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| ==स== | | ==ज== |
| ===सुंदर दिखना=== | | ===जन के ऊपर कुछ नहीं=== |
| * यदि सुंदर दिखाई देना है तो तुम्हें भड़कीले कपड़े नहीं पहनना चाहिए। बल्कि अपने सदगुणों को बढ़ाना चाहिए। - महात्मा गांधी | | * अत्याचारी के न्याय विवेक पर भरोसा करना राजनीति के विरुद्ध है। इतिहास इसका ज्वलंत प्रमाण है। ~ हिंदू पंच, बलिदान अंक |
| * सुंदरता चलती है तो साथ ही देखने वाली आंख, सुनने वाले कान और अनुभव करने वाले ह्रदय चलते हैं। - सुदर्शन | | * पापी की परिभाषा व्यक्ति के आचरण पर निर्भर करती है। अत्याचार करने वाले से सहने वाला अधिक पापी है। ~ कंचनलता सब्बरवाल |
| * जो अहित करने वाली चीज है, वह थोड़ी देर के लिए सुंदर बनाने पर भी असुंदर है, क्योंकि वह अकल्याणकारी है। सुंदर वही हो सकता है जो कल्याणकारी हो। - भगवतीचरण वर्मा | | * अन्यायी और अत्याचारी की करतूतें मनुष्यता के नाम खुली चुनौती हैं जिन्हें वीरों को स्वीकार करना ही चाहिए। ~ श्रीराम शर्मा आचार्य |
| * सुंदर वस्तु सर्वदा आनंद देने वाली होती है। उसका आकर्षण निरंतर बढ़ता जाता है। उसका कभी ह्रास नहीं होने पाता। - अज्ञात
| | * प्रशासन की जन के प्रति दुर्भावना भी एक प्रकार का अत्याचार ही है। जनतंत्र में जन से ऊपर कुछ नहीं। ~ भगवतीचरण वर्मा |
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| ===स्त्री विश्वास चाहती है=== | | ===जागरण का अर्थ=== |
| * जब मनुष्य मन में उठती हुई सभी कामनाओं का त्याग कर देता है और आत्मा द्वारा ही आत्मा में संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। - गीता | | * जागरण का अर्थ है कर्मक्षेत्र में अवतीर्ण होना और कर्मक्षेत्र क्या है? जीवन का संग्राम। ~ जयशंकर प्रसाद |
| * स्वार्थ में मनुष्य बावला हो जाता है। - प्रेमचंद | | * जगद्गुरु कौन होता है? जो सब में बिना किसी भेदभाव के अपने सद्भाव और आनंद भाव का प्रकार करे। उसके लिए सब अपने हैं। सब कुछ अपना स्वरूप है। ~ स्वामी अखंडानंद |
| * स्वार्थ की अनुकूलता और प्रतिकूलता से ही मित्र और शत्रु बना करते हैं। - वेदव्यास
| | * दुनिया का अस्तित्व शस्त्रबल पर नहीं, बल्कि सत्य, दया और आत्मबल पर है। ~ महात्मा गांधी |
| * संदेह का भार पुरुष ढोता है, स्त्री विश्वास चाहती है। - लक्ष्मीनारायण लाल | | * दु:ख में अपने स्वजनों को देखते ही दु:ख उसी प्रकार बढ़ जाता है, जैसे रुकी वस्तु को बाहर निकलने के लिए बड़ा द्वार मिल जाए। ~ कालिदास |
| * प्रेम में विश्वास से बढ़कर कुछ नहीं होता। - जैनेंद्र कुमार | |
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| ===सत्याग्रह की तलवार=== | | ===जहां धर्म है वहां जय है=== |
| * सत्याग्रह एक ऐसी तलवार है जिसके सब ओर धार है। उसे काम में लाने वाला और जिस पर वह काम में लाई जाती है, दोनों सुखी होते हैं। खून न बहाकर भी वह बड़ी कारगर होती है। उस पर न तो कभी जंग ही लगता है आर न कोई चुरा ही सकता है। - महात्मा गांधी | | * विजयाभिलाषी जब तक जीवित रहता है तब तक बुद्धिमानों के उपदेश का पात्र होता है। ~ भट्टनारायण |
| * सत्य का मुंह स्वर्ण पात्र से ढका हुआ है। हे ईश्वर, उस स्वर्ण पात्र को तू उठा दे जिससे सत्य धर्म का दर्शन हो सके। - ईशावास्योपनिषद | | * जहां कृष्ण हैं वहां धर्म है, और जहां धर्म है वहां जय है। ~ वेदव्यास |
| * प्रत्येक प्राणी में सत्य की एक चिंगारी है। उसके बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। - सत्य साईं बाबा | | * धर्म का दान हमारे सारे दानों को जीत लेता है। धर्म रस सारे रसों को जीत लेता है। धर्म में प्रेम सारे प्रेमों को जीत लेता है। ~ धम्मपद |
| * सत्य से ही सूर्य तप रहा है। सत्य पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्य भाषण सबसे बड़ा धर्म है। सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है। - विश्वामित्र | | * जिसमें यह चार परम श्रेष्ठ गुण नहीं हैं- सत्य, धर्म, धृति और त्याग, वह शत्रु को नहीं जीत सकता। ~ जातक |
| | * जीतता वह है जिसमें शौर्य होता है, धैर्य होता है, साहस होता है, सत्व होता है, धर्म होता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
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| ===संपत्ति जल के बुलबुले के समान होती है=== | | ===जहां स्वार्थ, वहां प्रेम नहीं=== |
| * संपत्ति जल के बुलबुले के समान होती है। वह विद्युत की भांति एकाएक उदय होती है और नष्ट हो जाती है। - दण्डी | | * प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है, वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त |
| * पवित्रता वह संपत्ति है जो प्रेम के बाहुल्य से पैदा होती है। - रवीन्द्र | | * प्रेम एक बीज है, जो एक बार जमकर फिर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है। ~ प्रेमचंद |
| * विपत्ति में पड़े हुए पुरुषों की पीड़ा हर लेना ही सत्पुरुषों की संपत्ति का सच्चा फल है। संपत्ति पाकर भी मनुष्य अगर विपत्ति-ग्रस्त लोगों के काम न आया तो वह संपत्ति किस काम की। - कालिदास | | * प्रेम से भरा हृदय अपने प्रेम पात्र की भूल पर दया करता है और खुद घायल हो जाने पर भी उससे प्यार करता है। ~ महात्मा गांधी |
| * बंईमानी से जमा की हुई संपत्ति ऐसे है जैसे मृग के लिए कस्तूरी। - अज्ञात | | * प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। ~ जयशंकर प्रसाद |
| | * जिनके भीतर आचरण की दृढ़ता रहती है, वे ही विचार में निर्भीक और स्पष्ट हुआ करते हैं। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| | * अचल निष्ठा ही महान् कामों की जननी है। ~ विवेकानंद |
| | * मनुष्य के मन में जब किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ती है तब उसी अनुपात में स्वार्थपरता घट जाती है। ~ सुभाषचंद्र बोस |
| | * स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है, वहां प्रेम नहीं। ~ अश्विनीकुमार दत्त |
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| ===संतुलन की कला=== | | ===जहां विनय है, वहां भय नहीं=== |
| * जीने का सबसे अच्छा और सर्वाधिक सुरक्षित तरीका जीवन में संतुलन रखना है। आपने आसपास और अपने भीतर की ताकत को पहचानना है। अगर आप ऐसा कर पाते हैं और इस तरह जीते हैं तो आप सचमुच एक बुद्धिमान व्यक्ति हैं। - यूरीपिडीज | | * जितना दिखाते हो, उससे अधिक तुम्हारे पास होना चाहिए, जितना जानते हो उससे कम तुम्हें बोलना चाहिए। ~ शेक्सपियर |
