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कृत्तिवासा, [[शिव]] का पर्याय है। | कृत्तिवासा, [[शिव]] का पर्याय है। अर्थात् कृत्ति अथवा गजचर्म को वस्त्र में धारण करने वाले। [[स्कन्दपुराण]] के<ref>काशीखण्ड (अध्याय 64</ref> में गजासुरवध तथा शिव के कृत्तिवासत्व की कथा दी हुई है। | ||
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"[[महिषासुर]] का पुत्र गजासुर सर्वत्र अपने बल से [[उन्मत्त]] होकर सभी [[देवता|देवताओं]] को उत्पीड़न कर रहा था। यह दुस्सह दानव जिस-जिस दिशा में जाता था, वहाँ पर तुरन्त ही सभी दिशाओं में भय छा जाता था। [[ब्रह्मा]] से वर पाकर वह तीनों लोकों को तृणवत् समझता था। काम से अभिभूत स्त्री-पुरुषों द्वारा यह अवध्य था। इस स्थिति में उस दैत्यपुगंव को आता हुआ देखकर त्रिशूलधारी शिव ने मानवों से अवध्य जानकर अपने त्रिशूल से उसका वध किया। त्रिशूल से आहत होकर और अपने छत्र के समान टँगा हुआ जानकर यह शिव की शरण में गया और बोला-हे त्रिशूलपाणि! हे देवताओं के स्वामी! हे पुरान्तक! आपके हाथों से मेरा वध श्रेयस्कर है। कुछ मैं कहना चाहता हूँ। मेरी कामना पूरी करें। हे मृत्युजंय! मैं आपके ऊपर स्थित होने के कारण धन्य हूँ। त्रिशूल के अग्र भाग पर स्थित होने के कारण मैं कृतकृत्य और अनुगृहीत हूँ। काल से सभी डरते हैं, परन्तु इस प्रकार की मृत्यु कल्याणकारी है। कृपानिधि शंकर ने हँसते हुए कहा- हे गजासुर! मैं तुम्हारे | "[[महिषासुर]] का पुत्र गजासुर सर्वत्र अपने बल से [[उन्मत्त]] होकर सभी [[देवता|देवताओं]] को उत्पीड़न कर रहा था। यह दुस्सह दानव जिस-जिस दिशा में जाता था, वहाँ पर तुरन्त ही सभी दिशाओं में भय छा जाता था। [[ब्रह्मा]] से वर पाकर वह तीनों लोकों को तृणवत् समझता था। काम से अभिभूत स्त्री-पुरुषों द्वारा यह अवध्य था। इस स्थिति में उस दैत्यपुगंव को आता हुआ देखकर त्रिशूलधारी शिव ने मानवों से अवध्य जानकर अपने त्रिशूल से उसका वध किया। त्रिशूल से आहत होकर और अपने छत्र के समान टँगा हुआ जानकर यह शिव की शरण में गया और बोला-हे त्रिशूलपाणि! हे देवताओं के स्वामी! हे पुरान्तक! आपके हाथों से मेरा वध श्रेयस्कर है। कुछ मैं कहना चाहता हूँ। मेरी कामना पूरी करें। हे मृत्युजंय! मैं आपके ऊपर स्थित होने के कारण धन्य हूँ। त्रिशूल के अग्र भाग पर स्थित होने के कारण मैं कृतकृत्य और अनुगृहीत हूँ। काल से सभी डरते हैं, परन्तु इस प्रकार की मृत्यु कल्याणकारी है। कृपानिधि शंकर ने हँसते हुए कहा- हे गजासुर! मैं तुम्हारे महान् पौरुष से प्रसन्न हूँ। हे असुर, अपने अनुकूल वर माँगो, तुमको अवश्य दूँगा। उस दैत्य ने शिव से पुन: निवेदन किया, हे दिग्वास! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सदा धारण करें। यह मेरी कृत्ति (चर्म) आपकी त्रिशूलाग्नि से पवित्र हो चुकी है। यह अच्छे आकार वाली, स्पर्श करने में सुखकर और युद्ध में पणीकृत है। हे दिगम्बर! यदि यह मेरी कृत्ति पुण्यवती नहीं होती तो रणागंण में इसका आपके अंग के साथ सम्पर्क कैसे होता? हे शंकर! यदि आप प्रसन्न हैं तो एक दूसरा वर दीजिए। आज के दिन से आपका नाम कृत्तिवासा हो। उसके वचन को सुनकर शंकर ने कहा, ऐसा ही होगा। भक्ति से निर्मल चित्त वाले दैत्य से उन्होंने पुन: कहा- | ||
