हंसोपनिषद: Difference between revisions

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Revision as of 13:58, 25 March 2010

हंसोपनिषद

  • शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में कुल इक्कीस मन्त्र हैं। इसमें ऋषि गौतम और सनत्कार के प्रश्नोत्तर द्वारा 'ब्रह्मविद्या' के बारे में बताया गया है।
  • एक बार महादेव ने पार्वती से कहा कि 'हंस' (जीवात्मा) सभी शरीरों में विद्यमान है, जैसे काष्ठ में अग्नि और तिलों में तेल। उसकी प्राप्ति के लिए योग द्वारा 'षट्चक्रभेदन' की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। ये छह चक्र प्रत्येक मनुष्य के शरीर में विद्यमान हैं।
  • सर्वप्रथम व्यक्ति गुदा को खींचकर 'आधाचक्र' से वायु को ऊपर की ओर उठाये और 'स्वाधिष्ठानचक्र' की तीन प्रदक्षिणाएं करके 'मणिपूरकचक्र' में प्रवेश करे। फिर 'अनाहतचक्र' का अतिक्रमण करके 'विशुद्धचक्र' में प्राणों को निरूद्ध करके 'आज्ञाचक्र' का ध्यान करे। तदुपरान्त 'ब्रह्मरन्ध्र' का ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार त्रिमात्र आत्मा से एकाकार करके योगी 'ब्रह्म' में लीन हो जाता है।
  • इसके ध्यान से 'नाद' की उत्पत्ति कही गयी है, जिसकी अनेक ध्वनियों में अनुभूति होती है। इस गुह्य ज्ञान को गुरुभक्त शिष्य को ही देना चाहिए। हंस-रूप परमात्मा में एकाकार होने पर संकल्प-विकल्प नष्ट हो जाते हैं।


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