Difference between revisions of "मधुवन"

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'''मधुवन / महोली'''
 
 
मधुपुरी या मधुरा के पास का एक वन जिसका स्वामी मधु नाम का दैत्य था। मधु के पुत्र लवणासुर को शत्रुघ्न ने विजित किया था।
 
 
[[चित्र:Dhruva-Temple-Madhuvan.jpg|[[ध्रुव]] जी मन्दिर, मधुवन<br />Dhruva Ji Temple, Madhuvan|thumb|250px]]
 
[[चित्र:Dhruva-Temple-Madhuvan.jpg|[[ध्रुव]] जी मन्दिर, मधुवन<br />Dhruva Ji Temple, Madhuvan|thumb|250px]]
[[मथुरा]] से लगभग साढ़े तीन मील दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित यह ग्राम [[वाल्मीकि रामायण]] में वर्णित मधुपुरी के स्थान पर बसा हुआ है। मधुपुरी को [[मधु दैत्य|मधु]] नामक दैत्य ने बसाया था। उसके पुत्र [[लवणासुर]] को शत्रुघ्न ने युद्ध में पराजित कर उसका वध कर दिया था और मधुपुरी के स्थान पर उन्होंने नई मथुरा या मथुरा नगरी बसाई थी। महोली ग्राम को आजकल मधुवन-महोली कहते हैं। महोली मधुपुरी का अपभ्रंश है। लगभग 100 वर्ष पूर्व इस ग्राम से [[गौतम बुद्ध]] की एक मूर्ति मिली थी। इस कलाकृति में भगवान को परमकृशावस्था में प्रदर्शित किया गया है। यह उनकी उस समय की अवस्था का अंकन है जब बोधिगया में 6 वर्षों तक कठोर तपस्या करने के उपरांत उनके शरीर का केवल शरपंजन मात्र ही अवशिष्ट रह गया था।  
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'''मधुवन''' [[मधुपुरी]] या [[मथुरा]] के पास स्थित एक वन था, जिसका स्वामी [[मधु दैत्य|मधु]] नाम का [[दैत्य]] था। मधु के पुत्र [[लवणासुर]] को [[अयोध्या]] के राजा [[दशरथ]] के पुत्र तथा श्री [[राम]] के भाई [[शत्रुघ्न]] ने विजित किया था। [[मथुरा]] से लगभग साढ़े तीन मील दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित यह ग्राम [[वाल्मीकि रामायण]] में वर्णित मधुपुरी के स्थान पर बसा हुआ है। मधुपुरी को मधु नामक दैत्य ने बसाया था। उसके पुत्र लवणासुर को शत्रुघ्न ने युद्ध में पराजित कर उसका वध कर दिया और मधुपुरी के स्थान पर उन्होंने नई मथुरा नगरी की स्थापना की। महोली ग्राम को आजकल मधुवन-महोली कहते हैं। महोली मधुपुरी का ही अपभ्रंश है। लगभग 100 वर्ष पूर्व इस ग्राम से [[गौतम बुद्ध]] की एक मूर्ति मिली थी। इस कलाकृति में भगवान को परमकृशावस्था में प्रदर्शित किया गया है। यह उनकी उस समय की अवस्था का अंकन है जब [[बोध गया]] में 6 वर्षों तक कठोर तपस्या करने के उपरांत उनके शरीर का केवल शरपंजन मात्र ही अवशिष्ट रह गया था।
 
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==पौराणिक उल्लेख==
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मधुवन से सम्बन्धित कई पौराणिक उल्लेख प्राप्त होते हैं-
 
*इस वन का उल्लेख [[रामायण|वाल्मीकि रामायण]] में इस प्रकार है-  
 
*इस वन का उल्लेख [[रामायण|वाल्मीकि रामायण]] में इस प्रकार है-  
  
 
'तमुवाच सहस्त्राक्षो लवणो नाम राक्षस: मधुपुत्रो मधुवने न तेऽज्ञां कुरुतेऽनघ'<ref>वाल्मीकि रामायण उत्तर0 67,13</ref>  
 
'तमुवाच सहस्त्राक्षो लवणो नाम राक्षस: मधुपुत्रो मधुवने न तेऽज्ञां कुरुतेऽनघ'<ref>वाल्मीकि रामायण उत्तर0 67,13</ref>  
  
*विष्णुपुराण में भी [[यमुना नदी|यमुना]] तटवर्ती इस वन का वर्णन है-  
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*[[विष्णुपुराण]] में भी [[यमुना नदी|यमुना]] तटवर्ती इस वन का वर्णन है-  
 
 
'मधुसंज्ञ महापुण्यं जगाम यमुनातटम्, पुनश्च मधुसंज्ञेन दैत्यानाधिष्ठितं यत:,
 
  
ततो मधुवनं नाम्ना ख्यातमत्र महीतले'<ref> [[पुराण|विष्णुपुराण]] 1,12,2-3</ref>   
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<poem>'मधुसंज्ञ महापुण्यं जगाम यमुनातटम्, पुनश्च मधुसंज्ञेन दैत्यानाधिष्ठितं यत:,
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ततो मधुवनं नाम्ना ख्यातमत्र महीतले'<ref> [[पुराण|विष्णुपुराण]] 1,12,2-3</ref></poem>   
  