| * इस बारे में कोई दो राय नहीं कि किसी भी जीवन-स्थिति में संतुलित रहने की आशा हमारे भीतर से उपजती है। - फ्रांसिस जे. ब्रेसलैंड | | * नम्रता अगर किसी में स्वाभाविक न हो तो चिर आयु पाने पर भी वह नम्र नहीं हो सकता। ~ मुतनव्बी |
| * मैं जिस चीज का स्वप्न देखता हूं वह है संतुलन की कला। - हेनरी मातीस | | * जहां विनय है, वहां भय नहीं है। ~ कन्नड़ लोकोक्ति |
| * इस दुनिया की बनावट इतनी दैवीय है कि यहां हममें से हर कोई अपने स्थान और समय में अन्य दूसरी चीजों से एक विरल संतुलन में अवस्थित है। - गाइथे | | * अहंकार ने देवदूतों को शैतान में बदल दिया जबकि नम्रता मनुष्यों को देवदूत बनाती है। ~ सेंट ऑगस्टीन |
| | * जीव का अपवित्र मन ही प्रधान नरक है, एवं उस मन की वेदना-चिंता और भय-अशांति ही नारकीय यातना है। ~ तत्वकथा |
| | * नम्रता एवं मधुर वचन ही मनुष्य के असली आभूषण हैं। ~ तिरुवल्लुवर |
| | * हम महान् व्यक्तियों के निकट पहुंच जाते हैं, जब हम नम्रता में महान् होते हैं। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर |
| | * नम्रता की ऊंचाई का कोई नाप नहीं होता। ~ विनोबा |
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| ===सच्ची शिक्षा=== | | ===जिसके पास अपनी शक्ति नहीं, उसे भगवान=== |
| * सदाचार और निर्मल जीवन सच्ची शिक्षा का आधार है। ~ महात्मा गांधी | | * जिसके पास अपनी शक्ति नहीं, उसे भगवान भी शक्ति नहीं दे सकता। शक्ति आत्मा के अंदर से आती है, बाहर से नहीं। जो बाहर की शक्ति पर भरोसा करता है, वह अपने लिए काले दिनो को पुकारता है। ~ सुदर्शन |
| * संसार में जितने प्रकार की प्राप्तियां हैं, शिक्षा सबसे बढ़कर है। ~ निराला | | * शक्ति का उपयोग परोपकार मेें करना चाहिए। शत्रु को पीडि़त कर देना मात्र ही शक्ति का सदुपयोग नहीं है। ~ अज्ञात |
| * शिक्षा केवल ज्ञान-दान नहीं करती, वह संस्कार और सुरुचि के अंकुरों का पालन भी करती है। ~ अज्ञात | | * अपनी शक्ति को प्रकट न करने से शक्तिशाली पुरुष भी अपमान सहन करता है। काठ के भीतर रहने वाली आग को लोग आसानी से लांघ जाते हैं, किंतु जलती हुई अग्नि को नहीं। ~ पंचतंत्र |
| | * प्रतिबंधरहित शक्ति की भूख उपयोग से बढ़ती है। ~ जवाहरलाल नेहरू |
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| ===साहस और धैर्य=== | | ===जिसके पास भगवद्-भक्ति, वही धनी=== |
| * साहस और धैर्य ऐसे गुण हैं, जिनकी कठिन परिस्थितियों में बहुत आवश्यकता होती है। - महात्मा गांधी | | * जिसके पास भगवद्-भक्ति, भगवद्-प्रेम है- वही इस संसार में धनी है। ऐसे व्यक्ति के समक्ष महाराजाधिराज भी दीन भिक्षुक के समान है। ~ सुभाषचंद वसु |
| * साफ पैर में कीचड़ लपेटकर धोने की अपेक्षा उसे न लगने देना ही अच्छा है। - नारायण पंडित | | * अत्यंत लोभी का धन तथा अधिक आसक्ति रखनेवाले का काम- ये दोनों ही धर्म को हानि पहुंचाते हैं। ~ वेदव्यास |
| * यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। - महोपनिषद | | * बिना दंभ के जो किया जाता है, वही धर्म है। ~ गरुड़पुराण |
| * संसार में रहो, परंतु संसार को अपने अंदर मत रहने दो। यही विवेक का लक्षण है। - सत्य साईं बाबा | | * यदि धर्म लोक के विरुद्ध हो तो वह सुखकारी नहीं हो सकता। ~ देवीभागवत |
| * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष की पूतिर् प्रतिष्ठा के द्वारा होती है। - मोहन राकेश
| | * भिक्षुओं! बेड़े की भांति पार जाने के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, पकड़ कर रखने के लिए नहीं। ~ मज्झिमनिकाय |
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| ===साहस के मुताबिक संकल्प=== | | ===जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है=== |
| * जिस मनुष्य में जितना साहस होता है, उसी के अनुसार उसके संकल्प भी होते हैं। - मुतनब्बी | | * जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। पुन:-पुन: किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है। ~ वेदव्यास |
| * यदि बात तुम्हारे हृदय से उत्पन्न नहीं हुई है तो तुम दूसरों के हृदय को कदापि प्रसन्न नहीं कर सकते। - गेटे | | * आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल- ये जिनके रूप हैं, उस महेश्वर को नमस्कार है। ~ शिवपुराण |
| * हमारी बुद्धियां विविध प्रकार की हैं। मनुष्य के कर्म भी विविध प्रकार के हैं। - ऋग्वेद | | * जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा |
| * निष्काम होकर नित्य पराक्रम करने वाले की गोद में उत्सुक होकर सफलता आती ही है। - भारवि | | * जब तक तुम्हारे पास कुछ कथनीय न हो, तब तक किसी भी प्रकार से किसी से भी कुछ न कहो। ~ कार्लाइल |
| * सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंत:करण के अनुरूप होती है। - जॉनसन
| | * शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स |
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| ===सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति=== | | ===जिसके मन में कभी क्रोध नहीं होता=== |
| * बैर के कारण उत्पन होने वाली आग एक पक्ष को स्वाहा किए बिना कभी शांत नहीं होती। ~ वेदव्यास | | * जिसके मन में कभी क्रोध नहीं होता और जिसके हृदय में रात-दिन राम बसते हैं, वह भक्त भगवान के समान ही है। ~ रैदास |
| * ब्रह्मा ज्ञान मूक ज्ञान है, स्वयं प्रकाश है। सूर्य को अपना प्रकाश मुंह से नहीं बताना पड़ता। वह है, यह हमें दिखाई देता है। यही बात ब्रह्मा-ज्ञान के बारे में भी है। ~ महात्मा गांधी
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| * सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिए नहीं होती, वह तो अहैतुकी हुआ करती है। ~ राबिया | | * सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिए नहीं होती, वह तो अहैतुकी हुआ करती है। ~ राबिया |
| * ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग ही भक्ति है। ~ भक्तिदर्शन | | * जहां भगवान हैं और जहां भक्त हैं वहां सब कुछ है, लेकिन भगवान को तो हमने देखा नहीं, भक्त को हम देख सकते हैं, इसलिए हमारी निगाह में भक्त की महिमा बढ़ जाती है। ~ विनोबा |
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| ===सोच-विचार कर करो=== | | ===जिसके सत्य विचार हैं, वे सत्यपुरुष हैं=== |
| * कोई भी काम सोच-विचार कर ही करना चाहिए। मनुष्य की बुराइयां उसके मरने के पीछे तक कलंकित रहती हैं। भलाइयों को लोग मरते ही भूल जाते हैं। - शेक्सपियर | | * सज्जन लोग स्वभाव से ही स्वार्थसिद्धि में आलसी और परोपकार में दक्ष होते हैं। ~ बाणभट्ट |
