अल्ताफ़ हुसैन हाली का योगदान: Difference between revisions
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सन [[1874]] में [[अल्ताफ़ हुसैन हाली]] रोजगार के लिए [[लाहौर]] जाकर पंजाब बुक डिपो से जुड़ गए थे। हाली के जीवन में असल परिवर्तन यहीं से हुआ था। वे नए ढंग से सोचन लगे। यह कहना | सन [[1874]] में [[अल्ताफ़ हुसैन हाली]] रोजगार के लिए [[लाहौर]] जाकर पंजाब बुक डिपो से जुड़ गए थे। हाली के जीवन में असल परिवर्तन यहीं से हुआ था। वे नए ढंग से सोचन लगे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हाली में इसके बाद ही [[उर्दू साहित्य]] में बदलाव की क्षमता का विकास हुआ। लाहौर में हाली की मुलाकात कर्नल हौल राइट से हुई। कर्नल हौल राइट एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनका हाली पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कर्नल हौल राइट का प्रभाव न केवल हाली पर बल्कि पूरे उर्दू साहित्य जगत पर पड़ा। अपने लाहौर निवास के दौरान कर्नल हौल राइट ने ऐसे मुशायरों की शुरूआत की जो किसी खास विषय पर आधारित होते थे। इस विषय से संबंधित कविताएं ही इनमें पढ़ी जाती थीं। इन मुशायरों का प्रभाव यह पड़ा कि उर्दू साहित्य [[ग़ज़ल]] विधा के दायरे से बाहर निकला और बहुत शानदार कविताओं की रचना [[उर्दू]] में होने लगी। उर्दू में अभी तक ग़ज़ल ही सर्वाधिक लोकप्रिय विधा थी और इसके प्रति यहां तक मोह था कि ग़ज़ल को ही वास्तविक साहित्य माना जाता था। ग़ज़लकारों को जितने सम्मान से देखा जाता था अन्य साहित्यिक विधाओं को उतना मान प्राप्त नहीं था। | ||
==अवाम की आवाज़== | ==अवाम की आवाज़== | ||
[[1874]] में ‘बरखा रुत’ शीर्षक पर मुशायरा हुआ, जिसमें [[अल्ताफ़ हुसैन हाली]] ने अपनी [[कविता]] पढ़ी। यह कविता हाली के लिए और उर्दू साहित्य में सही मायने में इंकलाब की शुरुआत थी। साहित्य-जगत में व इससे इतर समाज में यह [[कविता]] इतनी पसन्द की गई कि इसकी प्रशंसा में सालों साल तक [[समाचार पत्र|अखबारों]] में लेख व टिप्पणियां छपती रहीं। अब हाली का नाम उर्दू में आदर से लिया जाने लगा था। जिस तरह इस कविता की प्रशंसा हुई, उससे यह साफ पता चलता है कि आम जनता में इस तरह की कविता के लिए जगह थी। हाली ने लोगों की इच्छाओं को अपनी [[कविता]] में स्थान दिया। हाली की आवाज़ असल में अवाम की आवाज़ थी। हाली ने अपनी कविताओं में ऐसे विषय उठाए, जिनकी समाज ज़रूरत महसूस करता था, परन्तु तत्कालीन साहित्यकार उनको या तो कविता के लायक नहीं समझते थे या फिर उनमें स्वयं उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हाली ने जिस तरह पीड़ित-मेहनतकश जनता की दृष्टि से विषयों को प्रस्तुत किया, वह उन्हें जनता का लाडला शायर बना देती है। उनकी कविताएं जनता की सलाहकार भी थीं, समाज सुधारक भी, दु:ख-दर्द की साथी भी। उनकी वाणी जनता को अपनी वाणी लगती थी। | [[1874]] में ‘बरखा रुत’ शीर्षक पर मुशायरा हुआ, जिसमें [[अल्ताफ़ हुसैन हाली]] ने अपनी [[कविता]] पढ़ी। यह कविता हाली के लिए और उर्दू साहित्य में सही मायने में इंकलाब की शुरुआत थी। साहित्य-जगत में व इससे इतर समाज