 
*विष्णुपुराण से सूचित होता है कि शत्रुघ्न ने मधुवन के स्थान पर नई नगरी बसाई थी-  
 
*विष्णुपुराण से सूचित होता है कि शत्रुघ्न ने मधुवन के स्थान पर नई नगरी बसाई थी-  
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'हत्वा च लवणं रक्षो मधुपुत्रं महाबलम्, शत्रुघ्नो मधुरां नाम पुरींयत्र चकार वै'<ref>विष्णुपुराण 1,12,4</ref>   
 
'हत्वा च लवणं रक्षो मधुपुत्रं महाबलम्, शत्रुघ्नो मधुरां नाम पुरींयत्र चकार वै'<ref>विष्णुपुराण 1,12,4</ref>   
  
*हरिवशंपुराण के अनुसार इस वन को शत्रुघ्न ने कटवा दिया था-  
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*[[हरिवंशपुराण]] के अनुसार इस वन को शत्रुघ्न ने कटवा दिया था-  
  
 
'छित्वा वनं तत् सौमित्रि....  <ref> [[पुराण|हरिवशंपुराण]] 1,54-55</ref>   
 
'छित्वा वनं तत् सौमित्रि....  <ref> [[पुराण|हरिवशंपुराण]] 1,54-55</ref>   
  
 
*पौराणिक कथा के अनुसार [[ध्रुव]] ने इसी वन में तपस्या की थी।
 
*पौराणिक कथा के अनुसार [[ध्रुव]] ने इसी वन में तपस्या की थी।
 
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*प्राचीन [[संस्कृत]] साहित्य में मधुवन को श्री[[कृष्ण]] की अनेक चंचल बाल-लीलाओं की क्रीड़ास्थली बताया गया है। यह [[गोकुल]] या [[वृन्दावन]] के निकट कोई वन था। आजकल मथुरा से साढ़े तीन मील दूर महोली मधुवन नामक एक ग्राम है। यह ब्रज के प्रसिद्ध बारह वनों में से एक है। मथुरा से लगभग साढ़े तीन मील दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित यह ग्राम वाल्मीकि रामायण में वर्णित मधुपुरी के स्थान पर बसा हुआ है। मधुपुरी को मधु नामक दैत्य ने बसाया था। उसके पुत्र लवणासुर को शत्रुघ्न ने युद्ध में पराजित कर उसका वध कर दिया था और मधुपुरी के स्थान पर उन्होंने नई मथुरा या मथुरा नगरी बसाई थी। महोली ग्राम को आजकल मधुवन-महोली कहते हैं। महोली मधुपुरी का अपभ्रंश है। लगभग 100 वर्ष पूर्व इस ग्राम से गौतम बुद्ध की एक मूर्ति मिली थी। इस कलाकृति में भगवान को परम कृशावस्था में प्रदर्शित किया गया है। यह उनकी उस समय की अवस्था का अंकन है जब बोधि गया में 6 वर्षों तक कठोर तपस्या करने के उपरांत उनके शरीर का केवल शरपंजन मात्र ही अवशिष्ट रह गया था। पारंपरिक अनुश्रुति में मधु दैत्य की मथुरा और उसका मधुवन इसी स्थान पर थे। यहाँ लवणासुर की गुफ़ा नामक एक स्थान है जिसे मधु के पुत्र लवणासुर का निवासस्थान माना जाता है।  
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प्राचीन [[संस्कृत साहित्य]] में मधुवन को [[कृष्ण]] की अनेक चंचल बाल-लीलाओं की क्रीड़ा-स्थली बताया गया है। यह [[गोकुल]] या [[वृन्दावन]] के निकट कोई वन था। आजकल मथुरा से साढ़े तीन मील दूर महोली मधुवन नामक एक ग्राम है। यह [[ब्रज]] के प्रसिद्ध बारह वनों में से एक है। मथुरा से लगभग साढ़े तीन मील दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित यह ग्राम वाल्मीकि रामायण में वर्णित मधुपुरी के स्थान पर बसा हुआ है। मधुपुरी को मधु नामक दैत्य ने बसाया था। उसके पुत्र लवणासुर को शत्रुघ्न ने युद्ध में पराजित कर उसका वध कर दिया था और मधुपुरी के स्थान पर उन्होंने नई मथुरा या मथुरा नगरी बसाई थी। महोली ग्राम को आजकल मधुवन-महोली कहते हैं। महोली मधुपुरी का अपभ्रंश है। लगभग 100 वर्ष पूर्व इस ग्राम से गौतम बुद्ध की एक मूर्ति मिली थी। इस कलाकृति में भगवान को परम कृशावस्था में प्रदर्शित किया गया है। यह उनकी उस समय की अवस्था का अंकन है, जब बोधि गया में 6 वर्षों तक कठोर तपस्या करने के उपरांत उनके शरीर का केवल शरपंजन मात्र ही अवशिष्ट रह गया था। पारंपरिक अनुश्रुति में मधु दैत्य की मथुरा और उसका मधुवन इसी स्थान पर थे। यहाँ लवणासुर की गुफ़ा नामक एक स्थान है, जिसे मधु के पुत्र लवणासुर का निवासस्थान माना जाता है।
 
