हकीम अजमल ख़ाँ: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replacement - "जरूर" to "ज़रूर")
 
(11 intermediate revisions by 3 users not shown)
Line 9: Line 9:
|मृत्यु स्थान=
|मृत्यु स्थान=
|मृत्यु कारण=
|मृत्यु कारण=
|अविभावक=
|अभिभावक=
|पति/पत्नी=
|पति/पत्नी=
|संतान=
|संतान=
Line 36: Line 36:
'''हकीम अजमल ख़ाँ''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Hakim Ajmal Khan'', जन्म- 1863 [[दिल्ली]], मृत्यु- [[29 दिसम्बर]], [[1927]]) राष्ट्रीय विचारधारा के समर्थक और [[यूनानी चिकित्सा पद्धति]] के प्रसिद्ध चिकित्सक थे। हकीम अजमल ख़ाँ अपने समय के सबसे कुशाग्र और बहुमुखी व्यक्तित्व के रूप में प्रसिद्ध हुए। भारत की आज़ादी, राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के क्षेत्रों में उनका योगदान अतुलनीय है। वे एक सशक्त राजनीतिज्ञ और उच्चतम क्षमता के शिक्षाविद थे।  
'''हकीम अजमल ख़ाँ''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Hakim Ajmal Khan'', जन्म- 1863 [[दिल्ली]], मृत्यु- [[29 दिसम्बर]], [[1927]]) राष्ट्रीय विचारधारा के समर्थक और [[यूनानी चिकित्सा पद्धति]] के प्रसिद्ध चिकित्सक थे। हकीम अजमल ख़ाँ अपने समय के सबसे कुशाग्र और बहुमुखी व्यक्तित्व के रूप में प्रसिद्ध हुए। भारत की आज़ादी, राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के क्षेत्रों में उनका योगदान अतुलनीय है। वे एक सशक्त राजनीतिज्ञ और उच्चतम क्षमता के शिक्षाविद थे।  
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
हकीम अजमल ख़ाँ का जन्म 1863 ई. में [[दिल्ली]] के उस [[परिवार]] में हुआ, जिसके पुरखे [[मुग़ल]] सम्राटों के पारिवारिक चिकित्सक रहते आए थे। अजमल ख़ाँ हकीमी अपनी शिक्षा प्राप्त करने के बाद 10 वर्षों तक [[रामपुर]] रियासत के हकीम रहे। [[1902]] ई. में वे ईराक चले गए और वापस आने पर दिल्ली में ‘मदरसे तिब्बिया’ की नींव डाली, जो अब ‘तिब्बिया कॉलेज’ के नाम से प्रसिद्ध है। अजमल ख़ाँ के पूर्वज, जो प्रसिद्ध चिकित्सक थे, [[भारत]] में [[मुग़ल साम्राज्य]] के संस्थापक [[बाबर]] के शासनकाल में भारत आए थे। हकीम अजमल ख़ाँ के [[परिवार]] के सभी सदस्य यूनानी हकीम थे। उनका परिवार मुग़ल शासकों के समय से चिकित्सा की इस प्राचीन शैली का अभ्यास करता आ रहा था। वे उस ज़माने में [[दिल्ली]] के रईस के रूप में जाने जाते थे। उनके दादा हकीम शरीफ ख़ान मुग़ल शासक शाह आलम के चिकित्सक थे और उन्होंने शरीफ मंजिल का निर्माण करवाया था, जो एक अस्पताल और महाविद्यालय था जहाँ यूनानी चिकित्सा की पढ़ाई की जाती थी।<ref name="IM"/>
हकीम अजमल ख़ाँ का जन्म 1863 ई. में [[दिल्ली]] के उस [[परिवार]] में हुआ, जिसके पुरखे [[मुग़ल]] सम्राटों के पारिवारिक चिकित्सक रहते आए थे। अजमल ख़ाँ हकीमी अपनी शिक्षा प्राप्त करने के बाद 10 वर्षों तक [[रामपुर]] रियासत के हकीम रहे। [[1902]] ई. में वे ईराक चले गए और वापस आने पर दिल्ली में ‘मदरसे तिब्बिया’ की नींव डाली, जो अब ‘तिब्बिया कॉलेज’ के नाम से प्रसिद्ध है। अजमल ख़ाँ के पूर्वज, जो प्रसिद्ध चिकित्सक थे, [[भारत]] में [[मुग़ल साम्राज्य]] के संस्थापक [[बाबर]] के शासनकाल में भारत आए थे। हकीम अजमल ख़ाँ के [[परिवार]] के सभी सदस्य यूनानी हकीम थे। उनका परिवार मुग़ल शासकों के समय से चिकित्सा की इस प्राचीन शैली का अभ्यास करता आ रहा था। वे उस ज़माने में [[दिल्ली]] के रईस के रूप में जाने जाते थे। उनके दादा हकीम शरीफ ख़ान मुग़ल शासक शाह आलम के चिकित्सक थे और उन्होंने शरीफ मंज़िल का निर्माण करवाया था, जो एक अस्पताल और महाविद्यालय था जहाँ यूनानी चिकित्सा की पढ़ाई की जाती थी।<ref name="IM"/>
====बचपन और शिक्षा====
====बचपन और शिक्षा====
उन्होंने अपने परिवार के बुजुर्गों, जिनमें से सभी प्रसिद्ध चिकित्सक थे, की देखरेख में चिकित्सा की पढ़ाई शुरु करने से पहले, अपने बचपन में क़ुरान को अपने [[ह्रदय]] में उतारा और पारंपरिक इस्लामिक ज्ञान की शिक्षा भी प्राप्त की जिसमें [[अरबी भाषा|अरबी]] और [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] शामिल थी। उनके दादा हकीम शरीफ ख़ान तिब्ब-इ-यूनानी या यूनानी चिकित्सा के अभ्यास के प्रचार पर जोर देते थे और इस उद्देश्य के लिए उन्होंने शरीफ मंजिल नामक अस्पताल रूपी कॉलेज की स्थापना की, जो पूरे उपमहाद्वीप में सबसे लोकोपकारी यूनानी अस्पताल के रूप में प्रसिद्ध था जहां ग़रीब मरीजों से कोई भी शुल्क नहीं लिया जाता था।<ref name="IM">{{cite web |url=http://www.indianmuslims.info/people/hakim_ajmal_khan_1863_1927_medicine_freedom_fighter.html |title=Hakim Ajmal Khan [1863-1927)] Medicine, Freedom Fighter|accessmonthday=28 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=Indian Muslims |language=अंग्रेज़ी }}</ref>
उन्होंने अपने परिवार के बुजुर्गों, जिनमें से सभी प्रसिद्ध चिकित्सक थे, की देखरेख में चिकित्सा की पढ़ाई शुरु करने से पहले, अपने बचपन में क़ुरान को अपने [[हृदय]] में उतारा और पारंपरिक इस्लामिक ज्ञान की शिक्षा भी प्राप्त की जिसमें [[अरबी भाषा|अरबी]] और [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] शामिल थी। उनके दादा हकीम शरीफ ख़ान तिब्ब-इ-यूनानी या यूनानी चिकित्सा के अभ्यास के प्रचार पर जोर देते थे और इस उद्देश्य के लिए उन्होंने शरीफ मंज़िल नामक अस्पताल रूपी कॉलेज की स्थापना की, जो पूरे उपमहाद्वीप में सबसे लोकोपकारी यूनानी अस्पताल के रूप में प्रसिद्ध था जहां ग़रीब मरीजों से कोई भी शुल्क नहीं लिया जाता था।<ref name="IM">{{cite web |url=http://www.indianmuslims.info/people/hakim_ajmal_khan_1863_1927_medicine_freedom_fighter.html |title=Hakim Ajmal Khan [1863-1927)] Medicine, Freedom Fighter|accessmonthday=28 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=Indian Muslims |language=अंग्रेज़ी }}</ref>
