अल्ताफ़ हुसैन हाली: Difference between revisions

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'''अल्ताफ़ हुसैन हाली''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Altaf Hussain Hali'', जन्म- 1837, [[पानीपत]]; मृत्यु- [[30 सितम्बर]], [[1914]]) का नाम [[उर्दू साहित्य]] में बड़ी ही सम्मान के साथ लिया जाता है। वे सर सैयद अहमद ख़ान साहब के प्रिय मित्र व अनुयायी थे। हाली जी ने उर्दू में प्रचलित परम्परा से हटकर [[ग़ज़ल]], नज़्म, रुबाईया व मर्सिया आदि लिखे हैं। उन्होंने [[मिर्ज़ा ग़ालिब]] की जीवनी सहित कई किताबें भी लिखी हैं।
{{अल्ताफ़ हुसैन हाली संक्षिप्त परिचय}}
{{अल्ताफ़ हुसैन हाली विषय सूची}}
'''अल्ताफ़ हुसैन हाली''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Altaf Hussain Hali'', जन्म- [[11 नवम्बर]], 1837, [[पानीपत]]; मृत्यु- [[30 सितम्बर]], [[1914]]) का नाम [[उर्दू साहित्य]] में बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है। वे [[सर सैयद अहमद ख़ान|सर सैयद अहमद ख़ान साहब]] के प्रिय मित्र व अनुयायी थे। हाली जी ने उर्दू में प्रचलित परम्परा से हटकर [[ग़ज़ल]], नज़्म, रुबाईया व मर्सिया आदि लिखे हैं। उन्होंने [[मिर्ज़ा ग़ालिब]] की जीवनी सहित कई किताबें भी लिखी हैं।
==परिचय==
==परिचय==
{{main|अल्ताफ़ हुसैन हाली का परिचय}}
अल्ताफ़ हुसैन हाली का जन्म [[11 नवम्बर]], 1837 ई. में [[पानीपत]] ([[हरियाणा]]) हुआ था। उनके [[पिता]] का नाम ईजद बख्श व [[माता]] का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही उनकी माता का देहान्त हो गया। हाली जब नौ वर्ष के थे तो उनके पिता का देहान्त हो गया। इन हालात में हाली की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सका। [[परिवार]] में शिक्षा-प्राप्त लोग थे, इसलिए वे अरबी व फ़ारसी का ज्ञान हासिल कर सके। हाली के मन में अध्ययन के प्रति गहरा लगाव था। हाली के बड़े भाई इम्दाद हुसैन व उनकी दोनों बड़ी बहनों- इम्ता-उल-हुसेन व वजीह-उल-निसां ने हाली की इच्छा के विरूद्ध उनका विवाह इस्लाम-उल-निसां से कर दिया।
अल्ताफ़ हुसैन हाली का जन्म [[11 नवम्बर]], 1837 ई. में [[पानीपत]] ([[हरियाणा]]) हुआ था। उनके [[पिता]] का नाम ईजद बख्श व [[माता]] का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही उनकी माता का देहान्त हो गया। हाली जब नौ वर्ष के थे तो उनके पिता का देहान्त हो गया। इन हालात में हाली की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सका। [[परिवार]] में शिक्षा-प्राप्त लोग थे, इसलिए वे अरबी व फ़ारसी का ज्ञान हासिल कर सके। हाली के मन में अध्ययन के प्रति गहरा लगाव था। हाली के बड़े भाई इम्दाद हुसैन व उनकी दोनों बड़ी बहनों- इम्ता-उल-हुसेन व वजीह-उल-निसां ने हाली की इच्छा के विरूद्ध उनका विवाह इस्लाम-उल-निसां से कर दिया।
====शिक्षा====
अपनी पारिवारिक स्थितियों को वे अपने अध्ययन के शौक को जारी रखने के अनुकूल नहीं पा रहे थे, तो 17 वर्ष की उम्र में घर से [[दिल्ली]] के लिए निकल पड़े, यद्यपि यहां भी वे अपने अध्ययन को व्यवस्थित ढंग से नहीं चला सके। इसके बारे में ‘हाली की कहानी हाली की जुबानी’ में बड़े पश्चाताप से लिखा कि ‘डेढ़ बरस दिल्ली में रहते हुए मैने कालिज को कभी आंख से देखा भी नहीं’। 1856 में हाली दिल्ली से वापस पानीपत लौट आए। 1856 में हाली ने [[हिसार]] जिलाधीश के कार्यालय में नौकरी कर ली। [[1857 का स्वतंत्रता संग्राम|1857 के स्वतंत्रता-संग्राम]] के दौरान अन्य जगहों की तरह हिसार में भी अंग्रेज़ी-शासन व्यवस्था समाप्त हो गई थी, इस कारण उन्हें घर आना पड़ा।
सन [[1863]] में नवाब मुहमद मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ्ता के बेटे को शिक्षा देने के लिए हाली जहांगीराबाद चले गए। [[1869]] में नवाब शेफ्ता की मृत्यु हो गई। इसके बाद हाली को रोजगार के सिलसिले में [[लाहौर]] जाना पड़ा। वहां पंजाब गवर्नमेंट बुक डिपो पर किताबों की [[भाषा]] ठीक करने की नौकरी की। चार साल नौकरी करने के बाद ऐंग्लो-अरेबिक कॉलेज, दिल्ली में फ़ारसी व अरबी भाषा के मुख्य अध्यापक के तौर पर कार्य किया। [[1885]] में हाली ने इस पद से त्याग पत्र दे दिया।