==मधुवन-कथा==
 
==मधुवन-कथा==
 
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[[सत युग|सत्य युग]] में मधु नामक एक दैत्य का भगवान ने यहाँ वध किया था। इस कारण भगवान का नाम 'मधुसूदन' हो गया। अत: भगवान श्री मधुसूदन के नाम पर इस वन का नाम मधुवन पड़ा है, क्योंकि यह मधुवन भगवान श्री मधुसूदन के समान ही प्रिय एवं मधुर है। मधुसूदन का ही दूसरा नाम माधव है, क्योंकि ये सर्व लक्ष्मीमयी [[राधा|राधिका]] के प्रियतम या वल्लभ हैं। ये श्री माधव ही वन के अधिष्ठात [[देवता]] हैं। वन भ्रमण के समय यहाँ [[स्नान]] एवं आचमन के समय 'ओं ह्रां ह्रीं मधुवनाधिपतये माधवाय नम: स्वाहा' मन्त्र का जप करना चाहिए। इस [[मन्त्र]] के जप से यहाँ परिक्रमा सफल होती है। मधुवन का वर्तमान नाम महोली ग्राम है। ग्राम के पूर्व में ध्रुव टीला है, जिस पर बालक ध्रुव एवं उनके आराध्य चतुर्भुज [[नारायण]] का श्रीविग्रह विराजमान है। यही ध्रुव की तपस्यास्थली है। यहीं पर बालक ध्रुव ने देवर्षि [[नारद]] के दिये हुए मन्त्र के द्वारा भगवान की कठोर आराधना की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने उनको दर्शन दिया और छत्तीस हज़ार वर्ष का एकछत्र भूमण्डल का राज्य एवं तत्पश्चात अक्षय ध्रुवलोक प्रदान किया। ध्रुवलोक [[ब्रह्माण्ड]] के अन्तर्गत ही श्रीहरि का एक अक्षयधाम है।
[[सत युग|सत्य युग]] में मधु नामक एक दैत्य का भगवान ने यहाँ वध किया था। इस कारण भगवान का नाम मधुसूदन हो गया। अत: भगवान श्री मधुसूदन के नाम पर इस वन का नाम मधुवन पड़ा है, क्योंकि यह मधुवन भगवान श्री मधुसूदन के समान ही प्रिय एवं मधुर है। मधुसूदन का ही दूसरा नाम माधव है, क्योंकि ये सर्व लक्ष्मीमयी [[राधा|राधिका]] के प्रियतम या वल्लभ हैं। ये श्री माधव ही वन के अधिष्ठात देवता हैं। वन भ्रमण के समय यहाँ स्नान एवं आचमन के समय 'ओं ह्रां ह्रीं मधुवनाधिपतये माधवाय नम: स्वाहा' मन्त्र का जप करना चाहिए। इस मन्त्र के जप से यहाँ परिक्रमा सफल होती है। मधुवन का वर्तमान नाम महोली ग्राम है। ग्राम के पूर्व में ध्रुव टीला है। जिस पर बालक ध्रुव एवं उनके आराध्य चतुर्भुज नारायण का श्रीविग्रह विराजमान है। यही ध्रुव की तपस्यास्थली है। यहीं पर बालक ध्रुव ने देवर्षि नारद के दिये हुए मन्त्र के द्वारा भगवान की कठोर आराधना की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने उनको दर्शन दिया और छत्तीस हज़ार वर्ष का एकछत्र भूमण्डल का राज्य एवं तत्पश्चात अक्षय ध्रुवलोक प्रदान किया। ध्रुवलोक ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत ही श्रीहरि का एक अक्षयधाम है।
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====दैत्य मधु का अत्याचार====
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[[त्रेता युग]] में मधुदैत्य के अत्याचार से [[ऋषि]]–[[मुनि]] और यहाँ के निवासी बहुत भयभीत थे। उस दैत्य ने [[शंकर]] जी की कठोर आराधना कर उनसे एक शूल प्राप्त किया था। वह शूल उसके हाथों में रहने पर उसे [[देवता]], दानव अथवा मनुष्य कोई भी पराजित नहीं कर सकता था। वह [[सूर्यवंश]] का एक राजकुमार था, किन्तु कुसंगति में पड़कर बड़ा ही क्रूर और सदाचार विहीन हो गया। इसीलिए उसके [[पिता]] ने उसे त्यज्य पुत्र के रूप में अपने राज्य से निकाल दिया था। वह मधुवन में रहता था। मधुवन में एक नये राज्य की स्थापना कर वह सभी को उत्पीड़ित करने लगा। सूर्यवंश के महाप्रतापी राजा [[मांधाता]] ने उसे दण्ड देने के लिए उस पर आक्रमण किया, किन्तु मधु दैत्य के शंकर प्रदत्त शूल के द्वारा वे भी मारे गये। अपनी मृत्यु से पूर्व दैत्य ने उस शूल को अपने पुत्र [[लवणासुर]] को दिया और उससे कहा कि जब तक तेरे हाथों में यह शूल रहेगा, तुम्हें कोई नहीं मार सकता। शत्रु तुम्हारे इस अमोघ [[त्रिशूल]] के द्वारा मारा जायेगा। उस शूल को पाकर लवणासुर और भी भयंकर अत्याचारी हो गया। उसके अत्याचारों से त्रस्त होकर मधुवन के आस-पास के ऋषि महर्षि [[अयोध्या]] में श्री [[राम]] के समीप पहुँचे और दीन हीन होकर लवणासुर से अपनी रक्षा की प्रर्थना की। उन्होंने लवणासुर के पराक्रम एवं अमोद्य शूल के सम्बन्ध में भी सूचना दी। उन्होंने कहा कि वह उक्त शूलरहित अवस्था में ही मारा जा सकता है, अन्यथा वह अजेय है।
[[त्रेता युग]] में मधुदैत्य के अत्याचार से ऋषि–मुनि और यहाँ के निवासी बहुत भयभीत थे। उस दैत्य ने [[शंकर]] जी की कठोर आराधना कर उनसे एक शूल प्राप्त किया था। वह शूल उसके हाथों में रहने पर उसे [[देवता]], दानव अथवा मनुष्य कोई भी पराजित नहीं कर सकता था। वह [[सूर्यवंश]] का एक राजकुमार था। किन्तु कुसंगति में पड़कर बड़ा ही क्रूर और सदाचार विहीन हो गया। इसीलिए उसके पिता ने उसे त्यज्य पुत्र के रूप में अपने राज्य से निकाल दिया था। वह मधुवन में रहता था। मधुवन में एक नये राज्य की स्थापना कर वह सभी को उत्पीड़ित करने लगा। सूर्यवंश के महाप्रतापी राजा [[मांधाता]] ने उसे दण्ड देने के लिए उस पर आक्रमण किया, किन्तु मधु दैत्य के शंकर प्रदत्त शूल के द्वारा वे भी मारे गये। अपनी मृत्यु से पूर्व दैत्य ने उस शूल को अपने पुत्र [[लवणासुर]] को दिया और उससे कहा कि जब तक तेरे हाथों में यह शूल रहेगा, तुम्हें कोई नहीं मार सकता। शत्रु तुम्हारे इस अमोघ त्रिशूल के द्वारा मारा जायेगा। उस शूल को पाकर लवणासुर और भी भयंकर अत्याचारी हो गया। उसके अत्याचारों से त्रस्त होकर मधुवन के आस पास के ऋषि महर्षि [[अयोध्या]] में श्री [[राम]] के समीप पहुँचे और दीन हीन होकर लवणासुर से अपनी रक्षा की प्रर्थना की। उन्होंने लवणासुर के पराक्रम एवं अमोद्य शूल के सम्बन्ध में भी सूचना दी। उन्होंने कहा कि वह उक्त शूलरहित अवस्था में ही मारा जा सकता है, अन्यथा वह अजेय है ।
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====शत्रुघ्न का अभिषेक====
 