====मसीहा-ए-हिंद====
====मसीहा-ए-हिंद====
योग्य होने पर हकीम अजमल ख़ाँ को [[1892]] में रामपुर के नवाब का प्रमुख चिकित्सक नियुक्त किया गया। कोई भी प्रशस्ति हकीम साहेब की लिए बहुत बड़ी नहीं है, उन्हें "मसीहा-ए-हिंद" और "बेताज बादशाह" कहा जाता था। उनके पिता की तरह उनके इलाज में भी चमत्कारिक असर था, और ऐसा माना जाता था कि उनके पास कोई जादुई चिकित्सकीय खजाना था, जिसका राज़ केवल वे ही जानते थे। चिकित्सा में उनकी बुद्धि इतनी तेज़ थी कि यह कहा जाता था कि वे केवल इंसान का चेहरा देखकर उसकी किसी भी बीमारी का पता लगा लेते थे। हकीम अजमल ख़ाँ मरीज को एक बार देखने के 1000 रुपये लेते थे। शहर से बाहर जाने पर यह उनका दैनिक शुल्क था, लेकिन यदि मरीज उनके पास [[दिल्ली]] आये तो उसका इलाज मुफ्त किया जाता था, फिर चाहे वह महाराजा ही क्यों न हों।
योग्य होने पर हकीम अजमल ख़ाँ को [[1892]] में रामपुर के नवाब का प्रमुख चिकित्सक नियुक्त किया गया। कोई भी प्रशस्ति हकीम साहेब की लिए बहुत बड़ी नहीं है, उन्हें "मसीहा-ए-हिंद" और "बेताज बादशाह" कहा जाता था। उनके पिता की तरह उनके इलाज में भी चमत्कारिक असर था, और ऐसा माना जाता था कि उनके पास कोई जादुई चिकित्सकीय ख़ज़ाना था, जिसका राज़ केवल वे ही जानते थे। चिकित्सा में उनकी बुद्धि इतनी तेज़ थी कि यह कहा जाता था कि वे केवल इंसान का चेहरा देखकर उसकी किसी भी बीमारी का पता लगा लेते थे। हकीम अजमल ख़ाँ मरीज को एक बार देखने के 1000 रुपये लेते थे। शहर से बाहर जाने पर यह उनका दैनिक शुल्क था, लेकिन यदि मरीज उनके पास [[दिल्ली]] आये तो उसका इलाज मुफ़्त किया जाता था, फिर चाहे वह महाराजा ही क्यों न हों।
==यूनानी चिकित्सा==
==यूनानी चिकित्सा==
हकीम अजमल ने [[यूनानी चिकित्सा पद्धति|यूनानी चिकित्सा]] की देशी प्रणाली के विकास और विस्तार में काफी दिलचस्पी ली। हकीम अजमल ख़ाँ ने शोध और अभ्यास का विस्तार करने के लिए तीन महत्वपूर्ण संस्थाओं का निर्माण करवाया, [[दिल्ली]] में सेंट्रल कॉलेज, हिन्दुस्तानी दवाखाना तथा आयुर्वेदिक और यूनानी तिब्बिया कॉलेज; और इस प्रकार भारत में चिकित्सा की यूनानी प्रणाली को विलुप्त होने से बचाने में मदद की। यूनानी चिकित्सा के क्षेत्र में उनके अथक प्रयास ने ब्रिटिश शासन में समाप्ति की कगार पर पहुंच चुकी भारतीय यूनानी चिकित्सा प्रणाली में नई ऊर्जा और जीवन का संचार किया। अजमल ख़ाँ की हकीम के रूप में देशव्यापी ख्याति थी।  
हकीम अजमल ने [[यूनानी चिकित्सा पद्धति|यूनानी चिकित्सा]] की देशी प्रणाली के विकास और विस्तार में काफ़ी दिलचस्पी ली। हकीम अजमल ख़ाँ ने शोध और अभ्यास का विस्तार करने के लिए तीन महत्त्वपूर्ण संस्थाओं का निर्माण करवाया, [[दिल्ली]] में सेंट्रल कॉलेज, हिन्दुस्तानी दवाखाना तथा आयुर्वेदिक और यूनानी तिब्बिया कॉलेज; और इस प्रकार भारत में चिकित्सा की यूनानी प्रणाली को विलुप्त होने से बचाने में मदद की। यूनानी चिकित्सा के क्षेत्र में उनके अथक प्रयास ने ब्रिटिश शासन में समाप्ति की कगार पर पहुंच चुकी भारतीय यूनानी चिकित्सा प्रणाली में नई ऊर्जा और जीवन का संचार किया। अजमल ख़ाँ की हकीम के रूप में देशव्यापी ख्याति थी।  
==राजनीति में प्रवेश==
==राजनीति में प्रवेश==
[[1918]] में हकीम अजमल ख़ाँ [[कांग्रेस]] में सम्मिलित हो गए। हकीम साहब के राजनीति में प्रवेश करते ही उनका घर (उनका पुश्तैनी घर आज भी बल्लीमारान में शरीफ मंजिल के नाम से प्रसिद्ध है) राजनीतिज्ञों का केंद्र बन गया। उन दिनों शरीफ मंजिल में नेताओं के आने जाने से बहुत चहल पहल बनी रहती थी। हकीम साहब एक बड़े तख्त पर बैठ कर नेताओं से विचार विमर्श करते रहते थे। गुप्त बात के लिए आँगन में लगे हुए छोटे कमरे में बैठते थे। उस छोटे से कमरे में ना जाने कितनी समस्याओं का समाधान किया गया था, जिसमें आजकल सन्नाटा छाया रहता है। हकीम साहब की योजना के अनुसार [[30 मार्च]], [[1919]] ई. को दिल्ली में सबसे बड़ी हड़ताल हुई थी। इस हड़ताल को सफल बनाने के लिए उन्होंने बहुत दौड़-धूप की थी। उनके इस कार्य की बड़े-बड़े नेताओं ने दिल खोलकर प्रशंसा की थी। 1919 ई. के अन्तर में उनके प्रयत्नों से ही शहीदों का शानदार स्मारक बना, जिसकी देश के बड़े-बड़े नेताओं ने प्रशंसा की। [[1921]] में आपने कांग्रेस के [[अहमदाबाद]] अधिवेशन की और ख़िलाफ़त [[कांग्रेस]] की अध्यक्षता की। ‘ऑल इण्डिया गो रक्षा कांफ़्रेंस’, जिसके अध्यक्ष [[लाला लाजपत राय]] थे, स्वागत समिति की अध्यक्षता का दायित्व भी हकीम साहब ने ही उठाया था। उस सम्मेलन में [[मुसलमान|मुसलमानों]] से अपील की गई थी कि, वे इस मामले में [[हिन्दू|हिन्दुओं]] की भावनाओं का सम्मान करें। हकीम साहब ने 1918 ई. से लेकर [[1927]] तक स्वतंत्रता आन्दोलन की राजनीति में खुल कर भाग लिया था। 1927 ई. में यह महापुरुष परलोक सिधार गया था। 9 वर्षों के थोड़े से समय में उन्होंने ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य किए, जिसके कारण उन्हें युगों-युगों तक याद किया जाता रहेगा। <ref name="SSK"/>
