फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (अंग्रेज़ी: Faiz Ahmad Faiz, जन्म: 13 फ़रवरी, 1911 – मृत्यु: 20 नवम्बर, 1984) प्रसिद्ध शायर थे जिनको अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव (इंक़लाबी और रूमानी) के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्म, ग़ज़ल लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता 'ज़िन्दान-नामा' को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा'

जीवन परिचय

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्म 13 फ़रवरी 1911 को अविभाजित हिदुस्‍तान के शहर सियालकोट में जो अब पाकिस्तान में है, एक मध्‍यवर्गीय परिवार में हुआ था। सन् 1936 में वे प्रेमचंद, मौलवी अब्‍दुल हक़, सज्‍जाद जहीर और मुल्‍क राज आनंद द्वारा स्‍थापित प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हुए। फै़ज़ अहमद फै़ज़ बाबा मलंग साहिब, लाहौर के सूफी, अशफाक अहमद, सय्यद फखरुद्दीन बल्ली, वासिफ अली वासिफ और अन्य सूफी संतों के वह भक्त थे। फैज़ प्रतिबद्ध मार्क्सवादी थे। 1930 में फैज़ ने ब्रिटिश महिला एलिस से विवाह किया था।

फ़ैज़ की जुबानी में फ़ैज़ का बचपन

मेरा जन्म उन्नीसवीं सदी के एक ऐसे फक्कड़ व्यक्ति के घर में हुआ था जिसकी ज़िंदगी मुझसे कहीं ज़्यादा रंगीन अंदाज़ में गुज़री। मेरे पिता सियालकोट के एक छोटे से गाँव में एक भूमिहीन किसान के घर पैदा हुए, यह बात मेरे पिता ने बताई थी और इसकी तस्दीक गाँव के दूसरे लोगों द्वारा भी हुई थी। मेरे दादा के पास चूँकि कोई ज़मीन नहीं थी इसलिए मेरे पिता गाँव के उन किसानों के पशुओं को चराने का काम करते थे जिनकी अपनी ज़मीन थी। मेरे पिता कहा करते थे कि पशुओं को चराने गाँव के बाहर ले जाते थे जहाँ एक स्कूल था। वह पशुओं को चरने के लिए छोड़ देते और स्कूल में जाकर शिक्षा प्राप्त करते, इस तरह उन्होंने प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूरी की। चूँकि गांव में इससे आगे की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी, वह गाँव से भाग कर लाहौर पहुँच गए। उन्होंने लाहौर की एक मस्जिद में शरण ली। मेरे पिता कहते थे कि वह शाम को रेलवे स्टेशन चले जाया करते थे और वहाँ कुली के रूप में काम करते थे। उस ज़माने में ग़रीब और अक्षम छात्र मस्जिदों में रहते थे और मस्जिद के इमाम से या आस-पास के मदरसों में निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। इलाक़े के लोग उन छात्रों को भोजन उपलब्ध कराते थे। --- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़[1]

कार्यक्षेत्र

1942 से लेकर 1947 तक वे ब्रिटिश-सेना मे कर्नल रहे। फिर फौ़ज़ से अलग होकर ’पाकिस्‍तान टाइम्‍स’ और ’इमरोज़’ अखबारों के एडीटर रहे। लियाकत अली खाँ की सरकार के तख्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में वे 1951‍-1955 तक कैद में रहे। इसी दौरान लिखी गई कविताएँ बाद में बहुत लोकप्रिय हुईं, जो "दस्ते सबा" तथा "जिंदानामा" में प्रकाशित हुईं। बाद में वे 1962 तक लाहौर में पाकिस्तान आर्टस काउनसिल मे रहे। 1963 में उनको सोवियत-संघ (रूस) ने लेनिन शांति पुरस्कार प्रदान किया। भारत के साथ 1965 के युद्ध के समये वे पाकिस्तान के सूचना मंत्रालय मे काम कर रहे थे।