====संतान====
अल्ताफ़ हुसैन हाली के दो बेटे और एक बेटी थी। हाली के लिए बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं था। उस समय इस तरह के विचार रखना व उन पर अमल करना क्रांतिकारी काम से कम नहीं था। इस दौर में मां-बाप अपनी औलाद का विवाह करके अपने दायित्व की पूर्ति मान लेते थे। खासकर बेटियों के लिए तो मां-बाप का यह ‘पवित्र कर्तव्य’ ही माना जाता था कि जवान होने से पहले ही उस ‘अमानत’ को अपने ‘रखवाले’ को सौंपकर निजात पाए। जिस समाज में हाली का जन्म हुआ था, वहां बेटियों के लिए शिक्षा का इतना ही प्रावधान था कि वह धार्मिक ग्रंथ को पढ़कर जीवन के कोल्हू में सारी उम्र जुती रहे। हाली ने इस विचार को मानने से इंकार किया। वे बेटियों की शादी अपने घर से ज्यादा दूर करने के पक्ष में नहीं थे। दूर विवाह करने को वे उसकी हत्या ही कहते थे।
<poem>साथ बेटी के मगर अब पिदरो मादर भी,
ज़िन्दा दा गोर सदा रहते हैं और खस्ता जिगर,
अपना और बेटियों का जब के ना सोचें अन्जाम,
जाहलियत से कहीं है वह ज़ामाना बदतर।</poem>
==मुस्लिम समाज और हाली==
==मुस्लिम समाज और हाली==
अल्ताफ़ हुसैन हाली का जन्म [[मुस्लिम]] परिवार में हुआ। हाली ने तत्कालीन मुस्लिम-समाज की कमजोरियों और खूबियों को पहचाना। हाली ने मुस्लिम समाज को एकरूपता में नहीं, बल्कि उसके विभिन्न वर्गों व विभिन्न परतों को पहचाना। हाली की खासियत थी कि वे समाज को केवल सामान्यीकरण में नहीं, बल्कि उसकी विशिष्टता में पहचानते थे। इसलिए उनको मुस्लिम समाज में भी कई समाज दिखाई दिए। हाली के समय में मुस्लिम समाज एक अजीब किस्म की मनोवृत्ति से गुजर रहा था। [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के आने से पहले मुस्लिम-शासकों का शासन था, जो सत्ता से जुड़े हुए थे। वे मानते थे कि अंग्रेज़ों ने उनकी सत्ता छीन ली है। [[भारत]] पर अंग्रेज़ों का शासन एक सच्चाई बन चुका था, जिसे मुसलमान स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अपने को राजकाज से जोड़ते थे, इसलिए काम करने को हीन समझते थे। वे स्वर्णिम अतीत की कल्पना में जी रहे थे। अतीत को वे वापस नहीं ला सकते थे और वर्तमान से वे आंखें चुराते थे। हाली ने उनकी इस मनोवृत्ति को पहचाना। ‘देखें मुंह डाल के गर अपने गरीबान मैं वो, उम्र बरबाद करें फिर न इस अरमान में वो’ कहकर अतीत के ख्यालों की बजाए दरपेश सच्चाई को स्वीकार करने व किसी हुनर को सीखकर बदली परिस्थितियों सम्मान से जीने की नेक सलाह दी।
{{main|अल्ताफ़ हुसैन हाली और मुस्लिम समाज}}
<poem>पेशा सीखें कोई फ़न सीखें सिनाअत सीखें
अल्ताफ़ हुसैन हाली का जन्म [[मुस्लिम]] परिवार में हुआ। हाली ने तत्कालीन मुस्लिम-समाज की कमजोरियों और खूबियों को पहचाना। हाली ने मुस्लिम समाज को एकरूपता में नहीं, बल्कि उसके विभिन्न वर्गों व विभिन्न परतों को पहचाना। हाली की खासियत थी कि वे समाज को केवल सामान्यीकरण में नहीं, बल्कि उसकी विशिष्टता में पहचानते थे। इसलिए उनको मुस्लिम समाज में भी कई समाज दिखाई दिए। हाली के समय में मुस्लिम समाज एक अजीब किस्म की मनोवृत्ति से गुजर रहा था। [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के आने से पहले मुस्लिम-शासकों का शासन था, जो सत्ता से जुड़े हुए थे। वे मानते थे कि अंग्रेज़ों ने उनकी सत्ता छीन ली है। [[भारत]] पर अंग्रेज़ों का शासन एक सच्चाई बन चुका था, जिसे मुसलमान स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अपने को राजकाज से जोड़ते थे, इसलिए काम करने को हीन समझते थे।
कश्तकारी करें आईने फ़लाहात सीखें
घर से निकलें कहीं आदाबे सयाहत सीखें
अलग़रज मर्द बने ज़ुर्रतो हिम्मत सीखें
कहीं तसलीम करें जाके न आदाब करें
ख़द वसीला बनें और अपनी मदद आप करें</poem>
 