[[1918]] में हकीम अजमल ख़ाँ [[कांग्रेस]] में सम्मिलित हो गए। हकीम साहब के राजनीति में प्रवेश करते ही उनका घर (उनका पुश्तैनी घर आज भी बल्लीमारान में शरीफ मंज़िल के नाम से प्रसिद्ध है) राजनीतिज्ञों का केंद्र बन गया। उन दिनों शरीफ मंज़िल में नेताओं के आने जाने से बहुत चहल पहल बनी रहती थी। हकीम साहब एक बड़े तख्त पर बैठ कर नेताओं से विचार विमर्श करते रहते थे। गुप्त बात के लिए आँगन में लगे हुए छोटे कमरे में बैठते थे। उस छोटे से कमरे में ना जाने कितनी समस्याओं का समाधान किया गया था, जिसमें आजकल सन्नाटा छाया रहता है। हकीम साहब की योजना के अनुसार [[30 मार्च]], [[1919]] ई. को दिल्ली में सबसे बड़ी हड़ताल हुई थी। इस हड़ताल को सफल बनाने के लिए उन्होंने बहुत दौड़-धूप की थी। उनके इस कार्य की बड़े-बड़े नेताओं ने दिल खोलकर प्रशंसा की थी। 1919 ई. के अन्तर में उनके प्रयत्नों से ही शहीदों का शानदार स्मारक बना, जिसकी देश के बड़े-बड़े नेताओं ने प्रशंसा की। [[1921]] में आपने कांग्रेस के [[अहमदाबाद]] अधिवेशन की और ख़िलाफ़त [[कांग्रेस]] की अध्यक्षता की। ‘ऑल इण्डिया गो रक्षा कांफ़्रेंस’, जिसके अध्यक्ष [[लाला लाजपत राय]] थे, स्वागत समिति की अध्यक्षता का दायित्व भी हकीम साहब ने ही उठाया था। उस सम्मेलन में [[मुसलमान|मुसलमानों]] से अपील की गई थी कि, वे इस मामले में [[हिन्दू|हिन्दुओं]] की भावनाओं का सम्मान करें। हकीम साहब ने 1918 ई. से लेकर [[1927]] तक स्वतंत्रता आन्दोलन की राजनीति में खुल कर भाग लिया था। 1927 ई. में यह महापुरुष परलोक सिधार गया था। 9 वर्षों के थोड़े से समय में उन्होंने ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य किए, जिसके कारण उन्हें युगों-युगों तक याद किया जाता रहेगा। <ref name="SSK"/>
====गांधीजी से मुलाकात====
====गांधीजी से मुलाकात====
हकीम साहब का [[गांधीजी]] से पहला सम्पर्क [[1919]] ई. में हुआ था। इस समय (1919) रोलेट बिल के विरुद्ध सत्याग्रह चल रहा था। सत्याग्रह के सम्बन्ध में ही गांधीजी [[दिल्ली]] आए हुए थे। हकीम साहब सत्याग्रह के सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए गांधीजी के पास पहुँचे और वे गांधीजी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उसके बाद हकीम साहब का सम्पर्क गांधीजी से निरन्तर प्रगाढ़ होता चला गया। गांधीजी जब भी किसी साम्प्रदायिक समस्या को सुलझाना चाहते थे, तब वे इस सम्बन्ध में हकीम साहब से परामर्श करते थे। 1920 ई. में लॉर्ड हार्डी ने हकीम साहब को तिब्बिया कॉलेज की सहायता के लिए छ: लाख रुपये देने का वचन दिया था, परंतु 1921 ई. में जब हकीम साहब ने गांधीजी के [[असहयोग आन्दोलन]] में सक्रिय रूप से भाग लिया, तो लॉर्ड हार्डी ने सहायता देने से मना कर दिया। हकीम साहब ने इसकी कोई परवाह नहीं की। वे जीवन के अंतिम समय तक देश की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों से संघर्ष करते रहे। उनका तिब्बिया कॉलेज आज भी उन्हीं की भांति सर ऊँचा किए हुए खड़ा है, अपनी सेवाओं से उस महान देशभक्त की स्मृति को ताजा कर देता है।<ref name="SSK"/>
हकीम साहब का [[गांधीजी]] से पहला सम्पर्क [[1919]] ई. में हुआ था। इस समय (1919) रोलेट बिल के विरुद्ध सत्याग्रह चल रहा था। सत्याग्रह के सम्बन्ध में ही गांधीजी [[दिल्ली]] आए हुए थे। हकीम साहब सत्याग्रह के सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए गांधीजी के पास पहुँचे और वे गांधीजी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उसके बाद हकीम साहब का सम्पर्क गांधीजी से निरन्तर प्रगाढ़ होता चला गया। गांधीजी जब भी किसी साम्प्रदायिक समस्या को सुलझाना चाहते थे, तब वे इस सम्बन्ध में हकीम साहब से परामर्श करते थे। 1920 ई. में लॉर्ड हार्डी ने हकीम साहब को तिब्बिया कॉलेज की सहायता के लिए छ: लाख रुपये देने का वचन दिया था, परंतु 1921 ई. में जब हकीम साहब ने गांधीजी के [[असहयोग आन्दोलन]] में सक्रिय रूप से भाग लिया, तो लॉर्ड हार्डी ने सहायता देने से मना कर दिया। हकीम साहब ने इसकी कोई परवाह नहीं की। वे जीवन के अंतिम समय तक देश की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों से संघर्ष करते रहे। उनका तिब्बिया कॉलेज आज भी उन्हीं की भांति सर ऊँचा किए हुए खड़ा है, अपनी सेवाओं से उस महान् देशभक्त की स्मृति को ताजा कर देता है।<ref name="SSK"/>
==देशभक्ति भावना==
==देशभक्ति भावना==
हकीम साहब में देशभक्ति के भाव कूट-कूट कर भरे हुए थे। वे मजहब से भी देश को बड़ा मानते थे। उन्होंने देश सेवा के लिए आराम, सुख-चैन तथा सम्पत्ति आदि की कोई परवाह नहीं की। वे देश के लिए धन को ठुकराते रहे। वे एक साहसी और वीर सेनानी थे। उन्हें जो कुछ कहना होता, कह डालते एवं कर डालते थे। हकीम साहब के जीवन के यादगार का सबसे बड़ा स्मारक उनका दवाखाना और तिब्बिया महाविद्यालय है। एक बार राजा ने अपने महल में अपनी बीमार रानी को दिख़ाँे के लिए हकीम साहब को बुलाया। हकीम साहब जब रानी के कमरे में पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि रानी विदेशी वस्त्र पहने हुए थी एवं उनका पूरा कमरा विदेशी वस्तुओं और साज सामान से भरा हुआ था। हकीम साहब ने रानी की नब्ज़ को देखते हुए कहा, 'समय बदल रहा है। अब तो आप लोगों को विदेशी कपड़े नहीं पहनने चाहिए। केवल खादी को ही काम में लाना चाहिए।'
हकीम साहब में देशभक्ति के भाव कूट-कूट कर भरे हुए थे। वे मजहब से भी देश को बड़ा मानते थे। उन्होंने देश सेवा के लिए आराम, सुख-चैन तथा सम्पत्ति आदि की कोई परवाह नहीं की। वे देश के लिए धन को ठुकराते रहे। वे एक साहसी और वीर सेनानी थे। उन्हें जो कुछ कहना होता, कह डालते एवं कर डालते थे। हकीम साहब के जीवन के यादगार का सबसे बड़ा स्मारक उनका दवाखाना और तिब्बिया महाविद्यालय है। एक बार राजा ने अपने महल में अपनी बीमार रानी को दिख़ाँे के लिए हकीम साहब को बुलाया। हकीम साहब जब रानी के कमरे में पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि रानी विदेशी वस्त्र पहने हुए थी एवं उनका पूरा कमरा विदेशी वस्तुओं और साज सामान से भरा हुआ था। हकीम साहब ने रानी की नब्ज़ को देखते हुए कहा, 'समय बदल रहा है। अब तो आप लोगों को विदेशी कपड़े नहीं पहनने चाहिए। केवल खादी को ही काम में लाना चाहिए।'
Line 57: Line 57:
[[चित्र:Ajamal-khan-haveli.jpg|thumb|हकीम अजमल ख़ाँ की हवेली, [[दिल्ली]]]]
[[चित्र:Ajamal-khan-haveli.jpg|thumb|हकीम अजमल ख़ाँ की हवेली, [[दिल्ली]]]]
