Revision as of 11:10, 25 June 2013 by दिनेश(talk | contribs)('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र=Faiz-Ahmed-Faiz.jp...' के साथ नया पन्ना बनाया)
फिर बर्क़े फ़रोज़ाँ है सरे वादि'ए सीना
फिर रंग पे है शोल'अ-ए-रूख़सारे हक़ीक़त
पैग़ामे-अजल दावते-दीदारे-हक़ीक़त
ऐ दीदःए-बीना
अब वक़्त है दीदार का दम है कि नहीं है
अब क़ातिले जाँ चारागरे कुल्फ़ते ग़म है
गुलज़ारे-इरम परतवे-सहराये-अदम है
पिंदारे-जुनूँ
हौसलए राहे-अदम है कि नहीं है
फिर बर्क़ फ़रोज़ाँ है सरे वादि'ए सीना, ऐ दीदाए बीना
फिर दिल को मुसफ़्फ़ा करो, इस लौह पे शायद
माबैने-मन-ओ-तू नया पैमाँ कोई उतरे
अब रस्मे-सितम हिकमते-ख़ासाने-ज़मीं है
ताईदे-सितम मसलहते-मुफ़्तिए-दीं है
अब सदियों के इक़रारे-इतायत को बदलने
लाज़िम है कि इनकार का फ़रमाँ कोई उतरे
सुनो कि शायद यह नूर सैक़ल
है इस सहीफ़े का हरफ़े-अव्वल
जो हर कस-ओ-नाकसे-ज़मीं पर
दिले गदायाने अजमईं पर
उतर रहा है फ़लक से अब तक
सुनो कि इस हर्फ़े-लमयज़ल के
हमीं तुम्हीं बंदगाने-बेबस
अलीम भी हैं ख़बीर भी हैं
सुनो कि हम बेज़बान-ओ-बेकस
बशीर भी हैं नज़ीर भी हैं
हर इक उलुल अम्र को सदा दो
कि अपनी फ़र्दे-अमल सँभाले
उठेगा जब जम्मे सर फ़रोशाँ
पड़ेंगे दार-ओ-रसन के लाले, कोई न होगा कि जो बचा ले
जज़ा सज़ा सब यहीं पे होगी, यहीं अज़ाब-ओ-सवाब होगा
यहीं से उट्ठेगा शोरे-महशर, यहीं पे रोज़े-हिसाब होगा