| * हम जो कुछ कर रहे हैं, उसमें अच्छा या बुरा क्या और कितना है, यह अवश्य सोच लेना चाहिए। बुराइयां गुप्त रह कर जीवित रहती हैं और अच्छी तरह पनपती हैं। - वर्जिल | | * गुण का सच्चा मानदण्ड मन में स्थित है। जिसके सत्य विचार हैं, वे सत्यपुरुष हैं। ~ आइजक बिकरस्टाफ |
| * अच्छी तरह सोचना बुद्धिमत्ता है। अच्छी योजना बनाना उत्तम है। और अच्छी तरह काम को पूरा करना सबसे अच्छी बुद्धिमत्ता है। - फारसी कहावत | | * जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं और जो कपटपूर्ण हो, वह सत्य नहीं है। ~ वेदव्यास |
| * बुद्बिमान बनने के लिए पहले मूल सुविधाएं जरूरी हैं। खाली पेट कोई भी आदमी बुद्बिमान नहीं हो सकता। - जॉर्ज इलियट | | * सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात |
| | * सत्य को न देखने के कारण यह संसार जला है, इस समय जल रहा है और जलेगा। ~ अश्वघोष |
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| ===सत्य बहुधा लोक में अप्रिय होता है=== | | ===जिसका मन जिससे लग गया=== |
| * सत्य बहुधा लोक में अप्रिय होता है। - एडलाइ स्टीवेन्स | | * प्रशंसा ऐसा विष है जिसे अल्प मात्रा में ही ग्रहण किया जा सकता है। ~ बालजाक |
| * दुख, प्रेम के साथ ही निरन्तर घूमता रहता है। - वीणावासवदत्ता | | * हम प्रेम से जिसके दास होते हैं, वह हमारा भी दास हो जाता है। प्रेम से दास होना मानो एक प्रकार से मुक्त होना है। ~ साने गुरुजी |
| * भिक्षु हो या राजा, जो निष्काम है, वही शोभित होता है। - अष्टावक्र गीता
| | * जिसका मन जिससे लग गया, वह उसी में रूप-गुण सब कुछ देखता है। प्रेम स्वाधीन को पराधीन कर सकता है। स्नेह के अतिरिक्त यह सामर्थ्य किसमें है? ~ दयाराम |
| * परोपकार में लगे हुए सज्जनों की प्रवृत्ति पीड़ा के समय भी कल्याणमयी होती है। - बाण भट्ट
| | * स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र |
| * बुद्धिमान व्यक्ति अपने शत्रुओं से भी बहुत सी बातें सीखते हैं। - एरिस्टोफेनिज
| | * कान से सुनकर लोग चलते हैं, आंख से देखकर चलने वाले कम हैं। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र |
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| ===सत्य सदा का है===
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| * सत्य सदा का है, सत्य का अतीत और वर्तमान नहीं होता। - विमल मित्र
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| * प्रत्येक सत्य, चाहे वह किसी के मुख से क्यों निकला हो, ईश्वरीय सत्य है। - सेंट एम्ब्रोज
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| * सत्य की सरिता अपने भूलों की वाहिकाओं से होकर बहती है। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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| * अंतनिर्हित सत्य असत्य का मुकुट है और एक भटका हुआ सत्य उसका सबसे मूल्यवान रत्न हे। - अरविंद | |
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| ===सभी आभूषण भार हैं===
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| * सभी गीत विलाप हैं। सभी नृत्य विडंबना हैं। सभी आभूषण भार हैं और सभी काम दुखदायी हैं। - उत्तराध्ययन
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| * यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। - महोपनिषद
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| * संसार में रहो, परंतु संसार को अपने अंदर मत रहने दो। यही विवेक का लक्षण है। - सत्य साईं बाबा
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| ===सौन्दर्य पवित्रता में रहता है===
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| * प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। - शाह अब्दुल लतीफ
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| * सौन्दर्य पवित्रता में रहता है और गुणों में चमकता है। - शिवानंद
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| * सत्य हजार ढंग से कहा जा सकता है और फिर भी हर ढंग सत्य हो सकता है। - स्वामी विवेकानंद | |
| * अधिक कहने से रस नहीं रह जाता, जैसे गूलर के फल को फोड़ने पर रस नहीं निकलता। - तुलसीदास | |
| * जैसे ही कहीं पर भगवान का मंदिर बनकर तैयार होता है, शैतान उसके पास ही अपना प्रार्थना गृह बना लेता है। - जॉर्ज हरबर्ट
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| ===संयम से वैर नहीं बढ़ता है=== | | ===जिसका मन संतुष्ट है, सभी संपत्तियां उसकी हैं=== |
| * जिसके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है। - वेदव्यास | | * मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली- भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बड़कर संसार में कुछ भी नहीं है। ~ वेदव्यास |
| * सब प्राणियों के प्रति स्वयं को संयत रखना ही अहिंसा की पूर्ण दृष्टि है। - दशवैकालिक
| | * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दु:ख देखा है, न सुख- वह संतुष्ट कहा जाता है। ~ महोपनिषद |
| * जिसने इंद्रियों पर विजय पा ली है उसके मन में विघन्कार वस्तुएं थोड़ा भी छोभ उत्पन्न नहीं कर सकतीं। - कालिदास | | * जिसका मन संतुष्ट है, सभी संपत्तियां उसकी हैं। ~ अज्ञात |
| * संयम का अर्थ घुटना और सड़ना नहीं है, स्वस्थ बहाव है। - रांगेय राघव | | * संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात |
| * संयम करने से वैर नहीं बढ़ता है। - उदान
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| ===सत्य सदैव निराला होता है=== | | ===जिसने अपने आप को वश मे कर लिया=== |
| * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दुख देखा है, न सुख-वह संतुष्ट कहा जाता है। - महोपनिषद | | * जिसने अपने आप को वश मे कर लिया है, उसकी जीत को देवता भी हार मे नहीं बदल सकते। ~ महात्मा बुद्ध |
| * सच्चा मूल्य तो उस श्रद्धा का है, जो कड़ी-से-कड़ी कसौटी के समय भी टिकी रहती है। - महात्मा गांधी
| | * आत्म विश्वास सरीखा दूसरा मित्र नहीं। आत्म विश्वास ही भावी उन्नति की प्रथम सीढ़ी है। ~ स्वामी विवेकानंद |
| * झूठा नाता जगत का, झूठा है घरवास। यह तन झूठा देखकर सहजो भई उदास। - सहजोबाई | | * जब मनुष्य स्वयं आत्मविश्वास खो बैठता है तो उसके पतन का सिरा खोजने से भी नहीं मिल पाता। ~ अज्ञात |
| * जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी प्रकार सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। - बाणभट्ट
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| * सत्य सदैव निराला होता है, कल्पना से भी अधिक निराला। - बायरन | |