हकीम साहब मृदुल स्वभाव के थे। वे कभी भी किसी को कड़वी बात नहीं कहते थे। यहाँ तक कि जो गलती करता था, उसे भी बड़ी बात में नहीं डाँटते थे। जब वे किसी पर नाराज होते थे तो मुस्कारते हुए सिर्फ़ इतना ही कहते थे, 'तुम बड़े बेवकूफ हो।' हकीम साहब अपने नौकरों को भी आप कह कर बुलाते थे। एक दिन जब उनके किसी मित्र ने इस बारे में उनके पूछा, 'हकीम साहब आप नौकरों को आप क्यों कहा करते हैं।' हकीम साहब ने इसका उत्तर देते हुए कहा, 'नौकर भी हमारे तरह ही इन्सान हैं। इन्सान को इन्सान की इज्जत करनी चाहिए।'
हकीम साहब मृदुल स्वभाव के थे। वे कभी भी किसी को कड़वी बात नहीं कहते थे। यहाँ तक कि जो गलती करता था, उसे भी बड़ी बात में नहीं डाँटते थे। जब वे किसी पर नाराज होते थे तो मुस्कारते हुए सिर्फ़ इतना ही कहते थे, 'तुम बड़े बेवकूफ हो।' हकीम साहब अपने नौकरों को भी आप कह कर बुलाते थे। एक दिन जब उनके किसी मित्र ने इस बारे में उनके पूछा, 'हकीम साहब आप नौकरों को आप क्यों कहा करते हैं।' हकीम साहब ने इसका उत्तर देते हुए कहा, 'नौकर भी हमारे तरह ही इन्सान हैं। इन्सान को इन्सान की इज्जत करनी चाहिए।'
हकीम साहब प्रतिदिन प्रात:काल होते ही अपने पुश्तैनी मकान के दीवानखाने में तख्त पर बैठ कर रोगियों को देखते थे। उनका हालचाल पूछते थे। वे रोगी से बहुत धीमे स्वर में बात करते थे। वे लगभग दो घंटे में दो सौ रोगियों को देख लेते थे। यूँ तो हकीम साहब प्रतिदिन प्रात:काल नियमित रूप से रोगियों को देखते थे, पर उनके घर का दवाखाना रोगियों के लिए हमेशा खुला रहता था। कोई भी रोगी किसी भी समय जाकर उन्हें अपनी बीमारी दिखा सकता था। कभी कभी तो हकीम साहब खाँ छोड़ कर रोगी को देखते थे। उनके लिए रोगी की सेवा से बढ़ कर दुनिया में और कोई दूसरा काम नहीं था। हकीम साहब अपने विशिष्ट गुणों के कारण सारे भारत में प्रसिद्ध थे। वे छोटे बड़े, अमीर ग़रीब आदि में एक समान लोकप्रिय थे। वे इलाज करते समय किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करते थे। उनकी दृष्टि में राजा या नवाब, ग़रीब और मजदूर में कोई अन्तर नहीं था। वे जिस प्रेम से राजा का इलाज करते थे, उसी प्रेम से ग़रीब और मजदूर का इलाज करते थे।<ref name="SSK"/>
हकीम साहब प्रतिदिन प्रात:काल होते ही अपने पुश्तैनी मकान के दीवानखाने में तख्त पर बैठ कर रोगियों को देखते थे। उनका हालचाल पूछते थे। वे रोगी से बहुत धीमे स्वर में बात करते थे। वे लगभग दो घंटे में दो सौ रोगियों को देख लेते थे। यूँ तो हकीम साहब प्रतिदिन प्रात:काल नियमित रूप से रोगियों को देखते थे, पर उनके घर का दवाखाना रोगियों के लिए हमेशा खुला रहता था। कोई भी रोगी किसी भी समय जाकर उन्हें अपनी बीमारी दिखा सकता था। कभी कभी तो हकीम साहब खाँ छोड़ कर रोगी को देखते थे। उनके लिए रोगी की सेवा से बढ़ कर दुनिया में और कोई दूसरा काम नहीं था। हकीम साहब अपने विशिष्ट गुणों के कारण सारे भारत में प्रसिद्ध थे। वे छोटे बड़े, अमीर ग़रीब आदि में एक समान लोकप्रिय थे। वे इलाज करते समय किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करते थे। उनकी दृष्टि में राजा या नवाब, ग़रीब और मज़दूर में कोई अन्तर नहीं था। वे जिस प्रेम से राजा का इलाज करते थे, उसी प्रेम से ग़रीब और मज़दूर का इलाज करते थे।<ref name="SSK"/>
====ग़रीबों के प्रति गहरी सहानुभूति====
====ग़रीबों के प्रति गहरी सहानुभूति====
हकीम साहब ग़रीबों के प्रति बहुत सहानुभूति रखते थे। निम्नलिखित घटना से इस बात की पुष्टि होती है कि ग़रीबों के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे। एक बार हकीम साहब एक ग़रीब लड़के का इलाज करने जा रहे थे, तभी [[ग्वालियर]] के राजा के आदमी ने दस हज़ार रुपये नकद हकीम साहब को भेंट करते हुए कहा, 'ग्वालियर की महारानी की तबीयत खराब है। राजा साहब ने आपको याद किया है।'
हकीम साहब ग़रीबों के प्रति बहुत सहानुभूति रखते थे। निम्नलिखित घटना से इस बात की पुष्टि होती है कि ग़रीबों के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे। एक बार हकीम साहब एक ग़रीब लड़के का इलाज करने जा रहे थे, तभी [[ग्वालियर]] के राजा के आदमी ने दस हज़ार रुपये नकद हकीम साहब को भेंट करते हुए कहा, 'ग्वालियर की महारानी की तबीयत खराब है। राजा साहब ने आपको याद किया है।'
हकीम साहब ने रुपये लौटाते हुए उस व्यक्ति से कहा, 'राजा साहब से मेरा सलाम कहना। मैं चलता जरूर, पर विवश हूँ। एक ग़रीब लड़के का इलाज मेरे हाथों में है। यदि मैं चला गया, तो उसका इलाज कैसे होगा। राजा साहब के पास रुपये हैं। उन्हें तो बड़े बड़े डॉक्टर मिल सकते हैं, किंतु उस ग़रीब का क्या होगा, जो मेरे ही ऊपर आश्रित है। हकीम साहब ने ग्वालियर के राजा के आदमी को दस हज़ार रुपये लौटा दिए, परन्तु वे ग़रीब लड़के का इलाज छोड़ कर ग्वालियर नहीं गए। इस घटना से पता चलता है कि हकीम साहब के दिल में ग़रीबों के लिए कितना प्यार था। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में पैसों के स्थान पर इन्सानियत तथा मानवता को कितना महत्त्व दिया। उन्होंने कहा था, 'खुदा इन्सान के ही शरीर के भीतर रहता है। इसलिए इन्सान की खिदमत को महत्त्व देना चाहिए।' <ref name="SSK"/>
हकीम साहब ने रुपये लौटाते हुए उस व्यक्ति से कहा, 'राजा साहब से मेरा सलाम कहना। मैं चलता ज़रूर, पर विवश हूँ। एक ग़रीब लड़के का इलाज मेरे हाथों में है। यदि मैं चला गया, तो उसका इलाज कैसे होगा। राजा साहब के पास रुपये हैं। उन्हें तो बड़े बड़े डॉक्टर मिल सकते हैं, किंतु उस ग़रीब का क्या होगा, जो मेरे ही ऊपर आश्रित है। हकीम साहब ने ग्वालियर के राजा के आदमी को दस हज़ार रुपये लौटा दिए, परन्तु वे ग़रीब लड़के का इलाज छोड़ कर ग्वालियर नहीं गए। इस घटना से पता चलता है कि हकीम साहब के दिल में ग़रीबों के लिए कितना प्यार था। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में पैसों के स्थान पर इन्सानियत तथा मानवता को कितना महत्त्व दिया। उन्होंने कहा था, 'खुदा इन्सान के ही शरीर के भीतर रहता है। इसलिए इन्सान की खिदमत को महत्त्व देना चाहिए।' <ref name="SSK"/>


