तमिल शैव: Difference between revisions
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'''तमिल शैव''' छठी से नवीं [[शताब्दी]] के मध्य तमिल देश में उल्लेखनीय शैव भक्त का जन्म हुआ, जो [[कवि]] भी थे। उनमें से तीन [[वैष्णव]] आलवारों के सदृश ही सुप्रसिद्ध हैं। अन्य धार्मिक नेताओं के समान वे 'नयनार' कहलाते थे। उनके नाम थे 'नान सम्बन्धर', अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति प्रथम दो सातवीं शती में तथा तृतीय नवीं शती में प्रकट हुए थे। आलवारों के समान ये भी गायक कवि थे, जिनमें [[शिव]] के प्रति अंगाध भक्ति भरी थी। | '''तमिल शैव''' छठी से नवीं [[शताब्दी]] के मध्य तमिल देश में उल्लेखनीय शैव भक्त का जन्म हुआ, जो [[कवि]] भी थे। उनमें से तीन [[वैष्णव]] आलवारों के सदृश ही सुप्रसिद्ध हैं। अन्य धार्मिक नेताओं के समान वे 'नयनार' कहलाते थे। उनके नाम थे 'नान सम्बन्धर', अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति प्रथम दो सातवीं शती में तथा तृतीय नवीं शती में प्रकट हुए थे। आलवारों के समान ये भी गायक कवि थे, जिनमें [[शिव]] के प्रति अंगाध भक्ति भरी थी। | ||
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आलवार एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर तक भ्रमण करते रहते थे तथा शिव की मूर्ति के सामने भावावेश में नाचते हुए स्वरचित भजनों को गाया करते थे। उनके पीछे दर्शकों एवं भक्तों की भीड़ लगी रहती थी। वे आगमों पर आश्रित नहीं थे, किंतु [[रामायण]], [[महाभारत]] तथा पुराणपुराणों का अनुसरण करते थे। उनके कुछ ही पद दूसरी भाषाओं में अनूदित हैं। तिरुमूलर (800 ई.) सम्प्रदाय के सबसे पहले कवि हैं जिन्होंने अपने काव्य 'तिरूमंत्रम्' में आगमों के धार्मिक नियमों का अनुसरण किया है। 'मणिक्कवाचकर' इस मत के दूसरे महापुरुष हैं, जिनके अगणित पद्यों का संकलन 'तिरुवाचकम्' के नाम में प्रसिद्ध है, जिसका अर्थ होता है 'पवित्र' वचनावली। ये मदुरा के निवासी एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गुरु के प्रभाव से अपना पद त्यागकर ये साधु बन गये। इन्होंने पुराणों, आगमों एवं पूर्ववर्ती तमिल रचनाओं का अनुसरण बहुत किया है। ये शंकर स्वामी के मायावाद के विरोधी थे। इसके द्वितीय विकासक्रम में (1000-1350 ई.) पट्टिपात्तु पिल्लई, नाम्बि, नाम्बि अन्दर, मेयकण्ड देव, अरूलनन्दी, मरइ ज्ञानसम्बन्ध एवं [[उमापति]] का उद्भव हुआ। | आलवार एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर तक भ्रमण करते रहते थे तथा शिव की मूर्ति के सामने भावावेश में नाचते हुए स्वरचित भजनों को गाया करते थे। उनके पीछे दर्शकों एवं भक्तों की भीड़ लगी रहती थी। वे आगमों पर आश्रित नहीं थे, किंतु [[रामायण]], [[महाभारत]] तथा पुराणपुराणों का अनुसरण करते थे। उनके कुछ ही पद दूसरी भाषाओं में अनूदित हैं। तिरुमूलर (800 ई.) सम्प्रदाय के सबसे पहले कवि हैं जिन्होंने अपने काव्य 'तिरूमंत्रम्' में आगमों के धार्मिक नियमों का अनुसरण किया है। 