चैतन्य महाप्रभु की कृष्ण भक्ति: Difference between revisions

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Revision as of 14:01, 6 September 2016

चैतन्य महाप्रभु विषय सूची
चैतन्य महाप्रभु की कृष्ण भक्ति
पूरा नाम चैतन्य महाप्रभु
अन्य नाम विश्वम्भर मिश्र, श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र, निमाई, गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर
जन्म 18 फ़रवरी सन् 1486 (फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा)
जन्म भूमि नवद्वीप (नादिया), पश्चिम बंगाल
मृत्यु सन् 1534
मृत्यु स्थान पुरी, उड़ीसा
अभिभावक जगन्नाथ मिश्र और शचि देवी
पति/पत्नी लक्ष्मी देवी और विष्णुप्रिया
कर्म भूमि वृन्दावन, मथुरा
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी महाप्रभु चैतन्य के विषय में वृन्दावनदास द्वारा रचित 'चैतन्य भागवत' नामक ग्रन्थ में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण कृष्णदास ने 1590 में 'चैतन्य चरितामृत' शीर्षक से लिखा था।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

चैतन्य को इनके अनुयायी कृष्ण का अवतार भी मानते रहे हैं। सन 1509 में जब ये अपने पिता का श्राद्ध करने बिहार के गया नगर में गए, तब वहां इनकी मुलाक़ात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से 'कृष्ण-कृष्ण' रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे।

कृष्ण के प्रति निष्ठा

भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर 'हरि नाम संकीर्तन' करना प्रारंभ किया।

महामन्त्र

हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे


उपरोक्त अठारह शब्दीय कीर्तन महामन्त्र निमाई की ही देन है। इनका पूरा नाम 'विश्वम्भर मिश्र' और कहीं 'श्रीकृष्ण चैतन्यचन्द्र' मिलता है। चौबीसवें वर्ष की समाप्ति पर इन्होंने वैराग्य ले लिया। वे कर्मकांड के विरोधी और श्रीकृष्ण के प्रति आस्था के समर्थक थे। चैतन्य मत का एक नाम 'गौड़ीय वैष्णव मत' भी है। चैतन्य ने अपने जीवन का शेष भाग प्रेम और भक्ति का प्रचार करने में लगाया। उनके पंथ का द्वार सभी के लिए खुला था। हिन्दू और मुसलमान सभी ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। इनके अनुयायी चैतन्य को विष्णु का अवतार मानते हैं। अपने जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने उड़ीसा में बिताये। छह वर्ष तक वे दक्षिण भारत, वृन्दावन आदि स्थानों में विचरण करते रहे। छ: वर्ष मथुरा से जगन्नाथ तक के सुविस्तृत प्रदेश में अपने सिद्धांतों का प्रचार किया तथा कृष्ण की भक्ति की ओर लोगों को प्रवृत्त किया।


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