हाली समाज में हो रहे परिवर्तन को समझ रहे थे। परिवर्तन में बाधक शक्तियों को भी वे अपनी खुली आंखों से देख रहे थे। उन्होंने पुराने पड़ चुके रस्मो-रिवाजों को समाज की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा के रूप में चिह्नित किया, जिनका कोई तार्किक आधार नहीं था और न ही समाज में इनकी कोई सार्थकता थी। समाज इनको सिर्फ इसलिए ढोये जा रहा था कि उनको ये विरासत में मिली थी। परम्परा व विरासत के नाम पर समाज में अपनी जगह बनाए हुए, लेकिन गल-सड़ चुके रिवाजों के खिलाफ अल्ताफ़ हुसैन हाली ने अपनी कलम उठाई और इनमें छुपी बर्बरता और अमानवीयता को मानवीय संवेदना के साथ इस तरह उद्घाटन करने की कोशिश की कि इनको दूर करने के लिए समाज बेचैन हो उठे। विधवा-जीवन की त्रासदी को व्यक्त करती हाली की ‘मुनाजाते बेवा’ [[कविता]] जिस तरह लोकप्रिय हुई, उससे यही साबित होता है कि उस समय का समाज सामाजिक क्रांति के लिए तैयार था।
==हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब==
==हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब==
{{main|अल्ताफ़ हुसैन हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब}}
अपने [[दिल्ली]] निवास के दौरान अल्ताफ़ हुसैन हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी, वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर [[मिर्ज़ा ग़ालिब]] से मुलाकात व उनका साथ। हाली के मिर्ज़ा ग़ालिब से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब से रचना के गुर सीखे थे। हाली ने जब ग़ालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि ‘यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शेर नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे’। हाली पर ग़ालिब का प्रभाव है लेकिन उनकी [[कविता]] का तेवर बिल्कुल अलग किस्म का है। हाली का अपने समाज के लोगों से गहरा लगाव था, इस लगाव-जुड़ाव को उन्होंने अपने [[साहित्य]] में भी बरकरार रखा। इसीलिए ग़ालिब समेत तत्कालीन साहित्यकारों के मुकाबले हाली की रचनाएं विषय व [[भाषा]] की दृष्टि से जनता के अधिक करीब हैं।
अपने [[दिल्ली]] निवास के दौरान अल्ताफ़ हुसैन हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी, वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर [[मिर्ज़ा ग़ालिब]] से मुलाकात व उनका साथ। हाली के मिर्ज़ा ग़ालिब से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब से रचना के गुर सीखे थे। हाली ने जब ग़ालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि ‘यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शेर नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे’। हाली पर ग़ालिब का प्रभाव है लेकिन उनकी [[कविता]] का तेवर बिल्कुल अलग किस्म का है। हाली का अपने समाज के लोगों से गहरा लगाव था, इस लगाव-जुड़ाव को उन्होंने अपने [[साहित्य]] में भी बरकरार रखा। इसीलिए ग़ालिब समेत तत्कालीन साहित्यकारों के मुकाबले हाली की रचनाएं विषय व [[भाषा]] की दृष्टि से जनता के अधिक करीब हैं।
किसान व मेहनतकश गरीब जनता से गहरे जुड़ाव का ही परिणाम है कि उनकी रचनाओं में उनके जीवन के चित्र भरे पड़े हैं। हाली ने राजाओं-सामन्तों के मनोरंजन के लिए कविताओं की रचनाएं नहीं की थी, बल्कि दलितों, पीड़ितों, वंचितों और समाज के कमजोर वर्गों के जीवन की वास्तविकताओं व इच्छाओं-आकांक्षाओं को अपनी कविताओं में पेश किया। हाली और ग़ालिब के रिश्ते की तुलना प्रख्यात सूफ़ी [[निज़ामुद्दीन औलिया]] व उनके लाडले शागिर्द [[अमीर खुसरो]] के रिश्ते से की जा सकती है। जहां गुरू राजाओं और राजदरबारों से दूर भागता था, उनसे मिलना पसन्द नहीं करता था, वहीं शिष्य उम्र भर राज दरबारों की शोभा बढ़ाता रहा। औलिया और खुसरो के मुकाबले हाली और ग़ालिब के संबंध में फर्क सिर्फ इतना है कि यहां शिष्य जनता के दु:ख तकलीफ बयान करता था तो गुरू की हाजिर-जबाबी, काव्य-प्रतिभा आभिजात्यों के काम आती थी।