में यह [[कविता]] इतनी पसन्द की गई कि इसकी प्रशंसा में सालों साल तक [[समाचार पत्र|अखबारों]] में लेख व टिप्पणियां छपती रहीं। अब हाली का नाम उर्दू में आदर से लिया जाने लगा था। जिस तरह इस कविता की प्रशंसा हुई, उससे यह साफ पता चलता है कि आम जनता में इस तरह की कविता के लिए जगह थी। हाली ने लोगों की इच्छाओं को अपनी [[कविता]] में स्थान दिया। हाली की आवाज़ असल में अवाम की आवाज़ थी। हाली ने अपनी कविताओं में ऐसे विषय उठाए, जिनकी समाज ज़रूरत महसूस करता था, परन्तु तत्कालीन साहित्यकार उनको या तो कविता के लायक नहीं समझते थे या फिर उनमें स्वयं उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हाली ने जिस तरह पीड़ित-मेहनतकश जनता की दृष्टि से विषयों को प्रस्तुत किया, वह उन्हें जनता का लाडला शायर बना देती है। उनकी कविताएं जनता की सलाहकार भी थीं, समाज सुधारक भी, दु:ख-दर्द की साथी भी। उनकी वाणी जनता को अपनी वाणी लगती थी। |
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अल्ताफ़ हुसैन हाली का योगदान
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पूरा नाम | अल्ताफ़ हुसैन हाली |
जन्म | 11 नवम्बर, 1837 |
जन्म भूमि | पानीपत |
मृत्यु | 30 सितम्बर, 1914 |
अभिभावक | पिता- ईजद बख्श, माता- इमता-उल-रसूल |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | उर्दू साहित्य |
मुख्य रचनाएँ | 'मुसद्दस-ए-हाली', 'यादगार-ए-हाली', 'हयात-ए-हाली', 'हयात-ए-जावेद' आदि। |
प्रसिद्धि | उर्दू शायर, साहित्यकार |
नागरिकता | भारतीय |
सक्रिय काल | 1860–1914 |
अन्य जानकारी | अल्ताफ़ हुसैन हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन जीने के ढंग में बड़ा अन्तर था। पाखण्ड की कड़ी आलोचना करते हुए हाली एक पक्के मुसलमान का जीवन जीते थे। मिर्ज़ा ग़ालिब ने शायद ही कभी नमाज़ पढ़ी हो। मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रति हाली के दिल में बहुत आदर-सम्मान था। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
अल्ताफ़ हुसैन हाली का नाम उर्दू साहित्य में बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है। वे सर सैयद अहमद ख़ान साहब के प्रिय मित्र व अनुयायी थे। हाली ने मुस्लिम समाज को एकरूपता में नहीं, बल्कि उसके विभिन्न वर्गों व विभिन्न परतों को पहचाना। हाली की खासियत थी कि वे समाज को केवल सामान्यीकरण में नहीं, बल्कि उसकी विशिष्टता में पहचानते थे। हाली जी ने उर्दू में प्रचलित परम्परा से हटकर ग़ज़ल, नज़्म, रुबाईया व मर्सिया आदि लिखे हैं। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी सहित कई किताबें भी लिखी हैं।
योगदान
अल्ताफ़ हुसैन हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे, जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं, जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं, जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने साहित्य में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा। ‘मर्सिया हकीम महमूद खां मरहम ‘देहलवी’ में हाली ने उस दौर की चाटुकार-साहित्य परम्परा से अपने को अलगाते हुए लिखा कि-