==सम्मान और पुरस्कार==
==सम्मान और पुरस्कार==
Line 79: Line 79:
*[http://ajmalherbal.com/ दवाखाना हाकिम अजमल ख़ाँ]
*[http://ajmalherbal.com/ दवाखाना हाकिम अजमल ख़ाँ]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{चिकित्सक}}
{{भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अध्यक्ष}}{{चिकित्सक}}
[[Category:भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस]]
[[Category:भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस]]
[[Category:भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस अध्यक्ष]]
[[Category:भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस अध्यक्ष]]
Line 86: Line 86:
[[Category:चिकित्सक]]
[[Category:चिकित्सक]]
[[Category:चिकित्सा विज्ञान]]
[[Category:चिकित्सा विज्ञान]]
[[Category:हिन्दी विश्वकोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Latest revision as of 10:50, 2 January 2018

हकीम अजमल ख़ाँ
पूरा नाम मसीह-उल-मुल्क हकीम अजमल ख़ाँ
जन्म सन 1863
जन्म भूमि दिल्ली
मृत्यु 29 दिसंबर, 1927
नागरिकता भारतीय
पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
पद अध्यक्ष (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस)
विशेष योगदान हकीम अजमल ख़ाँ ने 1920 में ‘जामिया मिलिया’ की स्थापना में विशेष योगदान दिया।
अन्य जानकारी अजमल ख़ाँ के पूर्वज, जो प्रसिद्ध चिकित्सक थे, भारत में मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के शासनकाल में भारत आए थे। हकीम अजमल ख़ाँ के परिवार के सभी सदस्य यूनानी हकीम थे। उनका परिवार मुग़ल शासकों के समय से चिकित्सा की इस प्राचीन शैली का अभ्यास करता आ रहा था।