हाली और [[मिर्ज़ा ग़ालिब]] के जीवन जीने के ढंग में बड़ा गहरा अन्तर था। पाखण्ड की कड़ी आलोचना करते हुए हाली एक पक्के [[मुसलमान]] का जीवन जीते थे। मिर्ज़ा ग़ालिब ने शायद ही कभी [[नमाज़]] पढ़ी हो। यह भी सही है कि दोनों आम व्यवहार में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हामी थे। मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रति हाली के दिल में बहुत आदर-सम्मान था। उनकी मृत्यु पर हाली ने ‘[[मर्सिया]]’ भी लिखा, जिसमें हाली व ग़ालिब के संबंधों पर प्रकाश पड़ता है-
<poem>बुलबुले दिल मर गया हेहात
जिस की थी बात बात में एक बात
नुक्ता दाँ, नुक्ता सन्ज, नुक्ता शनास
पाक दिल, पाक ज़ात, पाक सिफ़ात
[[मर्सिया]] उसका लिखते हैं अहबाब
किस से इसलाह लें किधर जाएँ
पस्त मज़्मू है नोहए उस्ताद
किस तरह आसमाँ पे पहुँचाएं
इस से मिलने को याँ हम आते थे
जाके [[दिल्ली]] से आएगा अब कौन
मर गया क़द्रदाने फ़हमे सुख़न
शेर हम को सुनाएगा अब कौन
मर गया तशनए मज़ाके कलाम
हम को घर बुलाएगा अब कौन
था बिसाते सुख़न में शातिर एक
हम को चालें बताएगा अब कौन
शेर में नातमाम है ‘हाली’
[[ग़ज़ल]] उस की बनाएगा अब कौन
कम लना फ़ीहे मन बकी वो अवील
वएताबा मअल ज़माने तवील।</poem>
देश-कौम की चिंता ही अल्ताफ़ हुसैन हाली की रचनाओं की मूल चिंता है। कौम की एकता, भाईचारा, बराबरी, आजादी व जनतंत्र को स्थापित करने वाले विचार व मूल्य हाली की रचनाओं में मौजूद हैं। यही वे मूल्य हैं जो आधुनिक समाज के आधार हो सकते हैं और जिनको प्राप्त करके ही आम जनता सम्मानपूर्ण जीवन जी सकती है।
==योगदान==
==योगदान==
अल्ताफ़ हुसैन हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे, जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं, जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं, जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने [[साहित्य]] में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा। ‘मर्सिया हकीम महमूद खां मरहम ‘देहलवी’ में हाली ने उस दौर की चाटुकार-साहित्य परम्परा से अपने को अलगाते हुए लिखा कि-
{{main|अल्ताफ़ हुसैन हाली का योगदान}}
<poem>सुनते हैं ‘हाली’ सुखन में थी बहुत वुसअत कभी
अल्ताफ़ हुसैन हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे, जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं, जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं, जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने [[साहित्य]] में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा।
थीं सुख़नवर के लिए चारों तरफ राहें खुली
दास्तां कोई बयाँ करता था हुस्नो इश्क की
और तसव्वुफ का सुखन में रंग भरता था कोई
गाह ग़ज़लें लिख के दिल यारों के गर्माते थे लोग
गाहक़सीदे पढ़ के खिलअत और सिले पाते थे लोग
पर मिली हमको मजाले नग़मा इस महफ़िल में कम
रागिनी ने वक्त की लेने दिया हम को न दम
नालओ फ़रियाद का टूटा कहीं जा कर न सम
कोई याँ रंगीं तराना छेड़ने पाये न हम
सीना कोबी में रहे जब तक के दम में दम रहा
हम रहे और कौम के इक़बाल का मातम रहा</poem>
 