'मणिक्कवाचकर' इस मत के दूसरे महापुरुष हैं, जिनके अगणित पद्यों का संकलन 'तिरुवाचकम्' के नाम में प्रसिद्ध है, जिसका अर्थ होता है 'पवित्र' वचनावली। ये मदुरा के निवासी एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गुरु के प्रभाव से अपना पद त्यागकर ये साधु बन गये। इन्होंने पुराणों, आगमों एवं पूर्ववर्ती तमिल रचनाओं का अनुसरण बहुत किया है। ये शंकर स्वामी के मायावाद के विरोधी थे। इसके द्वितीय विकासक्रम में (1000-1350 ई.) पट्टिपात्तु पिल्लई, नाम्बि, नाम्बि अन्दर, मेयकण्ड देव, अरूलनन्दी, मरइ ज्ञानसम्बन्ध एवं [[उमापति]] का उद्भव हुआ। | ||
==सम्प्रदाय== | ==सम्प्रदाय== | ||
मेयकण्ड आदि अंतिम चार संत आचार्य कहलाते हैं। क्योंकि ये क्रमश: एक दूसरे के शिष्य थे। इस प्रकार तामिल शैवों ने अपना अलग उपासनाविधान निर्माण किया, जिसे तामिल शैवसिद्धांत कहते हैं। इनके सिद्धांतग्रंथ कुल 14 हैं। तीसरे विकासक्रम के अंतर्गत उक्त सिद्धांतों में कोई परिवर्तन न हुआ। यह सम्प्रदाय पूर्ण रुपेण व्यवस्थित कभी न था। अधूरी साम्प्रदायिक व्यवस्था साहित्य के माध्यम से मठों के आसपास चलती रहती थी। महंत लोग घूमकर शिष्यों से संपर्क रखते थे। अधिकांश मठ अब्राह्मणों के हाथ में तथा कुछ ही [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के अधीन थे। कारण यह कि तमिल देश के अधिकांश ब्राह्मण स्मार्त अथवा वैष्णव मतावलम्बी थे। इस काल के सर्वश्रेष्ठ विद्वान लेखक शिवज्ञान योगी हुए (1785 ई.) इसी शताब्दी के तायुमानवर द्वारा रचित शैव गीतों का संग्रह सबसे बड़ा शैव ग्रंथ माना जाता है। इसका दार्शनिक दृष्टि- कोण शिवाद्वैत के नाम से विख्यात है, जो [[संस्कृत]] सिद्धांत-शाखा से भिन्न है। | मेयकण्ड आदि अंतिम चार संत आचार्य कहलाते हैं। क्योंकि ये क्रमश: एक दूसरे के शिष्य थे। इस प्रकार तामिल शैवों ने अपना अलग उपासनाविधान निर्माण किया, जिसे तामिल शैवसिद्धांत कहते हैं। इनके सिद्धांतग्रंथ कुल 14 हैं। तीसरे विकासक्रम के अंतर्गत उक्त सिद्धांतों में कोई परिवर्तन न हुआ। यह सम्प्रदाय पूर्ण रुपेण व्यवस्थित कभी न था। अधूरी साम्प्रदायिक व्यवस्था साहित्य के माध्यम से मठों के आसपास चलती रहती थी। महंत लोग घूमकर शिष्यों से संपर्क रखते थे। अधिकांश मठ अब्राह्मणों के हाथ में तथा कुछ ही [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के अधीन थे। कारण यह कि तमिल देश के अधिकांश ब्राह्मण स्मार्त अथवा वैष्णव मतावलम्बी थे। इस काल के सर्वश्रेष्ठ विद्वान लेखक शिवज्ञान योगी हुए (1785 ई.) इसी शताब्दी के तायुमानवर द्वारा रचित शैव गीतों का संग्रह सबसे बड़ा शैव ग्रंथ माना जाता है। इसका दार्शनिक दृष्टि- कोण शिवाद्वैत के नाम से विख्यात है, जो [[संस्कृत]] सिद्धांत-शाखा से भिन्न है। | ||