हकीम अजमल ख़ाँ (अंग्रेज़ी: Hakim Ajmal Khan, जन्म- 1863 दिल्ली, मृत्यु- 29 दिसम्बर, 1927) राष्ट्रीय विचारधारा के समर्थक और यूनानी चिकित्सा पद्धति के प्रसिद्ध चिकित्सक थे। हकीम अजमल ख़ाँ अपने समय के सबसे कुशाग्र और बहुमुखी व्यक्तित्व के रूप में प्रसिद्ध हुए। भारत की आज़ादी, राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के क्षेत्रों में उनका योगदान अतुलनीय है। वे एक सशक्त राजनीतिज्ञ और उच्चतम क्षमता के शिक्षाविद थे।

जीवन परिचय

हकीम अजमल ख़ाँ का जन्म 1863 ई. में दिल्ली के उस परिवार में हुआ, जिसके पुरखे मुग़ल सम्राटों के पारिवारिक चिकित्सक रहते आए थे। अजमल ख़ाँ हकीमी अपनी शिक्षा प्राप्त करने के बाद 10 वर्षों तक रामपुर रियासत के हकीम रहे। 1902 ई. में वे ईराक चले गए और वापस आने पर दिल्ली में ‘मदरसे तिब्बिया’ की नींव डाली, जो अब ‘तिब्बिया कॉलेज’ के नाम से प्रसिद्ध है। अजमल ख़ाँ के पूर्वज, जो प्रसिद्ध चिकित्सक थे, भारत में मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के शासनकाल में भारत आए थे। हकीम अजमल ख़ाँ के परिवार के सभी सदस्य यूनानी हकीम थे। उनका परिवार मुग़ल शासकों के समय से चिकित्सा की इस प्राचीन शैली का अभ्यास करता आ रहा था। वे उस ज़माने में दिल्ली के रईस के रूप में जाने जाते थे। उनके दादा हकीम शरीफ ख़ान मुग़ल शासक शाह आलम के चिकित्सक थे और उन्होंने शरीफ मंज़िल का निर्माण करवाया था, जो एक अस्पताल और महाविद्यालय था जहाँ यूनानी चिकित्सा की पढ़ाई की जाती थी।[1]

बचपन और शिक्षा

उन्होंने अपने परिवार के बुजुर्गों, जिनमें से सभी प्रसिद्ध चिकित्सक थे, की देखरेख में चिकित्सा की पढ़ाई शुरु करने से पहले, अपने बचपन में क़ुरान को अपने हृदय में उतारा और पारंपरिक इस्लामिक ज्ञान की शिक्षा भी प्राप्त की जिसमें अरबी और फ़ारसी शामिल थी। उनके दादा हकीम शरीफ ख़ान तिब्ब-इ-यूनानी या यूनानी चिकित्सा के अभ्यास के प्रचार पर जोर देते थे और इस उद्देश्य के लिए उन्होंने शरीफ मंज़िल नामक अस्पताल रूपी कॉलेज की स्थापना की, जो पूरे उपमहाद्वीप में सबसे लोकोपकारी यूनानी अस्पताल के रूप में प्रसिद्ध था जहां ग़रीब मरीजों से कोई भी शुल्क नहीं लिया जाता था।[1]

मसीहा-ए-हिंद

योग्य होने पर हकीम अजमल ख़ाँ को 1892 में रामपुर के नवाब का प्रमुख चिकित्सक नियुक्त किया गया। कोई भी प्रशस्ति हकीम साहेब की लिए बहुत बड़ी नहीं है, उन्हें "मसीहा-ए-हिंद" और "बेताज बादशाह" कहा जाता था। उनके पिता की तरह उनके इलाज में भी चमत्कारिक असर था, और ऐसा माना जाता था कि उनके पास कोई जादुई चिकित्सकीय ख़ज़ाना था, जिसका राज़ केवल वे ही जानते थे। चिकित्सा में उनकी बुद्धि इतनी तेज़ थी कि यह कहा जाता था कि वे केवल इंसान का चेहरा देखकर उसकी किसी भी बीमारी का पता लगा लेते थे। हकीम अजमल ख़ाँ मरीज को एक बार देखने के 1000 रुपये लेते थे। शहर से बाहर जाने पर यह उनका दैनिक शुल्क था, लेकिन यदि मरीज उनके पास दिल्ली आये तो उसका इलाज मुफ़्त किया जाता था, फिर चाहे वह महाराजा ही क्यों न हों।

यूनानी चिकित्सा

हकीम अजमल ने यूनानी चिकित्सा की देशी प्रणाली के विकास और विस्तार में काफ़ी दिलचस्पी ली। हकीम अजमल ख़ाँ ने शोध और अभ्यास का विस्तार करने के लिए तीन महत्त्वपूर्ण संस्थाओं का निर्माण करवाया, दिल्ली में सेंट्रल कॉलेज, हिन्दुस्तानी दवाखाना तथा आयुर्वेदिक और यूनानी तिब्बिया कॉलेज; और इस प्रकार भारत में चिकित्सा की यूनानी प्रणाली को विलुप्त होने से बचाने में मदद की। यूनानी चिकित्सा के क्षेत्र में उनके अथक प्रयास ने ब्रिटिश शासन में समाप्ति की कगार पर पहुंच चुकी भारतीय यूनानी चिकित्सा प्रणाली में नई ऊर्जा और जीवन का संचार किया। अजमल ख़ाँ की हकीम के रूप में देशव्यापी ख्याति थी।

