विजय का रहस्य: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replace - "==टीका टिप्पणी==" to "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==")
Line 14: Line 14:


'''पुरन्धिं जनय<ref>सामवेद 861</ref> अर्थात बहुत से उत्तम कर्म करने में समर्थ बुद्धि को उत्पन्न करो।'''
'''पुरन्धिं जनय<ref>सामवेद 861</ref> अर्थात बहुत से उत्तम कर्म करने में समर्थ बुद्धि को उत्पन्न करो।'''
==टीका टिप्पणी==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==अन्य लिंक==
==अन्य लिंक==

Revision as of 15:11, 15 June 2010

वैदिक काल में प्रायः देवताओं और असुरों में संघर्ष होता रहता था। ये दोनों सभ्यताएं एक दूसरे को नष्ट करने पर तुली थीं। देवता दैवी सम्पदा के आगार थे, असुर पूर्णतया भौतिकवादी थे। उनमें अनेक प्रकार की कमियों थीं। वे अत्यन्त क्रूर एवं अत्याचारी थे, जबकि देवता चाहते थे कि सभी शान्तिपर्वक रहें। जो अच्छी बातें हो उन्हें सभी अपनाएं और मिल-जुलकर रहें। उनका उद्देश्य विभिन्नता में एकता था, विभिन्नता को नष्ट करके एकता लाना नहीं था। वेद कहता है-

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित दुखभागभवेत।।
सब सुखी रहे, किसी को भय न हो, सभी कल्याण को देखें तथा किसी को भी दुख प्राप्त न हो ।

लेकिन असुर गण केवल अपने ही विषय में सोचते थे, वे दूसरी विचारधाराओं को सहन नहीं करते थे। एक बार देवता और असुर ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और उनसे आत्मा के विषय में पूछा। ब्रह्मा जी ने कहा कि जल में झांककर देखो, तुम्हे जो दिखाई देगा, वही आत्मा है। दोनों ने जल में झांका और उन्हें अपनी सूरत जल में दिखाई दी। दोनों ही सतुष्ट होकर चले गए। असुरों ने अपनी बुद्धि को लगाने का बिल्कुल प्रयास नहीं किया और यह समझ लिया कि शरीर ही सब कुछ है। इसको ही सुखी रखना कर्तव्य है। बस वे संसार के भोगों को भोगने और इन्द्रियों को हर प्रकार से तृप्त करने में लग गए, लेकिन देवताओं ने जब लौट कर इस पर विचार किया तो यह समझा कि यह शरीर तो आत्मा हो ही नहीं सकता क्योंकि आत्मा तो अविनाशी बताई जाती है जबकि यह शरीर नित्य नष्ट होता हुआ दिखाई पड़ता है। वे पुनः ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और अपनी शंका उनके सामने रखी। ब्रह्मा जी ने फिर उनसे जल में देखने के लिए कहा। अबकी बार उन्होंने नेत्रों में जिसको अकिंत हुए पाया उसे आत्मा समझा लेकिन यह नेत्रो में झांकता हुआ पुरुष सोते समय कहां चला जाता है। अतः वे बार-बार ब्रह्मा जी के पास जाते रहे जब तक कि उन्होंने आत्मा का अनुभव न कर लिया। असुर अपने शरीर को लेकर ही रह गए और उससे आगे नहीं बढ़ सके। वे घोर स्वार्थी तथा असामाजिक बन गए। इसी विषय को और स्पष्ट करने के लिए निम्न कथा है-