सन [[1874]] में अल्ताफ़ हुसैन हाली रोजगार के लिए [[लाहौर]] जाकर पंजाब बुक डिपो से जुड़ गए थे। हाली के जीवन में असल परिवर्तन यहीं से हुआ था। वे नए ढंग से सोचन लगे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हाली में इसके बाद ही [[उर्दू साहित्य]] में बदलाव की क्षमता का विकास हुआ। लाहौर में हाली की मुलाकात कर्नल हौल राइट से हुई। कर्नल हौल राइट एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनका हाली पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कर्नल हौल राइट का प्रभाव न केवल हाली पर बल्कि पूरे उर्दू साहित्य जगत पर पड़ा। अपने लाहौर निवास के दौरान कर्नल हौल राइट ने ऐसे मुशायरों की शुरूआत की जो किसी खास विषय पर आधारित होते थे। इस विषय से संबंधित कविताएं ही इनमें पढ़ी जाती थीं। इन मुशायरों का प्रभाव यह पड़ा कि उर्दू साहित्य [[ग़ज़ल]] विधा के दायरे से बाहर निकला और बहुत शानदार कविताओं की रचना [[उर्दू]] में होने लगी। उर्दू में अभी तक ग़ज़ल ही सर्वाधिक लोकप्रिय विधा थी और इसके प्रति यहां तक मोह था कि ग़ज़ल को ही वास्तविक साहित्य माना जाता था। ग़ज़लकारों को जितने सम्मान से देखा जाता था अन्य साहित्यिक विधाओं को उतना मान प्राप्त नहीं था।
 
