शैव दर्शन

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शैव दर्शन भारतीय दर्शनशास्त्र में अतिप्राचीन माना जाता है। इस दर्शन के अनुसार 36 तत्त्व माने गए हैं।

कश्मीरी शैव सम्प्रदाय

वसुगुप्त को कश्मीर शैव दर्शन की परम्परा का प्रणेता माना जाता है। उन्होंने 9वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में कश्मीरी शैव सम्प्रदाय का गठन किया। इनके कल्लट और सोमानन्द दो प्रसिद्ध शिष्य थे। इनका दार्शनिक मत 'ईश्वराद्वयवाद' था। सोमानन्द ने "प्रत्यभिज्ञा मत" का प्रतिपादन किया। प्रतिभिज्ञा शब्द का तात्पर्य है कि साधक अपनी पूर्वज्ञात वस्तु को पुन: जान ले। इस अवस्था में साधक को अनिवर्चनीय आनन्दानुभूति होती है। वे अद्वैतभाव में द्वैतभाव और निर्गुण में भी सगुण की कल्पना कर लेते थे। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए कोरे ज्ञान और निरीभक्ति को असमर्थ बतलाया। दोनों का समन्वय ही मोक्ष प्राप्ति करा सकता है। यद्यपि शुद्ध भक्ति बिना द्वैतभाव के संभव नहीं है और द्वैतभाव अज्ञान मूलक है; किन्तु ज्ञान प्राप्त कर लेने पर जब द्वैत मूलक भाव की कल्पना कर ली जाती है, तब उससे किसी प्रकार की हानि की संभावना नहीं रहती। इस प्रकार इस सम्प्रदाय में कतिपय ऐसे भी साधक थे, जो योग-क्रिया द्वारा रहस्य का वास्तविक पता पाना चाहते थे, क्योंकि उनकी धारणा थी कि योग-क्रिया से हम माया के आवरण को समाप्त कर सकते हैं और इस दशा में ही मोक्ष की सिद्ध सम्भव है।


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