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| ===सदाचार से धर्म उत्पन्न होता है=== | | ===जो मनुष्य तौल कर बातें नहीं करता उसे=== |
| * दो बैर करने वालों के बीच में बात ऐसे कह दे कि यदि वे मित्र बन जाएं, तो तू लज्जित न हो। - शेख सादी | | * प्रत्येक बालक यह संदेश लेकर संसार में आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर |
| * हितकर, किंतु अप्रिय वचन को कहने और सुनने वाले, दोनों दुर्लभ हैं। - वाल्मीकि | | * निकृष्ट व्यक्ति बाधाओं के डर से काम शुरू ही नहीं करते, मध्यम प्रकृति वाले कार्य का प्रारंभ तो कर देते हैं किंतु विघ्न उपस्थित होने पर उसे छोड़ देते हैं। इसके विपरीत, उत्तम प्रकृति के व्यक्ति बार-बार विघ्नों के आने पर भी काम को एक बार शुरू कर देने के बाद फिर उसे नहीं छोड़ते। ~ भर्तृहरि |
| * संत कौन हैं? संपूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति नष्ट हो गई है, जिनका अज्ञान नष्ट हो चुका है और जो कल्याणस्वरूप परमात्मा तत्व में स्थित हैं। - शंकराचार्य | | * जो मनुष्य तौल कर बातें नहीं करता उसे कठोर बातें सुननी पड़ती हैं। ~ सादी |
| * जिसके जीने से बहुत से लोग जीवित रहें, वही इस संसार में वास्तव में जीता है। - विष्णु शर्मा
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| * सदाचार से धर्म उत्पन्न होता है तथा धर्म से आयु बढ़ती है। - वेदव्यास
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| ===सुख दूसरों को सुखी करने में है=== | | ===जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं, क्षमा करता है, वह=== |
| * जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। - प्रेमचंद | | * जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं, क्षमा करता है, वह अपनी और क्रोध करने वाले की महा संकट से रक्षा करता है। वह दोनों का रोग दूर करने वाला चिकित्सक है। ~ वेदव्यास |
| * पर्वतों को उखाड़ने में यदि हाथी के दांत टूट भी जाएं, तो भी वे प्रशंसा के योग्य हैं। - अज्ञात | | * क्रोध और ग्लानि से सद्भावनाएं विकृत हो जाती हैं। जैसे कोई मैली वस्तु निर्मल वस्तु को दूषित कर देती है। ~ प्रेमचंद |
| * साहस और धैर्य ऐसे गुण हैं, जिनकी कठिन परिस्थितियों में आ पड़ने पर बड़ी आवश्यकता होती है। - महात्मा गांधी
| | * जब क्रोध नम्रता का रूप धारण कर लेता है, तो अभिमान भी सिर झुका लेता है। ~ सुदर्शन |
| * दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हंसी हंसता है, वैसी ही हंसी, मस्ती बिखेरने वाली हंसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। - रामचरण महेंद्र | | * क्रोध बुरे विचारों की खिचड़ी है। उसमें द्वेष भी है दु:ख भी, भय भी है तिरस्कार भी, घमंड भी है और अविवेकता भी। ~ अज्ञात |
| * साफ पैर में कीचड़ लपेटकर धोने की अपेक्षा उसे न लगने देना ही अच्छा है। - नारायण पंडित | |
| * सहानुभूति एक ऐसी विश्वव्यापी भाषा है, जिसे सभी प्राणी समझते हैं। - जेम्स एलेन
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| ===संगति बुद्धि के अंधकार को हरती=== | | ===जो शांति से सहन करता है, वही आहत होता है=== |
| * अच्छी संगति बुद्धि के अंधकार को हरती है, वचनों को सत्य की धार से सींचती है, मान को बढ़ती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न रखती है और चारों ओर यश फैलाकर मनुष्यों को क्या क्या लाभ नहीं पहुंचाती? ~ भर्तृहरि | | * ईश्वर उससे संतुष्ट होता है जो सब धर्मों के उपदेशों को सुनता है, सभी देवताओं की उपासना करता है, जो ईर्ष्या से मुक्त है और क्रोध को जीत चुका है। ~ विष्णुधर्मोत्तर पुराण |
| * मनुष्य के संकल्प के सम्मुख देव, दानव सभी पराजित हो जाते हैं। ~ एमर्सन | | * जो शांत भाव से सहन करता है, वही गंभीर रूप से आहत होता है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर |
| * संकट का समय ही मनुष्य की आत्मा को परखता है। ~ टॉमस पेन | | * दो व्यक्तियों के एक चित्त होने पर कोई कार्य असाध्य नहीं होता। ~ सोमदेव |
| * वास्तव में वे ही लोग श्रेष्ठ हैं जिनके हृदय में सर्वदा दया और धर्म बसता है, जो अमृत-वाणी बोलते हैं तथा जिनके नेत्र नम्रतावश सदा नीचे रहते हैं। ~ मलूकदास
| | * यदि तुम में सहनशक्ति हो तो तुम्हें किसी बात की कमी नहीं होगी। ~ आदिभट्टल नारायणदासु |
| | * सहयोग प्रेम की सामान्य अभिव्यक्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ~ रामतीर्थ |
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| ===सुकर्म के बीज से ही महान फल=== | | ===जो दूसरों का दोष सामने लाता है=== |
| * सही स्थान पर बोया गया सुकर्म का बीज ही महान फल देता है। ~ कथासरित्सागर | | * दयालुता से दयालुता और विश्वास से विश्वास का जन्म होता है। ~ सैमुअल स्माइल्स |
| * प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का हित नहीं है। ~ चाणक्य
| | * जिस बात से एक की प्रशंसा होती है, उसी बात से दूसरा निंदित होता है। ~ जातक |
| * द्वेष बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते, प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है। ~ विनोबा | | * वह जो दूसरों का दोष तेरे सामने लाता है, निश्चय ही तेरे दोष भी दूसरों के सामने ले जाएगा। ~ शेख सादी |
| * बाधाएं व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिए, मंद नहीं पड़ना चाहिए। ~ यशपाल
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| ===सारा संसार ही कुटुंब है===
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| * यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद्र चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। ~ महोपनिषद | |
| * संसार में रहो, परंतु संसार को अपने अंदर मत रहने दो। यही विवेक का लक्षण है। ~ सत्य साईं बाबा | | * संसार में रहो, परंतु संसार को अपने अंदर मत रहने दो। यही विवेक का लक्षण है। ~ सत्य साईं बाबा |
| * उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर कार्य में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जार्ज सांतायना | | * यदि तुम जगत् का उपकार करना चाहते हो तो जगत् पर दोषारोपण करना छोड़ दो, उसे और भी दुर्बल मत करो। ~ विवेकानन्द |
| * जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है, और न किसी चीज की अपेक्षा करता है, वह सदा ही संन्यासी समझने के योग्य है। ~ वेदव्यास
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| * सच हजार ढंग से कहा जा सकता है, फिर भी उसका हर ढंग सच हो सकता है। ~ विवेकानंद