देवताओं और असुरों में एक बार इस बात पर विवाद छिड़ गया कि उन दोनों में कौन बड़ा है। असुरों ने अपनी वीरता, कूटनीति तथा देवताओं पर अनेक बार होने वाली अपनी विजयों का वर्णन किया, जबकि देवताओं ने भी अपनी आध्यात्मिक शक्तियों तथा असुरो को युद्ध में परास्त करके भगा देने का वर्णन किया। जब किसी प्रकार भी निर्णय नहीं हो पाया तो यह निश्चय हुआ कि विष्णु जी के पास चला जाए और उनसे निर्णय कराया जाए क्योंकि वे ही देवताओं मे निष्पक्ष तथा सबके साथ समान व्यवहार करने वाले हैं। भगवान विष्णु ने शान्तिपूर्वक दोनों के तर्क सुने और बोले, 'देखो भाई, मैंने तुम दोनों के विचार अच्छी तरह सुने। मैं समझता हूं कि यदि मैंने स्वंय तुम्हारे तर्कों के आधार पर निर्णय दिया तो हो सकता है कि तुममें से किसी को अच्छा न लगे और वह समझा जाए कि मैं पक्षपात कर रहा हूं, क्योंकि मैं भी देवताओं की श्रेणी में आता हूं, इसलिए मैं आप दोनों के सामने एक परीक्षा रख रहा हूं, जो भी उसमें उत्तीर्ण होगा वही दूसरे से श्रेष्ठ माना जाएगा।' देवता और असुर दोनों को यह बात बहुत अच्छी लगी और उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी।

एक स्थान पर एक लड्डुओं की बहुत बड़ी परात रख दी गई। सर्वप्रथम असुरों को बुलाया गया। उनके हाथों में बड़े चमचे इस तरह बांधे गए कि उनकी डण्डी कोहनी से पीछे निकल गई जिससे कोहनी किसी ओर भी मुड़ नहीं सकती थी। चमचे का आगे का गोल सिरा हाथों से आगे निकला हुआ था। अब उनसे कहा गया कि इन लड्डुओं को एक घंटे के अन्दर-अन्दर खा डालना है। असुर तुंरत उन लड्डुओं पर झपटे और उन्हें अपने मुंह में डालने लगे, लेकिन हाथ तो सीधा खड़ा था। किसी का लड्डू आंख पर, किसी कर गाल पर और किसी का नाक पर गिरा। दो-चार असुर जिनके मुंह बहुत बड़े थे, कुछ लड्डू खा सके। शेष सब एक घण्टा बीत जाने के पश्चात भी यूं ही रखे थे। समय समाप्त हो गया, असुरों को हटा दिया गया और बारी थी देवताओं की। उनके हाथों में भी उसी प्रकार चमचे बांध दिए और उनसे भी एक घण्टे के अन्दर लड्डू खाने के लिए कहा गया। देवताओं ने कुछ क्षण विचार किया और फिर सावधानीपूर्वक लड्डू उठाकर बजाय स्वयं खाने का प्रयास करने के, एक-दूसरे को खिलाने प्रारम्भ कर दिए। एक घण्टे से पहले ही सारे लड्डू समाप्त हो गए।

देवताओं और असुरों के निर्णायक मण्डल ने जिस भगवान विष्णु ने प्रारम्भ में ही बना दिया था तथा जिसके साथ वे निरंतर बैठे रहे थे ताकि उन पर यह आरोप न आए कि उन्होंने देवताओं को युक्ति बता दी होगी, स्वयं यह निर्णय दिया कि देवता विजयी हुए हैं और असुर परास्त हो गए। तो यह अंतर है श्रेष्ठ और निकृष्ट में, ऊंच और नीच मे, परोपकार और पुण्य में। जो दूसरे का ध्यान रखते हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, वे ही बड़े हैं। स्वार्थी और केवल अपने और अपने परिवार तक सीमित लोग अत्यन्त छोटे होते हैं। वे समाज और राष्ट्र के लिए अत्यन्त घातक तथा शत्रुओं के समान ही हैं। अपने लाभ के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। इसलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो केवल अपने लिए पकाता है वह तो पाप को ही खाता है।

पुरन्धिं जनय[1] अर्थात बहुत से उत्तम कर्म करने में समर्थ बुद्धि को उत्पन्न करो।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सामवेद 861

अन्य लिंक