बीन

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thumb|250px|बीन बीन एक प्रकार का संगीत वाद्य है, जिसका प्रयोग प्राचीन समय से ही होता आ रहा है। इस वाद्य का प्रयोग मुख्यत: भारत में साँप का तमाशा आदि दिखाने वाले सपेरा लोग करते हैं। बीन कोई शास्त्रीय साज़ नहीं है लेकिन इसे 'लोक साज़' कहा जा सकता है, क्योंकि इसका प्रयोग लोक संगीत मे होता है या कोई समुदाय विशेष इसका प्रयोग अपनी जीविका उपार्जन के लिए करता है। बीन को अक्सर सपेरों और सांपों से जोड़ा जाता है। अब बीन का प्रयोग करने वाले बहुत कम लोग हैं। भारत के गाँवों, गलियों या किसी चौराहे पर अब मुश्किल से ही कोई सपेरा बीन बजाता हुआ दिखाई देता है। यह एक लुप्त होता वाद्य है।

विभिन्न नाम

यह वाद्य पूरे भारतवर्ष में अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। उत्तर भारत और पूर्वी भारत में इसे 'पुंगी', 'तुम्बी', 'नागासर' और 'सपेरा बांसुरी' के नामों से पुकारा जाता है। वहीं दक्षिण में इसके 'नागस्वरम', 'महुदी', 'पुंगी' और 'पमबत्ती कुज़ल' नाम प्रचलित है। 'पुंगी' या 'बीन' को सपेरे की पत्नी का दर्जा दिया जाता है और इस साज़ का विकास शुरु में लोक संगीत के लिए किया गया था।

बनावट

बीन के चाहे कितने भी अलग-अलग नाम क्यों न हों, इस साज़ का जो गठन है, वह लगभग एक जैसा ही है। इसकी लम्बाई क़रीब एक से दो फ़ूट तक की होती है। पारम्परिक तौर पर बीन एक सूखी लौकी से बनाया जाता है, जिसका इस्तमाल एयर रिज़र्वर के लिए किया जाता है। इसके साथ बाँस की नलियाँ लगाई जाती हैं, जिन्हें 'जिवाला' कहा जाता है। इनमें से एक नली मेलडी के लिए और दूसरी ड्रोन प्रभाव के लिए होती है। सबसे ऊपर लौकी के अन्दर एक नली डाली जाती है, जो एक बांसुरी के समान होती है जिसमें सपेरा फूँक मारता है। वह लौकी के अंदर हवा भरता है। यह हवा नीचे के हिस्से में लगी दो नलियों से बाहर निकलती है। इन दोनों नलियों में एक 'बीटिंग रीड' होता है, जो ध्वनि उत्पन्न करता है। पुंगी या बीन को बजाते समय कोई विशेष मुद्रा आवश्यक नहीं है। इसलिए इसे बजाने का जो सबसे प्रचलित तरीका है, वह है गोलाकार तरीके से साँस लेना। इसे अंग्रेज़ी में 'सर्कुलर ब्रीदिंग' कहा जाता है।

प्रयोग

बीन का इस्तेमाल करने वालों में 'कालबेलिया' सम्प्रदाय एक मुख्य नाम है। कालबेलिया जाति एक बंजारा जाति है, जो प्राचीन काल से ही एक जगह से दूसरे जगह पर निरंतर घूमती रहती है। जीविका उपार्जन के लिए ये लोग सांपों को पकड़ते हैं और उनके ज़हर का व्यापार करते हैं। शायद इसी वजह से इनका जो लोक नृत्य और पोशाक है, उनमें भी सर्पों की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं। कालबेलिया जाति को 'सपेरा', 'जोगिरा' और 'जोगी' भी कहते हैं। हिन्दू धर्म से इनका निकट का सम्बन्ध है। इनके पूर्वज 'कांलिपार' कहे जाते हैं, जो गुरु गोरखनाथ के 12वें उत्तराधिकारी थे।

कालबेलिया सबसे ज़्यादा राजस्थान के पाली, अजमेर, चित्तौड़गढ़ और उदयपुर ज़िलों में पाये जाते हैं। कालबेलिया नृत्य इनकी संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसमें पुरुष संगीत का पक्ष संभालते हैं। पुरुष इस पक्ष को संभालने के लिए जिन साज़ों का सहारा लेते हैं, उनमें शामिल हैं- पुंगी, डफ़ली, बीन, खंजरी, मोरचंग, खुरालिओ और ढोलक, जिनसे नर्तकियों के लिए रिदम उत्पन्न की जाती है। जैसे-जैसे नृत्य आगे बढ़ता है, रिदम और तेज़ होती जाती है। इन नर्तकियों का शरीर इतना लचीला होता है कि देख कर ऐसा लगता है जैसे रबर के बनें हैं। जिस तरह से बीन बजाकर सांपों को आकर्षित और वश में किया जाता है, कालबेलिया की नर्तकियाँ भी उसी अंदाज़ में बीन और ढोलक के इर्द-गिर्द लहरा कर नृत्य प्रस्तुत करती हैं।

फ़िल्मों में प्रयोग

बीन का प्रयोग बहुत से हिन्दी फ़िल्मी गीतों में भी होता रहा है। जब भी कभी सांप के विषय पर फ़िल्म बनती है तो बीन के दृश्य बहुतायत में शामिल होते हैं। कभी हारमोनियम और क्लेविओलिन से बीन की ध्वनि उत्पन्न की जाती है तो कभी कोई और सीन्थेसाइज़र प्रयोग किया जाता है। क्योंकि मूल बीन बहुत ज़्यादा सुरीला या कर्णप्रिय नहीं होता है, इसलिए किसी और साज़ के प्रयोग से बीन का प्रभाव लाया जाता है।


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