सुनते हैं ‘हाली’ सुखन में थी बहुत वुसअत कभी
थीं सुख़नवर के लिए चारों तरफ राहें खुली
दास्तां कोई बयाँ करता था हुस्नो इश्क की
और तसव्वुफ का सुखन में रंग भरता था कोई
गाह ग़ज़लें लिख के दिल यारों के गर्माते थे लोग
गाहक़सीदे पढ़ के खिलअत और सिले पाते थे लोग
पर मिली हमको मजाले नग़मा इस महफ़िल में कम
रागिनी ने वक्त की लेने दिया हम को न दम
नालओ फ़रियाद का टूटा कहीं जा कर न सम
कोई याँ रंगीं तराना छेड़ने पाये न हम
सीना कोबी में रहे जब तक के दम में दम रहा
हम रहे और कौम के इक़बाल का मातम रहा
उर्दू साहित्य जगत पर प्रभाव
सन 1874 में अल्ताफ़ हुसैन हाली रोजगार के लिए लाहौर जाकर पंजाब बुक डिपो से जुड़ गए थे। हाली के जीवन में असल परिवर्तन यहीं से हुआ था। वे नए ढंग से सोचन लगे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हाली में इसके बाद ही उर्दू साहित्य में बदलाव की क्षमता का विकास हुआ। लाहौर में हाली की मुलाकात कर्नल हौल राइट से हुई। कर्नल हौल राइट एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनका हाली पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कर्नल हौल राइट का प्रभाव न केवल हाली पर बल्कि पूरे उर्दू साहित्य जगत पर पड़ा। अपने लाहौर निवास के दौरान कर्नल हौल राइट ने ऐसे मुशायरों की शुरूआत की जो किसी खास विषय पर आधारित होते थे। इस विषय से संबंधित कविताएं ही इनमें पढ़ी जाती थीं। इन मुशायरों का प्रभाव यह पड़ा कि उर्दू साहित्य ग़ज़ल विधा के दायरे से बाहर निकला और बहुत शानदार कविताओं की रचना उर्दू में होने लगी। उर्दू में अभी तक ग़ज़ल ही सर्वाधिक लोकप्रिय विधा थी और इसके प्रति यहां तक मोह था कि ग़ज़ल को ही वास्तविक साहित्य माना जाता था। ग़ज़लकारों को जितने सम्मान से देखा जाता था अन्य साहित्यिक विधाओं को उतना मान प्राप्त नहीं था।
अवाम की आवाज़
1874 में ‘बरखा रुत’ शीर्षक पर मुशायरा हुआ, जिसमें अल्ताफ़ हुसैन हाली ने अपनी कविता पढ़ी। यह कविता हाली के लिए और उर्दू साहित्य में सही मायने में इंकलाब की शुरुआत थी। साहित्य-जगत में व इससे इतर समाज में यह कविता इतनी पसन्द की गई कि इसकी प्रशंसा में सालों साल तक अखबारों में लेख व टिप्पणियां छपती रहीं। अब हाली का नाम उर्दू में आदर से लिया जाने लगा था। जिस तरह इस कविता की प्रशंसा हुई, उससे यह साफ पता चलता है कि आम जनता में इस तरह की कविता के लिए जगह थी। हाली ने लोगों की इच्छाओं को अपनी कविता में स्थान दिया। हाली की आवाज़ असल में अवाम की आवाज़ थी। हाली ने अपनी कविताओं में ऐसे विषय उठाए, जिनकी समाज ज़रूरत महसूस करता था, परन्तु तत्कालीन साहित्यकार उनको या तो कविता के लायक नहीं समझते थे या फिर उनमें स्वयं उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हाली ने जिस तरह पीड़ित-मेहनतकश जनता की दृष्टि से विषयों को प्रस्तुत किया, वह उन्हें जनता का लाडला शायर बना देती है। उनकी कविताएं जनता की सलाहकार भी थीं, समाज सुधारक भी, दु:ख-दर्द की साथी भी। उनकी वाणी जनता को अपनी वाणी लगती थी।
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