू कर दिए। अहमदशाह अब्दाली के बार-बार के आक्रमणों और विशेषकर 1768 ई. के पानीपत के तृतीय युद्ध ने पंजाब में सिक्खों की शक्ति बढ़ाने में विशेष योग दिया, क्योंकि उनके प्रयास से पंजाब में मुग़ल शासन समाप्त प्राय हो गया था तथा सिक्खों में नवीन आशा एवं साहस का संचार हो रहा था। वे अब्दाली का पीछा करते रहे और छापामार युद्ध की नीति अपनाकर पंजाब में उसकी स्थिति को विषम बना दिया। अंतत: 1767 ई. में उसके भारत से अफ़ग़ानिस्तान लौट जाने पर सिक्खों ने अपनी वीरता तथा अध्यवसाय से पंजाब के समस्त मैदानी भाग को अपने नियंत्रण में ले लिया।

स्वतंत्र राज्य की स्थापना

1773 ई. तक उनका अधिकार क्षेत्र पूर्व में सहारनपुर से पश्चिम में अटक तक तथा उत्तर में पहाड़ी भाग से लेकर दक्षिण में मुल्तान तक विस्तृत हो गया। इस प्रकार सिक्ख अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने में सफल हुए, किन्तु उनमें एक शासकीय ईकाई का अभाव था। वे बारह मिसलों (टुकड़ियों) में विभक्त थे, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार थे- 1-सिंहपुरिया मिसल, 2-अहलूवालिया मिसल, 3-रामगढ़िया मिसल, 4-कनहिया मिसल, 5-फुलकिया मिसल, 6-भाँगी मिसल, 7-सुकरचकिया मिसल, 8-निशानवालिया मिसल, 9-करोड़ सिंधिया मिसल, 10-उल्लेवालिया मिसल, 11-नकाई मिसल और 12-शहीदी मिसल। अहमदशाह अब्दाली और और मुग़लों की सत्ता के पतन के उपरान्त सिक्ख किसी भी बाह्य शक्ति के भय से रहित होकर परस्पर संघर्षरत हो गए। फलस्वरूप उपर्युक्त बारह मिसलों के छिन्न-भिन्न होने की स्थिति उत्पन्न हो गई। किन्तु सुकरचकिया मिसल के नायक रणजीत सिंह ने अपनी योग्यता और बुद्धिमत्ता से इस आशंका को दूर कर दिया।

रणजीत सिंह का नेतृत्व

रणजीत सिंह का जन्म 1780 ई. में हुआ था और 1799 ई. में उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के शासक जमानशाह से लाहौर के प्रान्तीय शासक का पद प्राप्त कर लिया, जिससे पंजाब के मुसलमानों को उनके आगे झुकना पड़ा। अगले छ: वर्षों में उन्होंने सतलुज नदी को पार करके सभी मिसलों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। सतलुज के इस पार अथवा पूर्वी क्षेत्र की मिसलों पर अधिकार जमाने में वह इस कारण असफल रहे कि भारत में स्थित अंग्रेज़ सरकार इन मिसलों के सरदारों को उनका विरोध करने के लिए सहायता दे रही थी। फिर भी रणजीत सिंह ने 1839 ई. में अपनी मृत्यु के पूर्व सिक्खों को संगठित शक्ति में परिवर्तित कर दिया, जिनके स्वतंत्र राज्य की सीमाएँ सतलुज से पेशावर तक और कश्मीर से मुल्तान तक विस्तृत थीं। इसकी रक्षा के लिए यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित तथा शक्तिशाली तोपखाने से सज्जित विपुल सैन्यबल भी था। किन्तु दुर्भाग्यवश रणजीत सिंह का कोई सुयोग्य तथा वयस्क पुत्र नहीं था, जो सिक्खों का नेतृत्व कर उनके अधूरे कार्यों को आगे बढ़ा सकता। फलस्वरूप उनके उत्तराधिकारी के रूप में कई निर्बल और कठपुतली शासक हुए और कुचक्री राजनीतिज्ञों तथा महत्त्वाकांक्षी सेनापतियों के षड्यंत्र के कारण 1845 से 1849 ई. के चार वर्षों के अल्पकाल में ही सिक्खों को (सिक्ख युद्ध) प्रथम तथा द्वितीय युद्धों में फँसना पड़ा, जिससे उस स्वतंत्र सिक्ख राज्य का नाश हो गया, जिसका निर्माण दीर्घकालीन बलिदानों के आधार पर हुआ था।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध


टीका टिप्पणी और संदर्भ

भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 472।

संबंधित लेख