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| ===संसार और स्वप्न=== | | ===जो लूटे जाने पर भी मुस्कुराता है=== |
| * संसार स्वप्न की तरह है। जिस प्रकार जागने पर स्वप्न झूठा प्रतीत होता है, उसी प्रकार आत्मा का ज्ञान प्राप्त होने पर यह संसार मिथ्या प्रतीत होता है। ~ याज्ञवल्क्य | | * जो मनुष्य जाति की सेवा करता है वह ईश्वर की सेवा करता है। ~ महात्मा गांधी |
| * आवेश और क्रोध को वश में कर लेने पर शक्ति बढ़ती है और आवेश को आत्मबल के रूप में परिवर्तित कर दिया जा सकता है। ~ महात्मा गांधी | | * सौंदर्य पवित्रता में रहता है और गुणों में चमकता है। ~ शिवानंद |
| * अमरत्व को प्राप्त करना अखिल विश्व का स्वामी बनना है। ~ स्वामी रामतीर्थ
| | * जो लूटे जाने पर भी मुस्कुराता है, वह चोर का कुछ चुरा लेता है। ~ शेक्सपियर |
| * जो मनुष्य दूसरों के व्यवहार से ऊबकर क्षण प्रतिक्षण अपने मन बदलते रहते हैं, वे दुर्बल हैं। उनमें आत्मबल नहीं है। ~ सुभाष चन्द्र बोस | | * बुद्धिमान को स्वेच्छा से सही मार्ग पर चलना चाहिए। विवश होकर किसी बात को मानना मोहग्रस्त मूढ़ लोगों का काम है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| * आत्म-विजय अनेक आत्मोत्सर्गों से भी श्रेष्ठतर है। ~ स्वामी रामतीर्थ | |
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| ===सुदिन सबके लिए आते हैं=== | | ===जवान और बूढ़े में फ़र्क़=== |
| * हर्ष के साथ शोक और भय इस प्रकार लगे हुए हैं जिस प्रकार प्रकाश के साथ छाया। सच्चा सुखी वही है जिसकी दृष्टि में दोनों समान हैं। ~ धम्मपद | | * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्म्स |
| * लोभ के कारण पाप होते हैं, रस के कारण रोग होते हैं और स्नेह के कारण दुख होते हैं। अत: लोभ, रस और स्नेह का त्याग करके सुखी हो जाओ। ~ नारायण स्वामी | | * मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम |
| * सुदिन सबके लिए आते हैं, किंतु टिकते उसी के पास हैं जो उनको पहचान कर आदर देता है। ~ अज्ञात | | * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास |
| * सुधार आंतरिक होना चाहिए, बाह्य नहीं। तुम सद्गुणों के लिए नियम नहीं बना सकते। ~ गिबन | | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर |
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| ===सच्चा प्रेम स्तुति से प्रकट नहीं होता=== | | ===जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है=== |
| * सच्चा प्रेम स्तुति से प्रकट नहीं होता, सेवा से प्रकट होता है। ~ गांधी | | * जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। ~ प्रेमचंद |
| * प्रेम हृदय के समस्त सद्भावों का शांत, स्थिर, उद्गारहीन समावेश है। ~ प्रेमचंद | | * पर्वतों को उखाड़ने में यदि हाथी के दांत टूट भी जाएं, तो भी वे प्रशंसा के योग्य हैं। ~ अज्ञात |
| * प्रेम दुख और वेदना का बंधु है। इस संसार में जहां दुख और वेदना का अथाह सागर है, वहां प्रेम की अधिक आवश्यकता है। ~ डॉ. रामकुमार वर्मा | | * साहस और धैर्य ऐसे गुण हैं, जिनकी कठिन परिस्थितियों में आ पड़ने पर बड़ी आवश्यकता होती है। ~ महात्मा गांधी |
| * पारस्परिक प्रेम हमारे सभी आनंदों का शिरोमणि है। ~ मिल्टन | | * दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हँसी हँसता है, वैसी ही हँसी, मस्ती बिखेरने वाली हँसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र |
| * प्रेम बिना तर्क का तर्क है। ~ शेक्सपियर | | * साफ़ पैर में कीचड़ लपेटकर धोने की अपेक्षा उसे न लगने देना ही अच्छा है। ~ नारायण पंडित |
| | * सहानुभूति एक ऐसी विश्वव्यापी भाषा है, जिसे सभी प्राणी समझते हैं। ~ जेम्स एलेन |
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| ==म== | | ===जीवन को सुंदर बनानेवाला प्रत्येक विचार ही मानो वेद है=== |
| ===मनुष्य की चाहत===
| | * जीवन को सुंदर बनानेवाला प्रत्येक विचार ही मानो वेद है। ~ साने गुरुजी |
| * एकाएक बिना विचारे कोई काम नहीं करना चाहिए। सम्यक विचार न करना परम आपत्ति का उत्पादक होता है। गुण के ऊपर अपने आप को समर्पण करने वाली संपत्तियां विचारवान पुरुष को स्वयं मनोनीत करती हैं। - भारवि | | * कांच का कटोरा, नेत्रों का जन, मोती और मन, यह एक बार टूटने पर पहले जैसी स्थिति नहीं होती, अत: पहले ही सावधानी बरतनी चाहिए। ~ लोकोक्ति |
| * मनुष्य जितना चाहता है, उतनी ही उसकी प्राप्त करने की शक्ति बढ़ती जाती है। अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार कर के उसकी गुलामी करना ही कायरपन है। - शरतचंद्र | | * जीव के दो स्वभाव हैं- अपना-पराया। स्व और पर दोनों में भी जीव के अस्तित्व होने के कारण दूसरों के प्रति बुरी बात करना अनुचित है। ~ पानुगंटि |
| * जो नेक काम करता है और नाम की इच्छा नहीं करता उसकी चित्त-शुद्धि होती जाती है। उसका काम सहज ही परमशक्ति को अर्पण हो जाता है। - विनाबा भावे | | * कभी-कभी हमें उन लोगों से शिक्षा मिलती है, जिन्हें हम अभिमानवश अज्ञानी समझते हैं। ~ प्रेमचंद |
| * कार्य उसी का सिद्ध होता है जो समय को विचार कर कार्य करता है। वह खिलाड़ी कभी नहीं हारता जो दांव पर विचार कर खेलता है। - वृंद | | * जो व्यक्ति अपना पक्ष छोड़कर दूसरे पक्ष से मिल जाता है, वह अपने पक्ष के नष्ट हो जाने पर स्वयं भी परपक्ष द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। ~ वाल्मीकि |
| | * वीरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद |
| | * बिना विवेक के वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र |
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| ===मृत्यु देह के लिए अनमोल वरदान है=== | | ===जीवन अनंत है=== |
| * मृत्यु देह के लिए अनमोल वरदान है। - स्वामी हरिहर चैतन्य | | * जीवन अनंत है और मनुष्य की सार्मथ्य भी अनंत है। ~ यशपाल |
| * जिस देह से श्रम नहीं होता, पसीना नहीं निकलता, सौंदर्य उस देह को छोड़ देता है। - लक्ष्मीनारायण मिश्र | | * अपने सुख के दिनों का स्मरण करने से बड़ा दु:ख कोई नहीं है। ~ दांते |
| * दुखियों की दशा वही जानता है, जो अपनी परिस्थितियों से दुखी हो गया हो। - शेख सादी | | * संकट पहले अज्ञान और दुर्बलता से उत्पन्न होते हैं और फिर ज्ञान और शक्ति की प्राप्ति कराते हैं। ~ जेम्स एलन |
| * यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। - नवविधान | | * पुण्यवान लोग जिसको स्वीकृत कर लेते हैं, उसका पालन करते हैं। ~ अज्ञात |
| * समृद्धियां पराक्रमी मनुष्य के साथ रहती हैं, अनुत्साही मनुष्य के साथ नहीं। - भारवि | | * जिस प्रकार वास वृक्ष पर समागम के पश्चात् पक्षी पृथक-पृथक् दिशाओं में चले जाते हैं, उसी प्रकार प्राणियों के समागम का अन्त वियोग है। ~ अश्वघोष |