[[1874]] में ‘बरखा रुत’ शीर्षक पर मुशायरा हुआ, जिसमें अल्ताफ़ हुसैन हाली ने अपनी कविता पढ़ी। यह कविता हाली के लिए और उर्दू साहित्य में सही मायने में इंकलाब की शुरुआत थी। साहित्य-जगत में व इससे इतर समाज में यह [[कविता]] इतनी पसन्द की गई कि इसकी प्रशंसा में सालों साल तक [[समाचार पत्र|अखबारों]] में लेख व टिप्पणियां छपती रहीं। अब हाली का नाम उर्दू में आदर से लिया जाने लगा था। जिस तरह इस कविता की प्रशंसा हुई, उससे यह साफ पता चलता है कि आम जनता में इस तरह की कविता के लिए जगह थी। हाली ने लोगों की इच्छाओं को अपनी कविता में स्थान दिया। हाली की आवाज़ असल में अवाम की आवाज़ थी। हाली ने अपनी कविताओं में ऐसे विषय उठाए, जिनकी समाज जरूरत महसूस करता था, परन्तु तत्कालीन साहित्यकार उनको या तो कविता के लायक नहीं समझते थे या फिर उनमें स्वयं उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हाली ने जिस तरह पीड़ित-मेहनतकश जनता की दृष्टि से विषयों को प्रस्तुत किया, वह उन्हें जनता का लाडला शायर बना देती है। उनकी कविताएं जनता की सलाहकार भी थीं, समाज सुधारक भी, दु:ख-दर्द की साथी भी। उनकी वाणी जनता को अपनी वाणी लगती थी।
==मानवीय दृष्टिकोण==
==मानवीय दृष्टिकोण==
अल्ताफ़ हुसैन हाली के लिए मानवता की सेवा ही ईश्वर की [[भक्ति]] व धर्म था। वे कर्मकाण्डों की अपेक्षा [[धर्म]] की शिक्षाओं पर जोर देते थे। वे मानते थे कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे यहां किसी धर्म की स्थापना के लिए नहीं बल्कि मानवता की सेवा के लिए आए थे। इसलिए उन महापुरुषों के प्रति सच्ची श्रद्धा मानवता की सेवा में है न कि उनकी पूजा में। यदि धर्म से मानवता के प्रति संवेदना गायब हो जाए तो उसके नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड ढोंग के अलावा कुछ नहीं हैं, कर्मकाण्डों में धर्म नहीं रहता। हाली धर्म के ठेकेदारों को इस बात के लिए लताड़ लगाते हैं कि धर्म उनके उपदेशों के वाग्जाल में नहीं, बल्कि व्यवहार में सच्चाई और ईमानदार की परीक्षा मांगता है। हाली ने धार्मिक उपदेश देने वाले लागों में आ रही गिरावट पर अपनी बेबाक राय दी। आमतौर पर सामान्य जनता धार्मिक लोगों के कुकृत्यों को देखती तो है, लेकिन अपनी धर्मभीरुता के कारण वे उनके सामने बोल नहीं पाती। अल्ताफ़ हुसैन हाली ने उनकी आलोचना करके उनकी सच्चाई सामने रखी और लोगों को उनकी आलोचना करने का हौंसला भी दिया।
{{main|अल्ताफ़ हुसैन हाली का मानवीय दृष्टिकोण}}
<poem>दीन कहते हैं जिसे वो ख़ैर ख्वाही का है नाम
अल्ताफ़ हुसैन हाली के लिए मानवता की सेवा ही ईश्वर की [[भक्ति]] व धर्म था। वे कर्मकाण्डों की अपेक्षा [[धर्म]] की शिक्षाओं पर जोर देते थे। वे मानते थे कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे यहां किसी धर्म की स्थापना के लिए नहीं बल्कि मानवता की सेवा के लिए आए थे। इसलिए उन महापुरुषों के प्रति सच्ची श्रद्धा मानवता की सेवा में है न कि उनकी पूजा में। यदि धर्म से मानवता के प्रति संवेदना गायब हो जाए तो उसके नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड ढोंग के अलावा कुछ नहीं हैं, कर्मकाण्डों में धर्म नहीं रहता। हाली धर्म के ठेकेदारों को इस बात के लिए लताड़ लगाते हैं कि धर्म उनके उपदेशों के वाग्जाल में नहीं, बल्कि व्यवहार में सच्चाई और ईमानदार की परीक्षा मांगता है। हाली ने धार्मिक उपदेश देने वाले लागों में आ रही गिरावट पर अपनी बेबाक राय दी।
है मुसलकानो! ये इरशादे रसूले इन्सो जाँ
हैं नमाजें और रोजे और हज बेकार सब
सोज़े उम्मत की न चिंगारी हो गर दिल मे निहाँ
दीन का दावा और उम्मत की ख़बक लेते नहीं
चाहते हो तुम सनद और इम्तहाँ देते नहीं
उन से कह दों, है मुसलमानी का जिनको इद्दआ
क़ौम की ख़िदमत में है पोशीदा भेद इस्लाम का
वो यही ख़िदमत, यही मनसब है जिसके वास्ते
आए हैं दुनिया से सब नौबत ब नौबत अम्बिया</poem>
 