हे पुण्यनिधि दैत्य! दूसरा वर अत्यन्त दुर्लभ है। अविमुक्त ([[काशी]]) में, जो मुक्ति का साधन है, तुम्हारा यह पुण्यशरीर मेरी मूर्ति होकर अवतरित होगा, जो सबके लिए मुक्ति देने वाला होगा। इसका नाम 'कृत्तिवासेश्वर' होगा। यह महापातकों का नाश करेगा। सभी मूर्तियों में यह श्रेष्ठ और शिरोभूत होगा।" | हे पुण्यनिधि दैत्य! दूसरा वर अत्यन्त दुर्लभ है। अविमुक्त ([[काशी]]) में, जो मुक्ति का साधन है, तुम्हारा यह पुण्यशरीर मेरी मूर्ति होकर अवतरित होगा, जो सबके लिए मुक्ति देने वाला होगा। इसका नाम 'कृत्तिवासेश्वर' होगा। यह महापातकों का नाश करेगा। सभी मूर्तियों में यह श्रेष्ठ और शिरोभूत होगा।" | ||
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कृत्तिवासा, शिव का पर्याय है। अर्थात् कृत्ति अथवा गजचर्म को वस्त्र में धारण करने वाले। स्कन्दपुराण के[1] में गजासुरवध तथा शिव के कृत्तिवासत्व की कथा दी हुई है।
कथा
"महिषासुर का पुत्र गजासुर सर्वत्र अपने बल से उन्मत्त होकर सभी देवताओं को उत्पीड़न कर रहा था। यह दुस्सह दानव जिस-जिस दिशा में जाता था, वहाँ पर तुरन्त ही सभी दिशाओं में भय छा जाता था। ब्रह्मा से वर पाकर वह तीनों लोकों को तृणवत् समझता था। काम से अभिभूत स्त्री-पुरुषों द्वारा यह अवध्य था। इस स्थिति में उस दैत्यपुगंव को आता हुआ देखकर त्रिशूलधारी शिव ने मानवों से अवध्य जानकर अपने त्रिशूल से उसका वध किया। त्रिशूल से आहत होकर और अपने छत्र के समान टँगा हुआ जानकर यह शिव की शरण में गया और बोला-हे त्रिशूलपाणि! हे देवताओं के स्वामी! हे पुरान्तक! आपके हाथों से मेरा वध श्रेयस्कर है। कुछ मैं कहना चाहता हूँ। मेरी कामना पूरी करें। हे मृत्युजंय! मैं आपके ऊपर स्थित होने के कारण धन्य हूँ। त्रिशूल के अग्र भाग पर स्थित होने के कारण मैं कृतकृत्य और अनुगृहीत हूँ। काल से सभी डरते हैं, परन्तु इस प्रकार की मृत्यु कल्याणकारी है। कृपानिधि शंकर ने हँसते हुए कहा- हे गजासुर! मैं तुम्हारे महान् पौरुष से प्रसन्न हूँ। हे असुर, अपने अनुकूल वर माँगो, तुमको अवश्य दूँगा। उस दैत्य ने शिव से पुन: निवेदन किया, हे दिग्वास! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सदा धारण करें। यह मेरी कृत्ति (चर्म) आपकी त्रिशूलाग्नि से पवित्र हो चुकी है। यह अच्छे आकार वाली, स्पर्श करने में सुखकर और युद्ध में पणीकृत है। हे दिगम्बर! यदि यह मेरी कृत्ति पुण्यवती नहीं होती तो रणागंण में इसका आपके अंग के साथ सम्पर्क कैसे होता? हे शंकर! यदि आप प्रसन्न हैं तो एक दूसरा वर दीजिए। आज के दिन से आपका नाम कृत्तिवासा हो। उसके वचन को सुनकर शंकर ने कहा, ऐसा ही होगा। भक्ति से निर्मल चित्त वाले दैत्य से उन्होंने पुन: कहा- हे पुण्यनिधि दैत्य! दूसरा वर अत्यन्त दुर्लभ है। अविमुक्त (काशी) में, जो मुक्ति का साधन है, तुम्हारा यह पुण्यशरीर मेरी मूर्ति होकर अवतरित होगा, जो सबके लिए मुक्ति देने वाला होगा। इसका नाम 'कृत्तिवासेश्वर' होगा। यह महापातकों का नाश करेगा। सभी मूर्तियों में यह श्रेष्ठ और शिरोभूत होगा।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ काशीखण्ड (अध्याय 64
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