राजनीति में प्रवेश

1918 में हकीम अजमल ख़ाँ कांग्रेस में सम्मिलित हो गए। हकीम साहब के राजनीति में प्रवेश करते ही उनका घर (उनका पुश्तैनी घर आज भी बल्लीमारान में शरीफ मंज़िल के नाम से प्रसिद्ध है) राजनीतिज्ञों का केंद्र बन गया। उन दिनों शरीफ मंज़िल में नेताओं के आने जाने से बहुत चहल पहल बनी रहती थी। हकीम साहब एक बड़े तख्त पर बैठ कर नेताओं से विचार विमर्श करते रहते थे। गुप्त बात के लिए आँगन में लगे हुए छोटे कमरे में बैठते थे। उस छोटे से कमरे में ना जाने कितनी समस्याओं का समाधान किया गया था, जिसमें आजकल सन्नाटा छाया रहता है। हकीम साहब की योजना के अनुसार 30 मार्च, 1919 ई. को दिल्ली में सबसे बड़ी हड़ताल हुई थी। इस हड़ताल को सफल बनाने के लिए उन्होंने बहुत दौड़-धूप की थी। उनके इस कार्य की बड़े-बड़े नेताओं ने दिल खोलकर प्रशंसा की थी। 1919 ई. के अन्तर में उनके प्रयत्नों से ही शहीदों का शानदार स्मारक बना, जिसकी देश के बड़े-बड़े नेताओं ने प्रशंसा की। 1921 में आपने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन की और ख़िलाफ़त कांग्रेस की अध्यक्षता की। ‘ऑल इण्डिया गो रक्षा कांफ़्रेंस’, जिसके अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे, स्वागत समिति की अध्यक्षता का दायित्व भी हकीम साहब ने ही उठाया था। उस सम्मेलन में मुसलमानों से अपील की गई थी कि, वे इस मामले में हिन्दुओं की भावनाओं का सम्मान करें। हकीम साहब ने 1918 ई. से लेकर 1927 तक स्वतंत्रता आन्दोलन की राजनीति में खुल कर भाग लिया था। 1927 ई. में यह महापुरुष परलोक सिधार गया था। 9 वर्षों के थोड़े से समय में उन्होंने ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य किए, जिसके कारण उन्हें युगों-युगों तक याद किया जाता रहेगा। [2]

गांधीजी से मुलाकात

हकीम साहब का गांधीजी से पहला सम्पर्क 1919 ई. में हुआ था। इस समय (1919) रोलेट बिल के विरुद्ध सत्याग्रह चल रहा था। सत्याग्रह के सम्बन्ध में ही गांधीजी दिल्ली आए हुए थे। हकीम साहब सत्याग्रह के सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए गांधीजी के पास पहुँचे और वे गांधीजी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उसके बाद हकीम साहब का सम्पर्क गांधीजी से निरन्तर प्रगाढ़ होता चला गया। गांधीजी जब भी किसी साम्प्रदायिक समस्या को सुलझाना चाहते थे, तब वे इस सम्बन्ध में हकीम साहब से परामर्श करते थे। 1920 ई. में लॉर्ड हार्डी ने हकीम साहब को तिब्बिया कॉलेज की सहायता के लिए छ: लाख रुपये देने का वचन दिया था, परंतु 1921 ई. में जब हकीम साहब ने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया, तो लॉर्ड हार्डी ने सहायता देने से मना कर दिया। हकीम साहब ने इसकी कोई परवाह नहीं की। वे जीवन के अंतिम समय तक देश की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों से संघर्ष करते रहे। उनका तिब्बिया कॉलेज आज भी उन्हीं की भांति सर ऊँचा किए हुए खड़ा है, अपनी सेवाओं से उस महान् देशभक्त की स्मृति को ताजा कर देता है।[2]

देशभक्ति भावना

हकीम साहब में देशभक्ति के भाव कूट-कूट कर भरे हुए थे। वे मजहब से भी देश को बड़ा मानते थे। उन्होंने देश सेवा के लिए आराम, सुख-चैन तथा सम्पत्ति आदि की कोई परवाह नहीं की। वे देश के लिए धन को ठुकराते रहे। वे एक साहसी और वीर सेनानी थे। उन्हें जो कुछ कहना होता, कह डालते एवं कर डालते थे। हकीम साहब के जीवन के यादगार का सबसे बड़ा स्मारक उनका दवाखाना और तिब्बिया महाविद्यालय है। एक बार राजा ने अपने महल में अपनी बीमार रानी को दिख़ाँे के लिए हकीम साहब को बुलाया। हकीम साहब जब रानी के कमरे में पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि रानी विदेशी वस्त्र पहने हुए थी एवं उनका पूरा कमरा विदेशी वस्तुओं और साज सामान से भरा हुआ था। हकीम साहब ने रानी की नब्ज़ को देखते हुए कहा, 'समय बदल रहा है। अब तो आप लोगों को विदेशी कपड़े नहीं पहनने चाहिए। केवल खादी को ही काम में लाना चाहिए।' रानी ने इसका उत्तर देते हुए हकीम साहब से कहा कि, 'हकीम साहब खादी पहनने से कोई हर्ज नहीं है, किन्तु वह इतनी मोटी और खुरदरी होती है कि शरीर में गड़ती है।' यह सुनते ही हकीम साहब ने रानी की नब्ज़ को छोड़ दिया और खड़े होकर कहने लगे, 'फिर तो मैं आपकी नब्ज़ नहीं देख पाऊँगा। जब खादी आपके शरीर में गड़ती है, तो मेरी उँगली भी आपके हाथ में चुभती होंगी, क्योंकि मैं भी हिन्दुस्तानी हूँ।' हकीम साहब की बात सुनकर महाराजा बड़े शर्मिंदा हुए। उन्होंने हकीम साहब से माफी माँगते हुए कहा कि अब वे अपने घर में एक भी विदेशी चीज़ नहीं रखेंगे।[2]

जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना

जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्थापकों में से एक, अजमल ख़ाँ को 22 नवम्बर 1920 में इसका प्रथम कुलाधिपति चुना गया। जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना और संरक्षण में हकीम अजमल ख़ाँ का बहुत बड़ा हाथ था। संस्थान की आमदनी का स्रोत हकीम साहब की आय थी। वे ख़ाँदानी रईस थे और एक तरह से वे जामिया का सम्पूर्ण खर्च चला रहे थे। महात्मा गाँधी का भी हकीम अजमल ख़ाँ से गहरा संबंध था। दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। दुर्भाग्यवश जब 29 दिसम्बर, 1927 को इनकी मृत्यु हो गई तो जामिया मिलिया की आय का स्रोत सूख गया। किंतु डॉ. ज़ाकिर हुसैन इससे बहुत निराश नहीं हुए क्योंकि हकीम अजमल ख़ाँ ने उनके आत्मबल को पर्याप्त दृढ़ कर दिया थ। इनका स्पष्ट मानना था कि अल्लाह की रहमत में सदा यकीन करना चाहिये औरउससे मायूस रहना अधर्म है।[3]