अल्ताफ़ हुसैन हाली वास्तव में कमेरे लोगों के लिए समाज में सम्मान की जगह चाहते थे। वे देखते थे कि जो लोग दिन भर सोने या गप्पबाजी में ही अपना समय व्यतीत करते हैं, वे तो इस संसार की तमाम खुशियों को दौलत को भोग रहे हैं और जो लोग दिन रात लगकर काम करते हैं, उनकी जिन्दगी मुहाल है। उन पर ही [[मौसम]] की मार पड़ती है, उनको ही धर्म में कमतर दर्जा दिया है। उनके शोषण को देखकर हाली का मन रोता था और वे चाहते थे कि मेहनतकश जनता को उसके हक मिलें। वह चैन से अपना गुजर बसर करे। मेहनतकश की जीत की आशा असल में उनकी उनके प्रति लगाव व सहानुभूति को तो दर्शाता ही है। साथ ही नयी व्यवस्था की ओर भी संकेत मिलता है।
 
हाली ‘दूसरे की सेवा’ को या कि ‘खिदमत’ को बुरा समझते थे। वे अपने कारोबार को इस मामले में अच्छा समझते थे, क्योंकि इसमें आजादी है, लेकिन वे जमाने की चाल को समझ रहे थे कि लोग अपने धंधों को छोड़कर नौकरी करना अधिक पसन्द करते हैं। उनको स्वयं भी अपने गुजारे के लिए नौकरी करनी पड़ी थी; इसलिए वे आजादी की कीमत पहचानते थे। वे संसार में ऐसी व्यवस्था के हामी नहीं थे, जिसमें एक इंसान दूसरे का गुलाम हो और दूसरा उसका मालिक। वे समाज में बराबरी के कायल थे। रिश्तों में किसी भी प्रकार की ऊंच-नीच को वे नकारते थे। उनकी मुक्ति व आजादी की परिभाषा में केवल विदेशी शासन से छुटकारा पाना ही शामिल नहीं था। वे सिर्फ राजनीतिक आजादी के ही हिमायती नहीं थे, बल्कि वे समाज में आर्थिक आजादी भी चाहते थे। वे जानते थे कि जब तक व्यक्ति आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर नहीं होगा, तब तक वह सही मायने में आजाद नहीं हो सकता। ‘नंगे खिदमत’ कविता में हाली ने लिखा-
<poem>दर्रे मख़लूक़ को हम को रम मलजाओ मावा समझे
ता अते ख़ल्क़ को जायाज का तम्ग़ा समझे
पेश ओ हिरफ़ा को अजलाफ़ का शेवा समझे
नंगे ख़िदमत को शराफ़त का तक़ाज़ा समझे
ऐब लगने लगे नज्जारी ओ हद्दादी को
बेचते फिरने लगे जौहरे आज़ादी को
नौकरी ठहरी है ले दे के अब औक़ात अपनी
पेशा समझे थे जिसे, हो गई वो ज़ात अपनी
अब न दिन अपना रहा और न रही रात अपनी
जा पड़ी गै़र के हाथों में हर एक बात अपनी
हाथ अपने दिले आज़ाद से हम धो बैठे
एक दौलत भी हमारी सो उसे खो बैठे
इस से बढ़ कर नहीं जि़ल्लत की कोई शान यहाँ
के हो हम जिन्स की हम जिंस के कब्जे में इनाँ
एक गल्ले में क़ोई भेड़ हो और कोई शुबाँ
नस्ले आदम में कोई ढोर हो कोई इन्साँ
नातवाँ ठहरे कोई, कोई तनू मन्द बने
एक नौकर बने और खुदावंद बने</poem>
==मृत्यु==
==मृत्यु==
अल्ताफ़ हुसैन हाली का निधन [[30 सितम्बर]], [[1914]] को [[पानीपत]] में हुआ। हाली के सामने वे सब दिक्कतें पेश आई थीं, जो एक आम इंसान को झेलनी पड़ती हैं। वे समस्याओं को देखकर कभी घबराए नहीं। इन समस्याओं के प्रति जीवट का रुख ही अल्ताफ़ हुसैन हाली को वह ‘हाली’ बना सका, जिसे लोग आज भी याद करते हैं। हाली ने अपनी समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझा और उसको बृहतर सामाजिक सत्य के साथ मिलाकर देखा तो समाज की समस्या को दूर करने में ही उन्हें अपनी समस्या का निदान नजर आया।
अल्ताफ़ हुसैन हाली का निधन [[30 सितम्बर]], [[1914]] को [[पानीपत]] में हुआ। हाली के सामने वे सब दिक्कतें पेश आई थीं, जो एक आम इंसान को झेलनी पड़ती हैं। वे समस्याओं को देखकर कभी घबराए नहीं। इन समस्याओं के प्रति जीवट का रुख ही अल्ताफ़ हुसैन हाली को वह ‘हाली’ बना सका, जिसे लोग आज भी याद करते हैं। हाली ने अपनी समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझा और उसको बृहतर सामाजिक सत्य के साथ मिलाकर देखा तो समाज की समस्या को दूर करने में ही उन्हें अपनी समस्या का निदान नजर आया।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://gvigyan.blogspot.in/2014/07/blog-post_2564.html मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली, जीवन परिचय]
*[http://gvigyan.blogspot.in/2014/07/blog-post_2564.html मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली, जीवन परिचय]
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*[http://shrikrishnathehero.blogspot.in/2012/11/altaf-hussain-hali.html Altaf Hussain Hali]
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==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 07:01, 7 January 2020

अल्ताफ़ हुसैन हाली
पूरा नाम अल्ताफ़ हुसैन हाली
जन्म 11 नवम्बर, 1837
जन्म भूमि पानीपत
मृत्यु 30 सितम्बर, 1914
अभिभावक पिता- ईजद बख्श, माता- इमता-उल-रसूल
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र उर्दू साहित्य
मुख्य रचनाएँ 'मुसद्दस-ए-हाली', 'यादगार-ए-हाली', 'हयात-ए-हाली', 'हयात-ए-जावेद' आदि।
प्रसिद्धि उर्दू शायर, साहित्यकार
नागरिकता भारतीय
सक्रिय काल 18601914
अन्य जानकारी अल्ताफ़ हुसैन हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन जीने के ढंग में बड़ा अन्तर था। पाखण्ड की कड़ी आलोचना करते हुए हाली एक पक्के मुसलमान का जीवन जीते थे। मिर्ज़ा ग़ालिब ने शायद ही कभी नमाज़ पढ़ी हो। मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रति हाली के दिल में बहुत आदर-सम्मान था।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
बीना राय विषय सूची

अल्ताफ़ हुसैन हाली (अंग्रेज़ी: Altaf Hussain Hali, जन्म- 11 नवम्बर, 1837, पानीपत; मृत्यु- 30 सितम्बर, 1914) का नाम उर्दू साहित्य में बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है। वे सर सैयद अहमद ख़ान साहब के प्रिय मित्र व अनुयायी थे। हाली जी ने उर्दू में प्रचलित परम्परा से हटकर ग़ज़ल, नज़्म, रुबाईया व मर्सिया आदि लिखे हैं। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी सहित कई किताबें भी लिखी हैं।