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भगवान श्रीरामचन्द्र ने अपने छोटे भाई [[शत्रुघ्न]] का अयोध्या में ही मधुवन के राजा के रूप में राजतिलक किया। शत्रुघ्न ने [[लंका]] से लाये हुये प्रभावशाली श्री [[वराह अवतार|वराह]] मूर्ति को [[पूजा]] के लिए माँगा। श्रीरामचन्द्र ने सहर्ष वह वराहमूर्ति शत्रुघ्नजी को प्रदान की। शत्रुघ्न ऋषि-महर्षियों के साथ [[वाल्मीकि]] ऋषि के आश्रम से होते हुए उनका आशीर्वाद लेकर मधुवन पहुँचे और धनुष–बाण के साथ लवणासुर की गुफ़ा के द्वार पर उस समय पहुँचे, जिस समय वह अपने शूल को गुफ़ा में रखकर शिकार के लिए जंगल में गया हुआ था। जब वह [[हाथी]] और बहुत से मृग आदि जानवरों का बध कर उन्हें लेकर अपने वासस्थान में लौट रहा था, उसी समय शत्रुघ्न जी ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। वह किसी प्रकार से अपना शूल लाने की चेष्टा कर रहा था, किन्तु, महापराक्रमी शत्रुघ्न ने उसे शूल ग्रहण करने का समय नहीं दिया और अपने पैने बाणों से उसका सिर काट दिया। फिर उन्होंने उजड़ी हुई मधुपुरी को पुन: बसाया और वहाँ भगवान वराह देव की स्थापना की। ये आदिवराहदेव [[मथुरा]] में उसी स्थान पर विराजमान हैं। मधुवन में भगवान माधव का प्रिय मधुकुण्ड भी है, अब इसे 'कृष्ण कुण्ड' भी कहते हैं। पास ही में लवणासुर की गुफ़ा है। यहीं कृष्ण कुण्ड के तट पर शत्रुघ्न का दर्शनीय श्रीविग्रह है।
भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने अपने छोटे भैया [[शत्रुघ्न]] जी को अयोध्या में ही मधुवन के राज्य का राजतिलक किया। शत्रुघ्न जी ने लंका से लाये हुये प्रभावशाली श्री वराह मूर्ति को पूजा के लिए माँगा। श्रीरामचन्द्र जी ने सहर्ष वह वराहमूर्ति शत्रुघ्नजी को प्रदान की। शत्रुघ्न जी ऋषि-महर्षियों के साथ [[वाल्मीकि]] ऋषि के आश्रम से होते हुए उनका आशीर्वाद लेकर मधुवन पहुँचे और धनुष–बाण के साथ लवणासुर की गुफ़ा के द्वार पर उस समय पहुँचे, जिस समय वह अपने शूल को गुफ़ा में रखकर शिकार के लिए जंगल में गया हुआ था। जब वह हाथी और बहुत से मृग आदि जानवरों का बध कर उन्हें लेकर अपने वासस्थान में लौट रहा था, उसी समय शत्रुघ्न जी ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। वह किसी प्रकार से अपना शूल लाने की चेष्टा कर रहा था। किन्तु, महापराक्रमी शत्रुघ्नजी ने उसे शूल ग्रहण करने का समय नहीं दिया और अपने पैने बाणों से उसका सिर काट दिया। फिर उन्होंने उजड़ी हुई मधुपुरी को पुन: बसाया और वहाँ भगवान वराहदेव की स्थापना की। ये आदिवराहदेव मथुरा में उसी स्थान पर विराजमान हैं। मधुवन में भगवान माधव का प्रिय मधुकुण्ड भी है, अब इसे कृष्णकुण्ड भी कहते हैं पास ही में लवणासुर की गुफ़ा है। यहीं कृष्णकुण्ड के तट पर भगवान शत्रुघ्नजी का दर्शनीय श्रीविग्रह है।
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==कृष्ण की क्रीड़ा-स्थली==
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[[चित्र:Dhruva-Kund-Madhuvan.jpg|[[ध्रुव]] कुण्ड, मधुवन<br />Dhruva Kund, Madhuvan|thumb|250px|left]]
 
[[चित्र:Dhruva-Kund-Madhuvan.jpg|[[ध्रुव]] कुण्ड, मधुवन<br />Dhruva Kund, Madhuvan|thumb|250px|left]]
द्वापर युग के अन्त में श्री [[कृष्ण]] लाखों गऊओं के पीछे उनका नाम धौली, धूमरी, [[कालिन्दी नदी|कालिन्दी]] आदि पुकारते हुए हियो–हियो, धीरी–धीरी, तीरी–तीरी ध्वनि करते हुए [[बलराम|दाऊ भैया]] के साथ मधुर [[बांसुरी]] बजाते सखाओं के कन्धे पर हाथ रखे हँसते–हँसाते हुए कभी कुञ्जों की ओर से ब्रजमणियों की ओर सतृष्ण नेत्रों से कटाक्षपात करते हुए गोचारण के लिए जाते। गोचारण में ग्वाल मण्डली में रसीली धूम मच जाती। इस प्रकार मधुवन में जहाँ तहाँ सर्वत्र ही प्रेम का मधु बरसता था। गोचारण करते हुए श्रीकृष्ण श्रीबलराम जी के साथ उस प्रेम मधु को पानकर निहाल हो उठते। ब्रज रमणियाँ गोष्ठ से निकलते एवं लौटते समय कुञ्जों की आड़ से, महलों की अटारियों और झरोखों से अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवनों से कृष्ण की [[आरती पूजन|आरती]] उतारती थीं। कृष्ण उसे नेत्रभंगी से स्वीकार करते। कृष्ण के विरह में ये ब्रजवधुएँ एक पल का समय भी करोड़ों युगों के समान और मिलन में एक युग का समय भी निमेष के समान अनुभव करती थीं।
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[[द्वापर युग]] के अन्त में श्री कृष्ण लाखों गऊओं के पीछे उनका नाम धौली, धूमरी, [[कालिन्दी नदी|कालिन्दी]] आदि पुकारते हुए हियो–हियो, धीरी–धीरी, तीरी–तीरी ध्वनि करते हुए [[बलराम]] के साथ मधुर [[बांसुरी]] बजाते सखाओं के कन्धे पर हाथ रखे हँसते–हँसाते हुए कभी कुञ्जों की ओर से ब्रजमणियों की ओर सतृष्ण नेत्रों से कटाक्षपात करते हुए गोचारण के लिए जाते थे। गोचारण में ग्वाल मण्डली में रसीली धूम मच जाती। इस प्रकार मधुवन में जहाँ तहाँ सर्वत्र ही प्रेम का मधु बरसता था। गोचारण करते हुए श्री कृष्ण बलराम के साथ उस प्रेम मधु को पाकर निहाल हो उठते। ब्रज रमणियाँ गोष्ठ से निकलते एवं लौटते समय कुञ्जों की आड़ से, महलों की अटारियों और झरोखों से अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवनों से कृष्ण की [[आरती पूजन|आरती]] उतारती थीं। कृष्ण उसे नेत्रभंगी से स्वीकार करते। कृष्ण के विरह में ये ब्रजवधुएँ एक पल का समय भी करोड़ों युगों के समान और मिलन में एक युग का समय भी निमेष के समान अनुभव करती थीं।
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मधुवन में गोचारण की लीला भी मधु के समान मधुर और वर्णनातीत है। कलियुग में अभी पाँच सौ पच्चीस वर्ष पूर्व श्री[[चैतन्य महाप्रभु]] जी वन भ्रमण के समय मधुवन में पधारे थे। यहाँ श्रीकृष्ण लीलाओं की स्फूर्ति से वे विहृल हो उठे। यहाँ पर प्रतिवर्ष बहुत सी यात्राएँ विश्राम करती हैं।
 
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ऐसी किंवदन्ती है कि दाऊजी यहाँ मधुपानकर सखाओं के साथ नृत्य करते थे। आज भी यहाँ काले दाऊजी का विग्रह दर्शनीय है। इसका गूढ़ रहस्य यह है कि श्रीकृष्ण बलदेव वृन्दावन और मथुरा को छोड़कर द्वारका में परिजनों के साथ वास करने लगे। उस समय ब्रज एवं ब्रजवासियों का श्रीकृष्ण विरह से व्याकुलता की बात सुनकर बलदेव जी ने कृष्ण को साथ लेकर ब्रज में जाने की इच्छा व्यक्त की। किन्तु किसी कारण से श्री कृष्ण के जाने में विलम्ब देखकर वे अकेले ही ब्रज में पधारे और सबको यथा साध्य सांत्वना देने की चेष्टा की किन्तु ब्रजवासियों की विरह दशा देखकर स्वयं भी कृष्ण विरह में कातर हो गये। कृष्ण की ब्रजलीलाओं का चिन्तन करते हुए श्यामरस पान करते हुए एवं श्याम की चिन्ता करते हुए, स्वयं श्याम अंगकान्ति वाले हो गये। यह श्यामरस ही मधु है, जिसे बलदेव सतत पानकर कृष्ण प्रेम में विभोर रहते हैं।
 
  
{{संदर्भ ग्रंथ}}
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मधुवन में गोचारण की लीला भी मधु के समान मधुर और वर्णनातीत है। कलियुग में अभी पाँच सौ पच्चीस वर्ष पूर्व [[चैतन्य महाप्रभु]] वन भ्रमण के समय मधुवन में पधारे थे। यहाँ श्री कृष्ण लीलाओं की स्फूर्ति से वे भाव-विहृल हो उठे। यहाँ पर प्रतिवर्ष बहुत सी यात्राएँ विश्राम करती हैं।
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====मान्यताएँ====
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ऐसी किंवदन्ती है कि दाऊजी यहाँ मधुपानकर सखाओं के साथ नृत्य करते थे। आज भी यहाँ काले दाऊजी का विग्रह दर्शनीय है। इसका गूढ़ रहस्य यह है कि श्री कृष्ण [[बलदेव मथुरा|बलदेव]], [[वृन्दावन]] और [[मथुरा]] को छोड़कर [[द्वारका]] में परिजनों के साथ वास करने लगे। उस समय [[ब्रज]] एवं ब्रजवासियों का श्री कृष्ण विरह से व्याकुलता की बात सुनकर बलदेव जी ने कृष्ण को साथ लेकर ब्रज में जाने की इच्छा व्यक्त की। किन्तु किसी कारण से श्री कृष्ण के जाने में विलम्ब देखकर वे अकेले ही ब्रज में पधारे और सबको यथा साध्य सांत्वना देने की चेष्टा की, किन्तु ब्रजवासियों की विरह दशा देखकर स्वयं भी कृष्ण विरह में कातर हो गये। कृष्ण की ब्रजलीलाओं का चिन्तन करते हुए श्यामरस पान करते हुए एवं श्याम की चिन्ता करते हुए, स्वयं श्याम अंगकान्ति वाले हो गये। यह श्यामरस ही मधु है, जिसे बलदेव सतत पानकर कृष्ण प्रेम में विभोर रहते हैं।
  
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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[[Category:पर्यटन कोश]]  
 
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Revision as of 09:23, 12 April 2012

[[chitr:Dhruva-Temple-Madhuvan.jpg|dhruv ji mandir, madhuvan
Dhruva Ji Temple, Madhuvan|thumb|250px]] madhuvan madhupuri ya mathura ke pas sthit ek van tha, jisaka svami madhu nam ka daity tha. madhu ke putr lavanasur ko ayodhya ke raja dasharath ke putr tatha shri ram ke bhaee shatrughn ne vijit kiya tha. mathura se lagabhag sadhe tin mil dakshin-pashchim ki or sthit yah gram valmiki ramayan mean varnit madhupuri ke sthan par basa hua hai. madhupuri ko madhu namak daity ne basaya tha. usake putr lavanasur ko shatrughn ne yuddh mean parajit kar usaka vadh kar diya aur madhupuri ke sthan par unhoanne nee mathura nagari ki sthapana ki. maholi gram ko ajakal madhuvan-maholi kahate haian. maholi madhupuri ka hi apabhransh hai. lagabhag 100 varsh poorv is gram se gautam buddh ki ek moorti mili thi. is kalakriti mean bhagavan ko paramakrishavastha mean pradarshit kiya gaya hai. yah unaki us samay ki avastha ka aankan hai jab bodh gaya mean 6 varshoan tak kathor tapasya karane ke uparaant unake sharir ka keval sharapanjan matr hi avashisht rah gaya tha.

pauranik ullekh

madhuvan se sambandhit kee pauranik ullekh prapt hote haian-

'tamuvach sahastraksho lavano nam rakshas: madhuputro madhuvane n teajnaan kuruteanagh'[1]

'madhusanjn mahapunyan jagam yamunatatamh, punashch madhusanjnen daityanadhishthitan yat:,
tato madhuvanan namna khyatamatr mahitale'[2]

  • vishnupuran se soochit hota hai ki shatrughn ne madhuvan ke sthan par nee nagari basaee thi-

'hatva ch lavanan raksho madhuputran mahabalamh, shatrughno madhuraan nam purianyatr chakar vai'[3]

'chhitva vanan tath saumitri.... [4]

  • pauranik katha ke anusar dhruv ne isi van mean tapasya ki thi.

prachin sanskrit sahity mean madhuvan ko krishna ki anek chanchal bal-lilaoan ki kri da-sthali bataya gaya hai. yah gokul ya vrindavan ke nikat koee van tha. ajakal mathura se sadhe tin mil door maholi madhuvan namak ek gram hai. yah braj ke prasiddh barah vanoan mean se ek hai. mathura se lagabhag sadhe tin mil dakshin-pashchim ki or sthit yah gram valmiki ramayan mean varnit madhupuri ke sthan par basa hua hai. madhupuri ko madhu namak daity ne basaya tha. usake putr lavanasur ko shatrughn ne yuddh mean parajit kar usaka vadh kar diya tha aur madhupuri ke sthan par unhoanne nee mathura ya mathura nagari basaee thi. maholi gram ko ajakal madhuvan-maholi kahate haian. maholi madhupuri ka apabhransh hai. lagabhag 100 varsh poorv is gram se gautam buddh ki ek moorti mili thi. is kalakriti mean bhagavan ko param krishavastha mean pradarshit kiya gaya hai. yah unaki us samay ki avastha ka aankan hai, jab bodhi gaya mean 6 varshoan tak kathor tapasya karane ke uparaant unake sharir ka keval sharapanjan matr hi avashisht rah gaya tha. paranparik anushruti mean madhu daity ki mathura aur usaka madhuvan isi sthan par the. yahaan lavanasur ki gufa namak ek sthan hai, jise madhu ke putr lavanasur ka nivasasthan mana jata hai.

madhuvan-katha

saty yug mean madhu namak ek daity ka bhagavan ne yahaan vadh kiya tha. is karan bhagavan ka nam 'madhusoodan' ho gaya. at: bhagavan shri madhusoodan ke nam par is van ka nam madhuvan p da hai, kyoanki yah madhuvan bhagavan shri madhusoodan ke saman hi priy evan madhur hai. madhusoodan ka hi doosara nam madhav hai, kyoanki ye sarv lakshmimayi radhika ke priyatam ya vallabh haian. ye shri madhav hi van ke adhishthat devata haian. van bhraman ke samay yahaan snan evan achaman ke samay 'oan hraan hrian madhuvanadhipataye madhavay nam: svaha' mantr ka jap karana chahie. is mantr ke jap se yahaan parikrama saphal hoti hai. madhuvan ka vartaman nam maholi gram hai. gram ke poorv mean dhruv tila hai, jis par balak dhruv evan unake aradhy chaturbhuj narayan ka shrivigrah virajaman hai. yahi dhruv ki tapasyasthali hai. yahian par balak dhruv ne devarshi narad ke diye hue mantr ke dvara bhagavan ki kathor aradhana ki thi, jisase prasann hokar bhagavan ne unako darshan diya aur chhattis hazar varsh ka ekachhatr bhoomandal ka rajy evan tatpashchat akshay dhruvalok pradan kiya. dhruvalok brahmand ke antargat hi shrihari ka ek akshayadham hai.

daity madhu ka atyachar

treta yug mean madhudaity ke atyachar se rrishimuni aur yahaan ke nivasi bahut bhayabhit the. us daity ne shankar ji ki kathor aradhana kar unase ek shool prapt kiya tha. vah shool usake hathoan mean rahane par use devata, danav athava manushy koee bhi parajit nahian kar sakata tha. vah sooryavansh ka ek rajakumar tha, kintu kusangati mean p dakar b da hi kroor aur sadachar vihin ho gaya. isilie usake pita ne use tyajy putr ke roop mean apane rajy se nikal diya tha. vah madhuvan mean rahata tha. madhuvan mean ek naye rajy ki sthapana kar vah sabhi ko utpi dit karane laga. sooryavansh ke mahapratapi raja maandhata ne use dand dene ke lie us par akraman kiya, kintu madhu daity ke shankar pradatt shool ke dvara ve bhi mare gaye. apani mrityu se poorv daity ne us shool ko apane putr lavanasur ko diya aur usase kaha ki jab tak tere hathoan mean yah shool rahega, tumhean koee nahian mar sakata. shatru tumhare is amogh trishool ke dvara mara jayega. us shool ko pakar lavanasur aur bhi bhayankar atyachari ho gaya. usake atyacharoan se trast hokar madhuvan ke as-pas ke rrishi maharshi ayodhya mean shri ram ke samip pahuanche aur din hin hokar lavanasur se apani raksha ki prarthana ki. unhoanne lavanasur ke parakram evan amody shool ke sambandh mean bhi soochana di. unhoanne kaha ki vah ukt shoolarahit avastha mean hi mara ja sakata hai, anyatha vah ajey hai.

shatrughn ka abhishek

bhagavan shriramachandr ne apane chhote bhaee shatrughn ka ayodhya mean hi madhuvan ke raja ke roop mean rajatilak kiya. shatrughn ne lanka se laye huye prabhavashali shri varah moorti ko pooja ke lie maanga. shriramachandr ne saharsh vah varahamoorti shatrughnaji ko pradan ki. shatrughn rrishi-maharshiyoan ke sath valmiki rrishi ke ashram se hote hue unaka ashirvad lekar madhuvan pahuanche aur dhanush–ban ke sath lavanasur ki gufa ke dvar par us samay pahuanche, jis samay vah apane shool ko gufa mean rakhakar shikar ke lie jangal mean gaya hua tha. jab vah hathi aur bahut se mrig adi janavaroan ka badh kar unhean lekar apane vasasthan mean laut raha tha, usi samay shatrughn ji ne use yuddh ke lie lalakara. donoan mean bhayankar yuddh chhi d gaya. vah kisi prakar se apana shool lane ki cheshta kar raha tha, kintu, mahaparakrami shatrughn ne use shool grahan karane ka samay nahian diya aur apane paine banoan se usaka sir kat diya. phir unhoanne uj di huee madhupuri ko pun: basaya aur vahaan bhagavan varah dev ki sthapana ki. ye adivarahadev mathura mean usi sthan par virajaman haian. madhuvan mean bhagavan madhav ka priy madhukund bhi hai, ab ise 'krishna kund' bhi kahate haian. pas hi mean lavanasur ki gufa hai. yahian krishna kund ke tat par shatrughn ka darshaniy shrivigrah hai.

krishna ki kri da-sthali

[[chitr:Dhruva-Kund-Madhuvan.jpg|dhruv kund, madhuvan
Dhruva Kund, Madhuvan|thumb|250px|left]] dvapar yug ke ant mean shri krishna lakhoan goooan ke pichhe unaka nam dhauli, dhoomari, kalindi adi pukarate hue hiyo–hiyo, dhiri–dhiri, tiri–tiri dhvani karate hue balaram ke sath madhur baansuri bajate sakhaoan ke kandhe par hath rakhe hansate–hansate hue kabhi kunjoan ki or se brajamaniyoan ki or satrishn netroan se katakshapat karate hue gocharan ke lie jate the. gocharan mean gval mandali mean rasili dhoom mach jati. is prakar madhuvan mean jahaan tahaan sarvatr hi prem ka madhu barasata tha. gocharan karate hue shri krishna balaram ke sath us prem madhu ko pakar nihal ho uthate. braj ramaniyaan goshth se nikalate evan lautate samay kunjoan ki a d se, mahaloan ki atariyoan aur jharokhoan se apani premabhari tirachhi chitavanoan se krishna ki arati utarati thian. krishna use netrabhangi se svikar karate. krishna ke virah mean ye brajavadhuean ek pal ka samay bhi karo doan yugoan ke saman aur milan mean ek yug ka samay bhi nimesh ke saman anubhav karati thian.

madhuvan mean gocharan ki lila bhi madhu ke saman madhur aur varnanatit hai. kaliyug mean abhi paanch sau pachchis varsh poorv chaitany mahaprabhu van bhraman ke samay madhuvan mean padhare the. yahaan shri krishna lilaoan ki sphoorti se ve bhav-vihril ho uthe. yahaan par prativarsh bahut si yatraean vishram karati haian.

manyataean

aisi kianvadanti hai ki daooji yahaan madhupanakar sakhaoan ke sath nrity karate the. aj bhi yahaan kale daooji ka vigrah darshaniy hai. isaka goodh rahasy yah hai ki shri krishna baladev, vrindavan aur mathura ko chho dakar dvaraka mean parijanoan ke sath vas karane lage. us samay braj evan brajavasiyoan ka shri krishna virah se vyakulata ki bat sunakar baladev ji ne krishna ko sath lekar braj mean jane ki ichchha vyakt ki. kintu kisi karan se shri krishna ke jane mean vilamb dekhakar ve akele hi braj mean padhare aur sabako yatha sadhy saantvana dene ki cheshta ki, kintu brajavasiyoan ki virah dasha dekhakar svayan bhi krishna virah mean katar ho gaye. krishna ki brajalilaoan ka chintan karate hue shyamaras pan karate hue evan shyam ki chinta karate hue, svayan shyam aangakanti vale ho gaye. yah shyamaras hi madhu hai, jise baladev satat panakar krishna prem mean vibhor rahate haian.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

  1. valmiki ramayan uttar0 67,13
  2. vishnupuran 1,12,2-3
  3. vishnupuran 1,12,4
  4. harivashanpuran 1,54-55

sanbandhit lekh