राष्ट्रकूट वंश: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Adding category Category:राष्ट्रकूट (को हटा दिया गया हैं।))
Line 81: Line 81:
[[Category:भारत के राजवंश]]
[[Category:भारत के राजवंश]]
[[Category:इतिहास कोश]]
[[Category:इतिहास कोश]]
[[Category:राष्ट्रकूट]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Revision as of 05:17, 23 April 2011

राष्ट्रकूट वंश का आरम्भ 'दन्तिदुर्ग' से लगभग 736 ई. में हुआ था। उसने नासिक को अपनी राजधानी बनाया। इसके उपरान्त इन शासकों ने मान्यखेत, (आधुनिक मालखंड) को अपनी राजधानी बनाया। राष्ट्रकूटों ने 736 ई. से 973 ई. तक राज्य किया।

राष्ट्रकूट वंशीय शासक
शासकों के नाम शासन काल
दन्तिदुर्ग (736-756 ई.)
कृष्ण प्रथम (756-772 ई.)
गोविन्द द्वितीय (773-780 ई.)
ध्रुव धारावर्ष (780-793 ई.)
गोविन्द तृतीय (793-814 ई.)
अमोघवर्ष प्रथम (814-878 ई.)
कृष्ण द्वितीय (978-914 ई.)
इन्द्र तृतीय (914-927 ई.)
अमोघवर्ष द्वितीय (928-929 ई.)
गोविन्द चतुर्थ (930-936 ई.)
अमोघवर्ष तृतीय (936 ई.)
कृष्ण तृतीय (936-969 ई.)
खोद्रिग (967-972 ई.)
कर्क्क द्वितीय (972-973 ई.)

शासन तन्त्र

राष्ट्रकूटों ने एक सुव्यवस्थित शासन प्रणाली को जन्म दिया था। प्रशासन राजतन्त्रात्मक था। राजा सर्वोच्च शक्तिमान था। राजपद आनुवंशिक होता था। शासन संचालन के लिए सम्पूर्ण राज्य को राष्ट्रों, विषयों, भूक्तियों तथा ग्रामों में विभाजित किया गया था। राष्ट्र, जिसे 'मण्डल' कहा जाता था, प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई थी। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई 'ग्राम' थी। राष्ट्र के प्रधान को 'राष्ट्रपति' या 'राष्ट्रकूट' कहा जाता था। एक राष्ट्र चार या पाँच ज़िलों के बराबर होता था। राष्ट्र कई विषयों एवं ज़िलों में विभाजित था। एक विषय में 2000 गाँव होते थे। विषय का प्रधान 'विषयपति' कहलाता था। विषयपति की सहायता के लिए 'विषय महत्तर' होते थे। विषय को ग्रामों या भुक्तियों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक भुक्ति में लगभग 100 से 500 गाँव होते थे। ये आधुनिक तहसील की तरह थे। भुक्ति के प्रधान को 'भोगपति' या 'भोगिक' कहा जाता था। इसका पद आनुवांशिक होता था। वेतन के बदले इन्हें करमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। भुक्ति छोटे-छोटे गाँव में बाँट दिया गया था, जिनमें 10 से 30 गाँव होते थे। नगर का अधिकारी 'नगरपति' कहलाता था।

प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्राम के अधिकारी को 'ग्रामकूट', 'ग्रामपति', 'गावुण्ड' आदि नामों से पुकारा जाता था। इसकी एक ग्राम सभा भी थी, जिसमें ग्राम के प्रत्येक परिवार का सदस्य होता था। गाँव के झगड़े का निपटारा करना इसका प्रमुख कार्य था।

राजस्व प्रणाली

आय का प्रमुख साधन भूमि कर था। नियमित करों में 'उद्रंग', 'उपरिक', 'शुल्क' तथा 'विकर' प्रमुख कर थे। उद्रंग या भागकर उत्पादन का 1/4 था। मुद्रा प्रणाली विकसित थी। राष्ट्रकूट मुद्राओं में 'द्रम्य', 'सुवर्ण', 'गध्यांतक', 'कतंजु' तथा 'कसु' का उल्लेख मिलता है। इसमें कलंजु, गध्यांतक तथा कसु स्वर्ण मुद्राएँ थीं।