परिचय

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अल्ताफ़ हुसैन हाली का जन्म 11 नवम्बर, 1837 ई. में पानीपत (हरियाणा) हुआ था। उनके पिता का नाम ईजद बख्श व माता का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही उनकी माता का देहान्त हो गया। हाली जब नौ वर्ष के थे तो उनके पिता का देहान्त हो गया। इन हालात में हाली की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सका। परिवार में शिक्षा-प्राप्त लोग थे, इसलिए वे अरबी व फ़ारसी का ज्ञान हासिल कर सके। हाली के मन में अध्ययन के प्रति गहरा लगाव था। हाली के बड़े भाई इम्दाद हुसैन व उनकी दोनों बड़ी बहनों- इम्ता-उल-हुसेन व वजीह-उल-निसां ने हाली की इच्छा के विरूद्ध उनका विवाह इस्लाम-उल-निसां से कर दिया।

मुस्लिम समाज और हाली

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अल्ताफ़ हुसैन हाली का जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ। हाली ने तत्कालीन मुस्लिम-समाज की कमजोरियों और खूबियों को पहचाना। हाली ने मुस्लिम समाज को एकरूपता में नहीं, बल्कि उसके विभिन्न वर्गों व विभिन्न परतों को पहचाना। हाली की खासियत थी कि वे समाज को केवल सामान्यीकरण में नहीं, बल्कि उसकी विशिष्टता में पहचानते थे। इसलिए उनको मुस्लिम समाज में भी कई समाज दिखाई दिए। हाली के समय में मुस्लिम समाज एक अजीब किस्म की मनोवृत्ति से गुजर रहा था। अंग्रेज़ों के आने से पहले मुस्लिम-शासकों का शासन था, जो सत्ता से जुड़े हुए थे। वे मानते थे कि अंग्रेज़ों ने उनकी सत्ता छीन ली है। भारत पर अंग्रेज़ों का शासन एक सच्चाई बन चुका था, जिसे मुसलमान स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अपने को राजकाज से जोड़ते थे, इसलिए काम करने को हीन समझते थे।

हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब

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अपने दिल्ली निवास के दौरान अल्ताफ़ हुसैन हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी, वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर मिर्ज़ा ग़ालिब से मुलाकात व उनका साथ। हाली के मिर्ज़ा ग़ालिब से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब से रचना के गुर सीखे थे। हाली ने जब ग़ालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि ‘यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शेर नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे’। हाली पर ग़ालिब का प्रभाव है लेकिन उनकी कविता का तेवर बिल्कुल अलग किस्म का है। हाली का अपने समाज के लोगों से गहरा लगाव था, इस लगाव-जुड़ाव को उन्होंने अपने साहित्य में भी बरकरार रखा। इसीलिए ग़ालिब समेत तत्कालीन साहित्यकारों के मुकाबले हाली की रचनाएं विषय व भाषा की दृष्टि से जनता के अधिक करीब हैं।

योगदान

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अल्ताफ़ हुसैन हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे, जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं, जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं, जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने साहित्य में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा।

मानवीय दृष्टिकोण

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अल्ताफ़ हुसैन हाली के लिए मानवता की सेवा ही ईश्वर की भक्ति व धर्म था। वे कर्मकाण्डों की अपेक्षा धर्म की शिक्षाओं पर जोर देते थे। वे मानते थे कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे यहां किसी धर्म की स्थापना के लिए नहीं बल्कि मानवता की सेवा के लिए आए थे। इसलिए उन महापुरुषों के प्रति सच्ची श्रद्धा मानवता की सेवा में है न कि उनकी पूजा में। यदि धर्म से मानवता के प्रति संवेदना गायब हो जाए तो उसके नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड ढोंग के अलावा कुछ नहीं हैं, कर्मकाण्डों में धर्म नहीं रहता। हाली धर्म के ठेकेदारों को इस बात के लिए लताड़ लगाते हैं कि धर्म उनके उपदेशों के वाग्जाल में नहीं, बल्कि व्यवहार में सच्चाई और ईमानदार की परीक्षा मांगता है। हाली ने धार्मिक उपदेश देने वाले लागों में आ रही गिरावट पर अपनी बेबाक राय दी।

मृत्यु

अल्ताफ़ हुसैन हाली का निधन 30 सितम्बर, 1914 को पानीपत में हुआ। हाली के सामने वे सब दिक्कतें पेश आई थीं, जो एक आम इंसान को झेलनी पड़ती हैं। वे समस्याओं को देखकर कभी घबराए नहीं। इन समस्याओं के प्रति जीवट का रुख ही अल्ताफ़ हुसैन हाली को वह ‘हाली’ बना सका, जिसे लोग आज भी याद करते हैं। हाली ने अपनी समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझा और उसको बृहतर सामाजिक सत्य के साथ मिलाकर देखा तो समाज की समस्या को दूर करने में ही उन्हें अपनी समस्या का निदान नजर आया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 984 |


बाहरी कड़ियाँ

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