इंकलाबी कवि एवं रूमानी शायर

वे उर्दू के बहुत ही जाने-माने कवि थे। आधुनिक उर्दू शायरी को उन्होंने एक नई ऊँचाई दी। इसी समय उर्दू के काव्य-गगन में साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे और भी सितारे चमक रहे थे। वे अंग्रेज़ी तथा अरबी में एम.ए. करने के बावजूद भी कवितायें उर्दू में ही लिखते थे। फै़ज़ अहमद फै़ज़ की उर्दू कविता दुआ का बलोची अनुवाद बलोच कवि गुल खान नासिर द्वारा किया गया। 20वीं सदी का वो महान उर्दू शायर जिसने सरकारी तमगों और पुरस्कारों के लिए नहीं, जिसने शराब की चाशनी में डूबती-नाचती महबूबाओं के लिए नहीं, जिसने मज़ारों और बेवफ़ाईयों के लिए नहीं बल्कि अपने इंसान होने के एहसास, समाज और देश के लिए, एक सही और बराबरी की व्यवस्था वाले लोकतंत्र के लिए इंकलाब को अपने कलम की स्याही बनाया और ज़ुल्म-ओ-सितम में जी रहे लोगों को वो दिया जो बंदूकों और तोपखानों से बढ़कर था। फ़ैज़ की कविताओं में जितना जिंदा वो सच है जिसमें हम जी रहे हैं, उतना ही जिंदा वो हौसला है जिसकी बदौलत आदम-ओ-हव्वा की औलादें अपने वर्तमान को बदल सकती हैं। वो कहते हैं-

बोल के लब आजाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल के जां अब तक तेरी है

शोषण, दमन और बंदरबांट को जिस खूबसूरती से फ़ैज़ नंगा करके लोगों के सामने लाते हैं, वो बेमिसाल है। पर जब फ़ैज़ इश्क़ भी करते हैं तो लगता है कि न जाने कोई हाड़-मांस की महबूबा है या इंकलाब का परचम थामे हुए क्रांति खड़ी है जिसके लिए वो दीवाने हुए जाते हैं। और इसीलिए जब रूमानियत की या इंकलाब की कविताओं की बात अलग-अलग उठती है तो फ़ैज़ तराजू के दोनों ओर बराबर वज़नदार मालूम देते हैं। कोई भी इंकलाबी कवि या शायर रूमानी भी हो सकता है या होता है, ऐसे जुमलों का सबसे सटीक और मज़बूत उदाहरण फ़ैज़ हैं। फ़ैज़ की शताब्दी में यह खासियत उनसे पहले मजाज़ लखनवी में ही दिखती है, बाकी इस स्तर की किसी और उर्दू शायर में नहीं और इसीलिए 20वीं सदी में फ़ैज़ सबसे सशक्त उर्दू शायर के तौर पर उभरकर सामने आते हैं।[2]

सांडर्स की हत्या के साक्षी

फ़ैज़ केवल पाकिस्तान के नहीं थे। जब वो पैदा हुए तो भारत और पाकिस्तान एक ही थे। कम लोगों को मालूम है कि लाहौर में सांडर्स की हत्या के लिए भगत सिंह और साथियों की पिस्तौल से चली गोली की आवाज़ सुनने वालों और फिर भागते क्रांतिकारियों को देखने वालों में से एक फ़ैज़ भी थे, अपने हॉस्टल की छत पर टहलते हुए अचानक ही इस ऐतिहासिक पल के वे साक्षी बने थे। पाकिस्तान बना पर भगत सिंह फ़ैज़ के दिल में कायम रहे। बिना किसी परवाह के फ़ैज़ के लिए धरती पर सबसे ज्यादा पसंदीदा और प्रभावित करने वाला नाम भगत सिंह बने रहे। और फिर दक्षिण एशिया क्या, दुनिया के तमाम कोनों में फ़ैज़ कभी मर्ज़ी से, कभी मजबूरी में पहुंचे। अपने संघर्ष के तरानों को दूसरों के लिए लिखते हुए उन्होंने दुनियाभर में शोषण और अत्याचार के खिलाफ़ अपनी कविताओं को बुलंद किया।[2] 



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आपबीती – १ (हिंदी) कबाड़खाना। अभिगमन तिथि: 18 जून, 2013।
  2. 2.0 2.1 साभार : राष्ट्रीय सहारा, रविवारीय परिशिष्ट, 27 मार्च 2011

बाहरी कड़ियाँ

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