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Revision as of 13:01, 28 August 2014
तमिल शैव छठी से नवीं शताब्दी के मध्य तमिल देश में उल्लेखनीय शैव भक्त का जन्म हुआ, जो कवि भी थे। उनमें से तीन वैष्णव आलवारों के सदृश ही सुप्रसिद्ध हैं। अन्य धार्मिक नेताओं के समान वे 'नयनार' कहलाते थे। उनके नाम थे 'नान सम्बन्धर', अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति प्रथम दो सातवीं शती में तथा तृतीय नवीं शती में प्रकट हुए थे। आलवारों के समान ये भी गायक कवि थे, जिनमें शिव के प्रति अंगाध भक्ति भरी थी।
प्रसिद्धि
आलवार एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर तक भ्रमण करते रहते थे तथा शिव की मूर्ति के सामने भावावेश में नाचते हुए स्वरचित भजनों को गाया करते थे। उनके पीछे दर्शकों एवं भक्तों की भीड़ लगी रहती थी। वे आगमों पर आश्रित नहीं थे, किंतु रामायण, महाभारत तथा पुराणपुराणों का अनुसरण करते थे। उनके कुछ ही पद दूसरी भाषाओं में अनूदित हैं। तिरुमूलर (800 ई.) सम्प्रदाय के सबसे पहले कवि हैं जिन्होंने अपने काव्य 'तिरूमंत्रम्' में आगमों के धार्मिक नियमों का अनुसरण किया है। 'मणिक्कवाचकर' इस मत के दूसरे महापुरुष हैं, जिनके अगणित पद्यों का संकलन 'तिरुवाचकम्' के नाम में प्रसिद्ध है, जिसका अर्थ होता है 'पवित्र' वचनावली। ये मदुरा के निवासी एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गुरु के प्रभाव से अपना पद त्यागकर ये साधु बन गये। इन्होंने पुराणों, आगमों एवं पूर्ववर्ती तमिल रचनाओं का अनुसरण बहुत किया है। ये शंकर स्वामी के मायावाद के विरोधी थे। इसके द्वितीय विकासक्रम में (1000-1350 ई.) पट्टिपात्तु पिल्लई, नाम्बि, नाम्बि अन्दर, मेयकण्ड देव, अरूलनन्दी, मरइ ज्ञानसम्बन्ध एवं उमापति का उद्भव हुआ।
सम्प्रदाय
मेयकण्ड आदि अंतिम चार संत आचार्य कहलाते हैं। क्योंकि ये क्रमश: एक दूसरे के शिष्य थे। इस प्रकार तामिल शैवों ने अपना अलग उपासनाविधान निर्माण किया, जिसे तामिल शैवसिद्धांत कहते हैं। इनके सिद्धांतग्रंथ कुल 14 हैं। तीसरे विकासक्रम के अंतर्गत उक्त सिद्धांतों में कोई परिवर्तन न हुआ। यह सम्प्रदाय पूर्ण रुपेण व्यवस्थित कभी न था। अधूरी साम्प्रदायिक व्यवस्था साहित्य के माध्यम से मठों के आसपास चलती रहती थी। महंत लोग घूमकर शिष्यों से संपर्क रखते थे। अधिकांश मठ अब्राह्मणों के हाथ में तथा कुछ ही ब्राह्मणों के अधीन थे। कारण यह कि तमिल देश के अधिकांश ब्राह्मण स्मार्त अथवा वैष्णव मतावलम्बी थे। इस काल के सर्वश्रेष्ठ विद्वान लेखक शिवज्ञान योगी हुए (1785 ई.) इसी शताब्दी के तायुमानवर द्वारा रचित शैव गीतों का संग्रह सबसे बड़ा शैव ग्रंथ माना जाता है। इसका दार्शनिक दृष्टि- कोण शिवाद्वैत के नाम से विख्यात है, जो संस्कृत सिद्धांत-शाखा से भिन्न है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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