माण्डूक्योपनिषद: Difference between revisions

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*[[अथर्ववेद]] से सम्बन्धित इस उपनिषद में 'ॐकार' को 'अक्षरब्रह्म' परमात्मा स्वीकार किया गया है। ओंकार के विविध चरणों और मात्राओं का विवेचन करते हुए अव्यक्त परमात्मा के व्यक्त विराट जगत का उल्लेख किया गया है। परमात्मा के 'निराकार' और 'साकार' दोनों स्वरूपों की उपासना पर बल दिया गया है। इसमें बारह मन्त्र हैं।  
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Revision as of 12:58, 25 March 2010

माण्डूक्योपनिषद

  • अथर्ववेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में 'ॐकार' को 'अक्षरब्रह्म' परमात्मा स्वीकार किया गया है। ओंकार के विविध चरणों और मात्राओं का विवेचन करते हुए अव्यक्त परमात्मा के व्यक्त विराट जगत का उल्लेख किया गया है। परमात्मा के 'निराकार' और 'साकार' दोनों स्वरूपों की उपासना पर बल दिया गया है। इसमें बारह मन्त्र हैं।
  • 'ॐ' अक्षर अविनाशी 'ब्रह्म' का प्रतीक है। उसकी महिमा प्रकट ब्रह्माण्ड से होती है। भूत, भविष्य और वर्तमान, तीनों कालों वाला यह संसार 'ॐकार' ही है।
  • यह सम्पूर्ण जगत 'ब्रह्म-रूप' है।'आत्मा' भी ब्रह्मा का ही स्वरूप है। 'ब्रह्म' और 'आत्मा' चार चरण वाला स्थूल या प्रत्यक्ष, सूक्ष्म, कारण तथा अव्यक्त रूपों में प्रभाव डालने वाला है।
  • प्रथम चरण स्थूल वैश्वानर (अग्नि), जाग्रत अवस्था में रहने वाला, बाह्य रूप से बोध कराने वाला, सात अंगों, अर्थात सप्त लोकों या सप्त किरणों से द्युतिमान, उन्नीस मुखों- दस इन्द्रियों, पांच प्राण तथा चार अन्त-करण-वाला है। द्वितीय चरण ज्योतिर्मय आत्मा अथवा अव्यक्त ब्रह्म है। तृतीय चरण 'प्राज्ञ' ही ब्रह्म का चरण है, जिसके द्वारा वह एकमात्र आनन्द का बोध कराता है। वह ब्रह्म ही जगत का कारणभूत है, सबका ईश्वर है, सर्वज्ञ है, अन्तर्यामी है, किन्तु जो एक मात्र अनुभवगम्य है, शान्त-रूप है, कल्याणकारी अद्वैत-रूप है, वह उसका चतुर्थ चरण है।
  • इस प्रकार 'आत्मा' और 'परमात्मा' अक्षरब्रह्म' 'ॐकार' रूप में ही सामने रहता है। इसकी मात्राएं ही इसके चरण हैं और चरण ही मात्राएं हैं। ये मात्राएं 'अकार,' 'उकार' और 'मकार' हैं।

ॐ की तीन मात्राएं- अ, उ, म् हैं। यह विश्व त्रियामी है। भूत, भविष्य और वर्तमान काल भी इसकी तीन मात्राएं हैं। ये सत्, रज और तम की प्रतीक हैं। ज्ञान द्वारा ही परमात्मा के इस चेतन-अचेतन स्वरूप को जाना जा सकता है। उसे वाणी से प्रकट करना अत्यन्त कठिन है। उसे अनुभव किया जा सकता है। एक आत्मज्ञानी साधक अपने आत्मज्ञान के द्वारा ही आत्मा को परब्रह्म में प्रविष्ट कराता है और उससे अद्वैत सम्बन्ध स्थापित करता है।


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