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फिर लौटा है ख़ुरशीदे-जहाँ-ताब सफ़र से
फिर नूरे-सहर दस्तो-गरेबाँ है सहर से
फिर आग भड़कने लगी हर साज़े-तरब में
फिर शोले लपकने लगे हर दीदा-ए-तर से
फिर निकला है दीवाना कोई फूँक के घर को
कुछ कहती है हर राह हर इक राहगुज़र से
वो रंग है इमसाल गुलिस्ताँ की फ़ज़ा का
ओझल हुई दीवारे-क़फ़स हद्दे-नज़र से
साग़र तो खनकते हैं शराब आए न आए
बादल तो गरजते हैं घटा बरसे न बरसे
पापोश की क्या फ़िक्र है, दस्तार सँभालो
पायाब है जो मौज गुज़र जाएगी सर से