व्यक्तित्त्व

[[चित्र:Ajamal-khan-haveli.jpg|thumb|हकीम अजमल ख़ाँ की हवेली, दिल्ली]] हकीम साहब मृदुल स्वभाव के थे। वे कभी भी किसी को कड़वी बात नहीं कहते थे। यहाँ तक कि जो गलती करता था, उसे भी बड़ी बात में नहीं डाँटते थे। जब वे किसी पर नाराज होते थे तो मुस्कारते हुए सिर्फ़ इतना ही कहते थे, 'तुम बड़े बेवकूफ हो।' हकीम साहब अपने नौकरों को भी आप कह कर बुलाते थे। एक दिन जब उनके किसी मित्र ने इस बारे में उनके पूछा, 'हकीम साहब आप नौकरों को आप क्यों कहा करते हैं।' हकीम साहब ने इसका उत्तर देते हुए कहा, 'नौकर भी हमारे तरह ही इन्सान हैं। इन्सान को इन्सान की इज्जत करनी चाहिए।' हकीम साहब प्रतिदिन प्रात:काल होते ही अपने पुश्तैनी मकान के दीवानखाने में तख्त पर बैठ कर रोगियों को देखते थे। उनका हालचाल पूछते थे। वे रोगी से बहुत धीमे स्वर में बात करते थे। वे लगभग दो घंटे में दो सौ रोगियों को देख लेते थे। यूँ तो हकीम साहब प्रतिदिन प्रात:काल नियमित रूप से रोगियों को देखते थे, पर उनके घर का दवाखाना रोगियों के लिए हमेशा खुला रहता था। कोई भी रोगी किसी भी समय जाकर उन्हें अपनी बीमारी दिखा सकता था। कभी कभी तो हकीम साहब खाँ छोड़ कर रोगी को देखते थे। उनके लिए रोगी की सेवा से बढ़ कर दुनिया में और कोई दूसरा काम नहीं था। हकीम साहब अपने विशिष्ट गुणों के कारण सारे भारत में प्रसिद्ध थे। वे छोटे बड़े, अमीर ग़रीब आदि में एक समान लोकप्रिय थे। वे इलाज करते समय किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करते थे। उनकी दृष्टि में राजा या नवाब, ग़रीब और मज़दूर में कोई अन्तर नहीं था। वे जिस प्रेम से राजा का इलाज करते थे, उसी प्रेम से ग़रीब और मज़दूर का इलाज करते थे।[2]

ग़रीबों के प्रति गहरी सहानुभूति

हकीम साहब ग़रीबों के प्रति बहुत सहानुभूति रखते थे। निम्नलिखित घटना से इस बात की पुष्टि होती है कि ग़रीबों के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे। एक बार हकीम साहब एक ग़रीब लड़के का इलाज करने जा रहे थे, तभी ग्वालियर के राजा के आदमी ने दस हज़ार रुपये नकद हकीम साहब को भेंट करते हुए कहा, 'ग्वालियर की महारानी की तबीयत खराब है। राजा साहब ने आपको याद किया है।' हकीम साहब ने रुपये लौटाते हुए उस व्यक्ति से कहा, 'राजा साहब से मेरा सलाम कहना। मैं चलता ज़रूर, पर विवश हूँ। एक ग़रीब लड़के का इलाज मेरे हाथों में है। यदि मैं चला गया, तो उसका इलाज कैसे होगा। राजा साहब के पास रुपये हैं। उन्हें तो बड़े बड़े डॉक्टर मिल सकते हैं, किंतु उस ग़रीब का क्या होगा, जो मेरे ही ऊपर आश्रित है। हकीम साहब ने ग्वालियर के राजा के आदमी को दस हज़ार रुपये लौटा दिए, परन्तु वे ग़रीब लड़के का इलाज छोड़ कर ग्वालियर नहीं गए। इस घटना से पता चलता है कि हकीम साहब के दिल में ग़रीबों के लिए कितना प्यार था। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में पैसों के स्थान पर इन्सानियत तथा मानवता को कितना महत्त्व दिया। उन्होंने कहा था, 'खुदा इन्सान के ही शरीर के भीतर रहता है। इसलिए इन्सान की खिदमत को महत्त्व देना चाहिए।' [2]

सम्मान और पुरस्कार

हकीम अजमल ख़ाँ ने अपनी सरकारी उपाधि छोड़ दी और उनके भारतीय प्रशंसकों ने उन्हें मसीह-उल-मुल्क (राष्ट्र को आरोग्य प्रदान करने वाला) की उपाधि दी। उनके बाद डॉ. मुख्त्यार अहमद अंसारी जेएमआई के कुलाधिपति बने। एक अतालता-रोधी एजेंट अज्मलिन, और एक कारक संकर अज्मलन का नामकरण उनके नाम पर ही किया गया।

निधन

हकीम अजमल ख़ाँ का पूरा जीवन परोपकार और बलिदान का प्रतिरूप है। हकीम अजमल ख़ाँ की मृत्यु 29 दिसंबर 1927 को दिल की समस्या के कारण हो गयी थी। हकीम अजमल खाँ के त्याग, देशभक्ति और बलिदान के कारण उनका नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सदा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। उन्होंने केवल नौ वर्ष तक राजनीति में इतनी सक्रिय भूमिका अदा की कि वे दिल्ली के बेताज बादशाह बन गए। वे दिल्ली की जनता के दिल में रहते थे और यहाँ की जनता उनके एक इशारे पर बड़े से बड़ा बलिदान करने के लिए तैयार रहती थी। यद्यपि वे आज हमारे बीच नहीं हैं, तथापि जनता आज भी उन्हें श्रद्धा के साथ याद करती है। हिन्दी के कवि ने उनकी पवित्र स्मृति में यहाँ तक लिखा है-[2]

प्राण देश के लिए देना सिखा गए,
भँवर में पड़ी नाव को खेना सिखा गए।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 967 |

  1. 1.0 1.1 Hakim Ajmal Khan [1863-1927) Medicine, Freedom Fighter] (अंग्रेज़ी) Indian Muslims। अभिगमन तिथि: 28 दिसम्बर, 2012।
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 स्वतंत्रता सेनानी कोश (गाँधीयुगीन) |लेखक: डॉ. एस.एल. नागोरी और श्रीमती कान्ता नागोरी |प्रकाशक: गीतंजलि प्रकाशन, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 463 |ISBN: 978-81-88418-38-1
  3. भारत के राष्ट्रपति (हिंदी) गूगल बुक्स। अभिगमन तिथि: 28 दिसम्बर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख