शबरी के बेर: Difference between revisions

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शबरी जाति की भीलनी का नाम था श्रमणा। बाल्यकाल से ही वह भगवान श्री[[राम]] की अनन्य [[भक्त]] थी। उसे जब भी समय मिलता, वह भगवान की सेवा−पूजा करती। घर वालों को उसका व्यवहार अच्छा नहीं लगता। बड़ी होने पर श्रमणा का विवाह हो गया। पर अफ़सोस, उसके मन के अनुरूप कुछ भी नहीं मिला। उसका पति भी उसके मन के अनुसार नहीं था। यहाँ के लोग अत्यंत अनाचारी−दुराचारी थे। हर समय लूट−मार तथा हत्या के काम में लिप्त रहते। श्रमणा का उनसे अक्सर झगड़ा होता रहता था। इस गन्दे माहौल में श्रमणा जैसी सात्विक स्त्री का रहना बड़ा कष्टकर हो गया था। वह इस वातावरण से निकल भागना चाहती थी। वह किसके पास जाकर आश्रय के लिए शरण मांगे! यह भी एक समस्या थी। आख़िर काफ़ी सोच−विचार के बाद उसने मतंग ऋषि के आश्रम में रहने का निश्चय किया।


==शबरी के बेर / Shabri ke Beer==
मौक़ा पाकर वह ऋषि के आश्रम में पहुंची। अछूत होने के कारण वह आश्रम के अंदर प्रवेश करने का साहस नहीं जुटा सकी और वहीं दरवाज़े के पास गठरी−सी बनी बैठ गई। क़ाफी देर बाद उस स्थान पर मतंग ऋषि आए। श्रमणा को देखकर चौंक पड़े। श्रमणा से आने का कारण पूछा। उसने बहुत ही नम्र स्वर में अपने आने का कारण बताया। मतंग ऋषि सोच में पड़ गए। काफ़ी देर बाद उन्होंने श्रमणा को अपने आश्रम में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। श्रमणा अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई। इस बीच जब उसके पति को पता चला कि वह मतंग ऋषि के आश्रम में रह रही है तो वह आग−बबूला हो गया। श्रमणा को आश्रम से उठा लाने के लिए वह अपने कुछ हथियारबंद साथियों को लेकर चल पड़ा। मतंग ऋषि को इसके बारे में पता चल गया। श्रमणा दोबारा उस वातावरण में नहीं जाना चाहती थी। उसने करुण दृष्टि से ऋषि की ओर देखा। ऋषि ने फौरन उसके चारों ओर [[अग्निदेव|अग्नि]] पैदा कर दी। जैसे ही उसका पति आगे बढ़ा, उस आग को देखकर डर गया और वहां से भाग खड़ा हुआ। इस घटना के बाद उसने फिर कभी श्रमणा की तरफ क़दम नहीं बढ़ाया। दिन गुजरते रहे।
शबरी जाति की भीलनी का नाम था श्रमणा। बाल्यकाल से ही वह भगवान श्री[[राम]] की अनन्य भक्त थी। उसे जब भी समय मिलता, वह भगवान की सेवा−पूजा करती। घर वालों को उसका व्यवहार अच्छा नहीं लगता। बड़ी होने पर श्रमणा का विवाह हो गया। पर अफसोस, उसके मन के अनुरूप कुछ भी नहीं मिला। उसका पति भी उसके मन के अनुसार नहीं था। यहां के लोग अत्यंत अनाचारी−दुराचारी थे। हर समय लूट−मार तथा हत्या के काम में लिप्त रहते। श्रमणा का उनसे अक्सर झगड़ा होता रहता था। इस गन्दे माहौल में श्रमणा जैसी सात्विक स्त्री का रहना बड़ा कष्टकर हो गया था। वह इस वातावरण से निकल भागना चाहती थी। वह किसके पास जाकर आश्रय के लिए शरण मांगे! यह भी एक समस्या थी। आखिर काफी सोच−विचार के बाद उसने मतंग ऋषि के आश्रम में रहने का निश्चय किया।
भगवान श्रीराम [[सीता]] की खोज में मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे। मतंग ने उन्हें पहचान लिया। उन्होंने दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार किया। श्रमणा को बुलाकर कहा, 'श्रमणा! जिस राम की तुम बचपन से सेवा−पूजा करती आ रही थीं, वही राम आज साक्षात तुम्हारे सामने खड़े हैं। मन भरकर इनकी सेवा कर लो।' श्रमणा भागकर कंद−मूल लेने गई। कुछ क्षण बाद वह लौटी। कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी। कंद−मूलों को उसने श्री भगवान के अर्पण कर दिया। पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी। कहीं बेर ख़राब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था।
 
मौका पाकर वह ऋषि के आश्रम में पहुंची। अछूत होने के कारण वह आश्रम के अंदर प्रवेश करने का साहस नहीं जुटा सकी और वहीं दरवाजे के पास गठरी−सी बनी बैठ गई। क़ाफी देर बाद उस स्थान पर मतंग ऋषि आए। श्रमणा को देखकर चौंक पड़े। श्रमणा से आने का कारण पूछा। उसने बहुत ही नम्र स्वर में अपने आने का कारण बताया। मतंग ऋषि सोच में पड़ गए। काफी देर बाद उन्होंने श्रमणा को अपने आश्रम में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। श्रमणा अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई। इस बीच जब उसके पति को पता चला कि वह मतंग ऋषि के आश्रम में रह रही है तो वह आग−बबूला हो गया। श्रमणा को आश्रम से उठा लाने के लिए वह अपने कुछ हथियारबंद साथियों को लेकर चल पड़ा। मतंग ऋषि को इसके बारे में पता चल गया। श्रमणा दोबारा उस वातावरण में नहीं जाना चाहती थी। उसने करूण दृष्टि से ऋषि की ओर देखा। ऋषि ने फौरन उसके चारों ओर [[अग्नि]] पैदा कर दी। जैसे ही उसका पति आगे बढ़ा, उस आग को देखकर डर गया और वहां से भाग खड़ा हुआ। इस घटना के बाद उसने फिर कभी श्रमणा की तरफ कदम नहीं बढ़ाया। दिन गुजरते रहे।
भगवान श्रीराम [[सीता]] की खोज में मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे। मतंग ने उन्हें पहचान लिया। उन्होंने दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार किया। श्रमणा को बुलाकर कहा, 'श्रमणा! जिस राम की तुम बचपन से सेवा−पूजा करती आ रही थीं, वही राम आज साक्षात तुम्हारे सामने खड़े हैं। मन भरकर इनकी सेवा कर लो।' श्रमणा भागकर कंद−मूल लेने गई। कुछ क्षण बाद वह लौटी। कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी। कंद−मूलों को उसने श्री भगवान के अर्पण कर दिया। पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी। कहीं बेर खराब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था।


उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया। अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी। श्रीराम उसकी सरलता पर मुग्ध थे। उन्होंने बड़े प्रेम से जूठे बेर खाए। श्रीराम की कृपा से श्रमणा का उद्धार हो गया। वह स्वर्ग गई।
उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया। अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी। श्रीराम उसकी सरलता पर मुग्ध थे। उन्होंने बड़े प्रेम से जूठे बेर खाए। श्रीराम की कृपा से श्रमणा का उद्धार हो गया। वह स्वर्ग गई।


यही श्रमणा रामायण में शबरी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
यही श्रमणा रामायण में शबरी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 05:26, 10 December 2012

शबरी जाति की भीलनी का नाम था श्रमणा। बाल्यकाल से ही वह भगवान श्रीराम की अनन्य भक्त थी। उसे जब भी समय मिलता, वह भगवान की सेवा−पूजा करती। घर वालों को उसका व्यवहार अच्छा नहीं लगता। बड़ी होने पर श्रमणा का विवाह हो गया। पर अफ़सोस, उसके मन के अनुरूप कुछ भी नहीं मिला। उसका पति भी उसके मन के अनुसार नहीं था। यहाँ के लोग अत्यंत अनाचारी−दुराचारी थे। हर समय लूट−मार तथा हत्या के काम में लिप्त रहते। श्रमणा का उनसे अक्सर झगड़ा होता रहता था। इस गन्दे माहौल में श्रमणा जैसी सात्विक स्त्री का रहना बड़ा कष्टकर हो गया था। वह इस वातावरण से निकल भागना चाहती थी। वह किसके पास जाकर आश्रय के लिए शरण मांगे! यह भी एक समस्या थी। आख़िर काफ़ी सोच−विचार के बाद उसने मतंग ऋषि के आश्रम में रहने का निश्चय किया।

मौक़ा पाकर वह ऋषि के आश्रम में पहुंची। अछूत होने के कारण वह आश्रम के अंदर प्रवेश करने का साहस नहीं जुटा सकी और वहीं दरवाज़े के पास गठरी−सी बनी बैठ गई। क़ाफी देर बाद उस स्थान पर मतंग ऋषि आए। श्रमणा को देखकर चौंक पड़े। श्रमणा से आने का कारण पूछा। उसने बहुत ही नम्र स्वर में अपने आने का कारण बताया। मतंग ऋषि सोच में पड़ गए। काफ़ी देर बाद उन्होंने श्रमणा को अपने आश्रम में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। श्रमणा अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई। इस बीच जब उसके पति को पता चला कि वह मतंग ऋषि के आश्रम में रह रही है तो वह आग−बबूला हो गया। श्रमणा को आश्रम से उठा लाने के लिए वह अपने कुछ हथियारबंद साथियों को लेकर चल पड़ा। मतंग ऋषि को इसके बारे में पता चल गया। श्रमणा दोबारा उस वातावरण में नहीं जाना चाहती थी। उसने करुण दृष्टि से ऋषि की ओर देखा। ऋषि ने फौरन उसके चारों ओर अग्नि पैदा कर दी। जैसे ही उसका पति आगे बढ़ा, उस आग को देखकर डर गया और वहां से भाग खड़ा हुआ। इस घटना के बाद उसने फिर कभी श्रमणा की तरफ क़दम नहीं बढ़ाया। दिन गुजरते रहे। भगवान श्रीराम सीता की खोज में मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे। मतंग ने उन्हें पहचान लिया। उन्होंने दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार किया। श्रमणा को बुलाकर कहा, 'श्रमणा! जिस राम की तुम बचपन से सेवा−पूजा करती आ रही थीं, वही राम आज साक्षात तुम्हारे सामने खड़े हैं। मन भरकर इनकी सेवा कर लो।' श्रमणा भागकर कंद−मूल लेने गई। कुछ क्षण बाद वह लौटी। कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी। कंद−मूलों को उसने श्री भगवान के अर्पण कर दिया। पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी। कहीं बेर ख़राब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था।

उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया। अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी। श्रीराम उसकी सरलता पर मुग्ध थे। उन्होंने बड़े प्रेम से जूठे बेर खाए। श्रीराम की कृपा से श्रमणा का उद्धार हो गया। वह स्वर्ग गई।

यही श्रमणा रामायण में शबरी के नाम से प्रसिद्ध हुई।

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