धर्म

राष्ट्रकूट शासकों के संरक्षण में ब्राह्मण एवं जैन धर्म का अधिक विकास हुआ। ब्राह्मण धर्म सर्वाधिक प्रचलित था। प्रारम्भिक राष्ट्रकूट शासक ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे तथा विष्णु एवं शिव की आराधना करते थ। राष्ट्रकूट शासक अपनी शासकीय मुद्राओं पर गरुढ़, शिव अथवा विष्णु के आयुधों का प्रयोग करते थे। ब्राह्मण धर्म की तुलना में जैन धर्म का अधिक प्रचार-प्रसार हुआ। इसे राजकीय संरक्षण प्रदान था। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष के समय में जैन धर्म का सर्वाधिक विकास हुआ। अमोघवर्ष के गुरु 'जिनसेन' जैन थे, जिसने ‘आदि पुराण’ की रचना की। युवराज कृष्ण का अध्यापक गुणभद्र प्रसिद्ध जैनाचार्य था। गंग शासक वेंकेट या उसके पुत्र लोकादित्य जैन धर्म के अनुयायी थे। राष्ट्रकूटों के प्रसिद्ध सेनापति श्री विजय नरसिंह आदि जैन थे।

साहित्यिक उपलब्धियाँ

राष्ट्रकूट काल साहित्यिक उन्नति के लिए भी प्रसिद्ध रहा है। अग्रहार उच्च संस्कृत शिक्षा का केन्द्र था। यहाँ पर ब्राह्मण संस्कृत विद्या की शिक्षा दी जाती थी। अग्रहार के अतिरिक्त मन्दिर भी उच्च शिक्षा का केन्द्र था। मान्यखेट, पैठन, नासिक, करहद आदि शिक्षा के उच्च केन्द्र थे। संस्कृत के अनेक विद्वान तथा लेखक-'कुमारिल भट्ट', 'वाचस्पति', 'लल्ल', 'कात्यायन', 'राजशेखर', 'अंगिरस' इसी युग के हैं। इसके अतिरिक्त अन्य विद्वानों में 'हलायुध', 'अश्लक', 'विद्यानंद', 'जिनसेन', 'प्रभाचन्द्र', 'हरिषेण', 'गुणभद्र' और 'सोमदेव' प्रमुख थे। हलायुध, जिसने ‘कवि रहस्य’ नामक ग्रन्थ लिखा, कृष्ण तृतीय का दरबारी कवि था। कृष्ण तृतीय के ही शासन काल में 'अवलंक' और 'विद्यानन्द' ने जैन ग्रन्थ 'आप्त मीमांसा' पर 'अष्टशती' एवं 'अष्टसहस्त्री' टीकाएँ लिखीं। इसी काल में 'मणिक्यनन्दिन' ने ‘परीक्षामुख शास्त्र’ की रचना की, जो न्याय शास्त्र का प्रमुख ग्रन्थ माना गया है। राष्ट्रकूट शासक स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान था, उसने कन्नड़ भाषा में ‘कविराज मार्ग’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इसके गुरु एवं आचार्य जिनसेन ने 'आदि पुराण', 'हरिवंश' तथा 'पाश्र्वभ्युदय' की रचना की। इसी समय के महान गणितज्ञ 'वीराचार्य' ने 'गणिसारसंग्रह' की रचना की तथा शाकटायन ने 'अमोघवृत्ति' की रचना की। राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय के शासन काल में महाकवि 'त्रिविक्रम' ने ‘नलचम्पू’ काव्य की रचना की। 9वीं शताब्दी में सोमदेव ने यशस्तिक चम्पू नामक उच्च कोटि के ग्रन्थ की रचना की। उसकी एक अन्य रचना ‘नीति वाक्यमृत’ है, जो तत्कालीन राजनीतिक सिद्धान्तों का मानक ग्रन्थ माना जाता है। 10वीं शताब्दी के महानकवि 'पम्प' ने कन्नड़ भाषा में ‘आदि पुराण’ तथा ‘विक्रमार्जुन विजय’ की रचना की। आदि पुराण में प्रथम जैन तीर्थकरों का उल्लेख किया गया है।

कन्नड़ कवि 'पोत्र' (950) ने रामायण की कहानी पर आधारित ‘रामकथा’ तथा ‘शान्तिपुराण’ नामक ग्रन्थ की रचना की। 'रन्न' (993 ई.) ने 'गदायुद्ध' तथा 'अजीत तीर्थकर पुराण' की रचना की। गंगवाड़ी राज्य के प्रसिद्ध सेनापति 'चामुण्डराज' ने ‘चामुण्डराज पुराण’ नामक ग्रन्थ लिखा; जिसे गद्य साहित्य का उत्कृष्ट ग्रंथ माना जाता है।

कला

राष्ट्रकूटों के समय का सबसे विख्यात मंदिर एलोरा का कैलाश मंदिर है। इसका निर्माण कृष्ण प्रथम के शासनकाल में किया गया था। भड़ौदा अभिलेख में इस मन्दिर की भव्यता का वर्णन मिलता है। दशावतार मन्दिर दो मंजिला ब्राह्मण मन्दिर का एक मात्र उदाहरण है। इनके जैन मन्दिर पाँच मंजिलें हैं, जिनमें इन्द्रमहासभा, छोटा कैलाश तथा जगन्नाथ सभा प्रमुख हैं।

  1. REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

संबंधित लेख