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| ===मन नहीं मरता तो माया नहीं मरती=== | | ===जीवन विकास का सिद्धांत है=== |
| * जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। - गुरु नानक | | * जीवन का रहस्य भोग में नहीं, अनुभव के द्वारा शिक्षा प्राप्ति में है। ~ स्वामी विवेकानंद |
| * जिसने कभी कोई शत्रु नहीं बनाया, उसका कोई मित्र भी नहीं बनता है। - टेनिसन | | * जीवन विकास का सिद्धांत है, स्थिर रहने का नहीं। निरंतर विकसित होना स्थिर अवस्था में बने रहने की इजाजत नहीं देता। ~ जवाहरलाल नेहरू |
| * अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। - सोमदेव | | * जीवन एक प्रयोगशाला के समान है जिसमें मनुष्य निरंतर प्रयोग करता रहता है। ~ अज्ञात |
| * जितने से काम चल जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। - भागवत | | * जीवन को नियम के अधीन कर देना आलस्य पर विजय पाना है। जीवन को नियम के अधीन कर देना प्रमाद को सदा के लिए विदा कर देना है। ~ स्वामी अखंडानंद |
| * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। - वेद व्यास
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| ===मन को शुभ संकल्प बनाओ=== | | ===जवानी में नासमझी की काफ़ी गुंजाइश=== |
| * आयु, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि मनुष्य को उसी प्रकार बिना चाहे प्राप्त होते हैं, जैसे इनके विपरीत वस्तुएं न चाहने पर भी प्राप्त होती हैं। - भागवत | | * यह सच है और सभी जानते हैं कि जैसे बुढ़ापे में बुद्धिमानी होती है, वैसे ही जवानी में नासमझी की काफ़ी गुंजाइश रहती है। ~ रमण |
| * इंद्रियों पर विजय पाने से विनय प्राप्त होता है, विनय से गुण, गुणों से लोकप्रियता और लोकप्रियता से धन की प्राप्ति होती है। - अलंकारसर्वस्व | | * जवानी जोश है, बल है, साहस है, दया है, आत्मविश्वास है, गौरव है और वह सब कुछ है जो जीवन को पवित्र, उज्ज्वल और पूर्ण बना देता है। ~ प्रेमचन्द |
| * जैसा उद्योग होता है, उसी के अनुरूप धन की प्राप्ति होती है। त्याग के अनुरूप ही कीर्ति फैलती है, अभ्यास के अनुरूप विद्या की प्राप्ति होती है और कर्म के अनुरूप बुद्धि। - अज्ञात | | * यौवन, जीवन, मन, शरीर की छाया, धन और स्वामित्व, ये चंचल हैं। ये स्थिर होकर नहीं रहते। ~ अज्ञात |
| * हे परमेश्वर! हमारे मन को शुभ संकल्प वाला बनाओ, हमें सुखदायी बल व कर्मशक्ति प्रदान करो। - ऋगवेद | | * नदी की बाढ़, वृक्षों के फूल, चंद्रमा की कलाएं नष्ट होकर फिर से आ सकती हैं, लेकिन जवानी लौटकर नहीं आती। ~ रामानंद |
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| ===मुहब्बत रूह की खुराक=== | | ===जन्म से मुक्ति=== |
| * मुहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावों को जिंदा कर देती है। मुहब्बत आत्मिक वरदान है। यह जिंदगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक बरकत है। - प्रेमचंद | | * मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तक। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है क्योंकि वह ग़लती कर सकता है, और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी |
| * प्रेम कभी दावा नहीं करता, वह हमेशा देता है। प्रेम हमेशा कष्ट सहता है। न कभी झुंझलाता है, न बदला लेता है। - महात्मा गांधी | | * मेरी सम्मति में इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान |
| * प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। - जयशंकर प्रसाद | | * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड |
| * प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं। - रामचंद शुक्ल | | * शोक करने वाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किसके लिए बार-बार शोक कर रहे हैं। ~ वेद व्यास |
| * कैसा अचरज है कि मैं न जान पाया कभी/ मेरे चित्त में ही छिपा मेरा चित चोर है। - ठाकुर गोपालशरण सिंह | | * जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ता है। ~ विवेकानंद |
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| ===महान कार्य के लिए शत्रुओं से भी संधि कर लें=== | | ===जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं=== |
| * विचारपूर्वक किया गया श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाजसेवा है। - महात्मा गांधी | | * जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार मलिन अंत:करण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता। ~ रामकृष्ण परमहंस |
| * दूसरों को दुख दिए बिना, दुष्टों की विनय किए बिना और सज्जनों के मार्ग का त्याग किए बिना अत्यल्प जो कुछ भी है, वही बहुत है। - अज्ञात | | * आंख के अंधे को दुनिया नहीं दिखती, काम के अंधे को विवेक नहीं दिखता, मद के अंधे को अपने से श्रेष्ठ नहीं दिखता और स्वार्थी को कहीं भी दोष नहीं दिखता। ~ चाणक्य |
| * किसी महान कार्य को करने के प्रसंग में शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए। - भागवत | | * आपका कोई भी काम महत्वहीन हो सकता है पर महत्त्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें। ~ महात्मा गांधी |
| * विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। - बाण | | * उड़ने की अपेक्षा जब हम झुकते हैं तब विवेक के अधिक निकट होते हैं। ~ अज्ञात |
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| ===मनुष्य परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर=== | | ===जिसे तू मारना चाहता है=== |
| * ऐश्वर्य का भूषण, सज्जनता-शूरता का मित-भाषण, ज्ञान का शांति, कुल का भूषण विनय, धन का उचित व्यय, तप का अक्रोध, समर्थ का क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है। यह तो सबका पृथक-पृथक हुआ, परंतु सबसे बढ़कर सबका भूषण शील है। ~ भर्तृहरि | | * मनुष्य की सच्ची परीक्षा विपत्ति में ही होती है। ~ महात्मा गांधी |
| * प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है, चाहे वह गेहूं की हों या बाजरे की। ~ प्रेमचंद | | * उन्नत चित्त वाले पुरुषों का यह स्वभाव है कि वे बड़ों पर महान् पराक्रम दिखाते हैं, दुर्बलों पर नहीं। ~ विष्णु शर्मा |
| * मनुष्य ही परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर है। ~ विवेकानंद | | * व्यक्ति के अंतर्मन को परखना चाहिए। ~ दशवैकालिक |
| * मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख भी मिट जाता है। ~ वेदव्यास | | * हंसमुख और बुद्धिमान चेहरा ही संस्कृति का लक्ष्य है। ~ एमर्सन |
| | * जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह भी तू ही है। ~ आचारांग |
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| ===मनुष्य का कर्तव्य है कि कष्ट देने वाले से भी प्रेम करे=== | | ===जिस देश को राजनीतिक उन्नति करनी हो, वह=== |
| * कोई भीतरी कारण ही पदा को परस्पर मिलाता है, बाहरी गुणों पर प्रीति आश्रित नहीं होती। ~ भवभूति | | * जिस देश को राजनीतिक उन्नति करनी हो, वह यदि पहले सामाजिक उन्नति नहीं कर लेगा तो राजनीतिक उन्नति आकाश में महल बनाने जैसी होगी। ~ महात्मा गांधी |
| * ऐच्छिक प्रेम उत्तम है, परंतु बिना याचना के दिया हुआ प्यार बेहतर है। ~ शेक्सपियर | | * यदि राजसत्ता अत्याचारी हो तो किसान का सीधा उत्तर है- जा, जा, तेरे ऐसे कितने राज मैंने मिट्टी में मिलते देखे हैं। ~ सरदार पटेल |
| * प्रेम हमें अपने पड़ोसी या मित्र पर ही नहीं बल्कि जो हमारे शत्रु हों, उन पर भी रखना है। ~ महात्मा गांधी | | * राज शक्ति का स्थान जन शक्ति से ऊंचा नहीं है। ~ जय प्रकाश नारायण |
| * मनुष्य का कर्तव्य है कि कष्ट देनेवाले से भी प्रेम करे। ~ मारकस आंटोनियस | | * जैसे दृष्टि सदा ही शरीर के हित मे लगी रहती है, उसी प्रकार राजा राष्ट्र को सत्य और धर्म मे लगाने वाला होता है। ~ वाल्मीकि |
| * जहां प्रेम जितना उग्र होता है वहां वैसी ही तीखी घृणा भी होती है। ~ अज्ञेय
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| ===मेहनती भाग्य को भी परास्त कर देते हैं=== | | ===जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसा जीवन भी होगा।=== |
| * निरंतर अथक परिश्रम करनेवाले भाग्य को भी परास्त कर देते हैं। - तिरुवल्लुवर | | * जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसा ही तुम्हारा जीवन भी होगा। ~ श्रीमां |
| * परिश्रमी धीर व्यक्ति को इस जगत में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है। - सोमदेव | | * बुद्धिमत्ता का लक्ष्य स्वतंत्रता है। संस्कृति का लक्ष्य पूर्णता है। ज्ञान का लक्ष्य प्रेम है। शिक्षा का लक्ष्य चरित्र है। ~ सत्य साईं बाबा |
| * परिश्रम ही हर सफलता की कुंजी है और वही प्रतिभा का पिता है। - कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' | | * मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है परंतु लज्जा और धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष |
| * जंग लग कर नष्ट होने की अपेक्षा जीर्ण होकर नष्ट होना अधिक अच्छा है। - बिशप रिचर्ड कंबरलैंड | | * लघुता में प्रभुता निवास करती है। दूब लघु है तो उसे विनायक के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के वृक्ष की कोई खड़ाऊं बनाकर भी नहीं पहनता। ~ दयाराम |
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| ===मनुष्य अकेला आता है=== | | ===जैसा लक्ष्य, वैसा ही जीवन=== |
| * मनुष्य इस संसार में अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मर जाता है। एक धर्म ही उसके साथ-साथ चलता है, न तो मित्र चलते हैं और न बांधव। कार्यों में सफलता, सौभाग्य और सौंदर्य सब कुछ धर्म से ही प्राप्त होते हैं। ~ मत्स्य पुराण | | * जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसा ही तुम्हारा जीवन भी होगा। ~ श्रीमां |
| * परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चंद्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है? ~ सुप्रभाचार्य | | * विष पीकर शिव सुख से जागते हैं, जबकि लक्ष्मी का स्पर्श पाकर विष्णु निद्रा से मूर्च्छाग्रस्त हो जाते हैं। ~ अज्ञात |
| * तुम्हारा मन शुद्ध है, तो तुम्हारे लिए जगत शुद्ध है। ~ शिव | | * लोभी मनुष्य किसी कार्य के दोषों को नहीं समझता, वह लोभ और मोह से प्रवृत्त हो जाता है। ~ वेदव्यास |
| * किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे | | * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा |
| * विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेम चंद | | * मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, किंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष |
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| ===मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है=== | | ===जैसे सभ्य मेहमान उठ कर जाता=== |
| * जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। ~ वेदव्यास | | * रिटायर होने के बाद बुढ़ापे में मेरे लिए सबसे ज़्यादा सुखकर और मुझे सर्वाधिक संतोष देने वाली चीज़ वे यादें हैं जो मैंने अपनी कामकाजी उम्र में दूसरे लोगों को दोस्त बनाकर अर्जित की हैं। ~ मारकस काटो |
| * हताश न होना सफलता का मूल है और यही परम सुख है। उत्साह मनुष्य को कर्म के लिए प्रेरित करता है और उत्साह ही कर्म को सफल बनाता है। ~ वाल्मीकि | | * रिटायरमेंट के वक्त मैं ठीक उसी तरह जाना चाहूंगा जैसे किसी पार्टी से कोई सभ्य मेहमान उठ कर जाता है। ~ लियोंटाइन प्राइस |
| * मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | | * यकीन करें कि बुढ़ापा उम्र का सबसे शानदार दौर होता है। भले ही आप उस वक्त अपनी ज़िम्मेदारियों से निबट चुके होते हैं, पर तब आप फ्रंट सीट पर बैठकर उन कामों के नतीजे का मजा ले सकते हैं जो आपने सक्रिय होते हुए किए थे। ~ जेन एलेन हैरिसन |
| | * रिटायरमेंट की उम्र में पहुंचने के बाद लोगों को समाजसेवा की तरफ बढ़ना चाहिए। निष्क्रिय लोगों को बर्दाश्त करने का दौर अब बीत गया है। ~ मैगी काह्न |
| | * अगर आप काम करते रहते हैं तो आपके इस दुनिया में होने का अर्थ बना रहता है। रिटायर होने के बाद अपनी बाकी ज़िंदगी टुच्चे खेलों में बिता देने का विचार बहुत बेहूदा है। ~ हैराल्ड जेनीन |
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| ===मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है=== | | ===जल से सींचने पर पेड़ बढ़ते हैं=== |
| * भाग्य पर भरोसा रखकर बैठने वाले आलसी मनुष्यों को त्याग कर लक्ष्मी सदा परिश्रम करने में तत्पर लोगों को खोज कर उनका वरण कर लेती है। ~ मत्स्यपुराण | | * पानी में तेल, दुर्जन में गुप्त बात, सत्पात्र में दान और विद्वान् व्यक्ति में शास्त्र का उपदेश थोड़ा भी हो, तो स्वयं फैल जाता। ~ चाणक्यनीति |
| * उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है, मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण
| | * न शत्रु न शस्त्र, न अग्नि, न विष और न दारुण रोग ही मनुष्य को उतना संतप्त करते हैं। जितनी कड़वी वाणी। ~ नीतिविदषाष्टिका |
| * यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं तथापि मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए। ~ धनपाल | | * जल से सींचने पर पेड़ बढ़ते हैं, पत्थरों का ढेर नहीं। योग्य ही अपने अनुकूल आचरण पाकर पदार्थ बन जाता है। ~ सुभाषितावलि |
| * पहले स्वयं पुरुषार्थ करो, फिर भगवान को पुकारो। ~ यूरोपिडीज | | * अर्थ से ही अर्थ उसी प्रकार प्राप्त किया जाता है जिस प्रकार हाथी से हाथी प्राप्त किएजाते हैं। ~ कौटिल्य |
| * सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं। मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूं। पुरुषार्थ ही सौभाग्य को खींच लाता है। ~ जयशंकर प्रसाद | |
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| ===महान वह है, जो गलत रास्ते से लौट सके=== | | ===जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती=== |
| * जो प्रकृति से ही महान हैं उनके स्वाभाविक तेज को किसी (शारीरिक)ओज-प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती। - चाणक्य | | * माता के रहते मनुष्य को कभी चिंता नहीं होती, बुढ़ापा उसे अपनी ओर नहीं खींचता। जो अपनी माँ को पुकारता हुआ घर में प्रवेश करता है, वह निर्धन होता हुआ भी मानो अन्नपूर्णा के पास चला आता है। ~ वेद व्यास |
| * संपत्ति और विपत्ति में एक समान आचरण करनेवाले ही महान कहलाते हैं। - विष्णु शर्मा | | * कभी यह न सोचना कि तुम प्रेम का पथ निर्धारित कर सकते हो। क्योंकि प्रेम यदि तुमको उसका अधिकारी समझता है, तो तुम्हारी राह वह स्वयं निर्धारित करता है। ~ खलील जिब्रान |
| * विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत महान और विशाल है। वैसे ही महापुरुष को किसी की निंदा दूषित नहीं कर सकती। - इत्तिवृत्तक | | * जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। ~ गुरु नानक |
| * मैं महान उसको मानता हूं जो स्वत: अपना मार्ग बनाते हैं, परंतु कहीं मिथ्या मार्ग पर चल पड़ें तो लौट आने का साहस और बुद्धि भी रखते हैं। - गुरुदत्त
| | * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स ऐंथनी फ्राउड |
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| ==प== | | ===जंगली पशु मनोरंजन के लिए हत्या नहीं करते=== |
| ===प्रेम में चतुराई बुरी चीज===
| | * मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तयिता। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह ग़लती कर सकता है और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी |
| * प्रेम के मार्ग में चतुराई बहुत बुरी चीज है। - मौलाना रूम | | * हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद |
| * प्रवीणता और आत्मविश्वास अविजित सेनाएं हैं। - जॉर्ज हरबर्ट | | * मेरी सम्मति में इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान |
| * हितकारी और मनोरम बात दुर्लभ होती है। - भारवि | | * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड |
| * कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। - चाणक्य | |
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| ===पापों की स्मृति पापों से भयानक होती है=== | | ===जीतता वह है जिसमें शौर्य होता है=== |
| * मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फंसता है, तब वह उसी में और भी लिपटता जाता है, उसी के प्रगाढ़ आलिंगन में सुखी होने लगता है। पापों की श्रृंखला बन जाती है। उसी के नए-नए रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। - जयशंकर प्रसाद | | * वाक्पटु, निरालस्य व निर्भीक व्यक्ति से विरोध करके कोई नहीं जीत सकता। ~ तिरुवल्लुर |
| * जहां किसी प्रलोभन से प्रेरित होकर तुम कोई पाप करने पर उतारू होते हो, वहीं ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करो। - स्वामी रामतीर्थ | | * वह विजय महान् होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति |
| * जिस कार्य में आत्मा का पतन हो, वही पाप है। - महात्मा गांधी | | * जीतता वह है जिसमें शौर्य होता है, धैर्य होता है, साहस होता है, सत्व होता है, धर्म होता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| * पापों की स्मृति पापों से भयानक होती है। - सुदर्शन | | * अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें, झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें। ~ धम्मपद |
| | * विजय के लिए केवल एक सत्याग्रही ही काफ़ी है। ~ महात्मा गांधी |
| | * किसी कार्य को संपन्न करने के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे |
| | * अपने सम्मान, सत्य और मनुष्यता के लिए प्राण देने वाला वास्तविक विजेता होता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी |
| | * शंति से क्रोध को जीतें, मृदुता से अभिमान को जीतें, सरलता से माया को जीतें और संतोष से लाभ को जीतें। ~ दशवैकालिक |
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| ===पुरुषार्थी ही श्रेष्ठ आनंद पाते हैं=== | | ===ज़्यादा कीमत नहीं तो कोई भी तजुर्बा अच्छा=== |
| * पुरुषार्थी ही श्रेष्ठ आनंद पाते हैं। - अथर्ववेद | | * सज्जनों का लक्षण यह है कि वे सदा दया करने वाले और करुणाशील होते हैं। ~ विनोबा भावे |
| * जहां पवित्र बुद्धि होती है, वहां सारी कामनाएं सिद्ध होती हैं। - ऋग्वेद | | * किसी का रुपया वापस किया जा सकता है लेकिन सहानुभूति के दो शब्द वह ऋण हैं, जिसे चुकाना मनुष्य की शक्ति के बाहर है। ~ सुदर्शन |
| * तपस्या से लोगों को विस्मित न करें, यज्ञ करके असत्य न बोलें। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें। और दान दे कर उसकी चर्चा न करें। - मनुस्मृति | | * कोई भी तजुर्बा अच्छा है, बशर्ते उसकी ज़्यादा कीमत नहीं चुकानी पड़े। ~ एक कहावत |
| | * सेनापति वही है जो सिपाही की सेवा को अधिकार न समझ कर श्रद्धा की वस्तु समझता है। ~ रामकुमार वर्मा |
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| ===परोपकार से पुण्य होता है=== | | ==झ== |
| * जिनका मन कपटरहित है, वे ही प्राणिमात्र पर दया करते हैं। - क्षेमेंद्र | | ===झूठ से जो पाऊंगा वह पाना नहीं खोना है=== |
| * दयालु लोगों का शरीर परोपकार से सुशोभित होता है, चंदन से नहीं। - भर्तृहरि | | * यौवन साहस करता है और वृद्धावस्था विचार करती है। ~ राउपाख |
| * परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप। - पंचतंत्र | | * सिर मुंड़ाने या दाढ़ी रखने से ही कोई संन्यासी नहीं हो जाता। बाल के समान पतले इस मार्ग पर चलना बहुत कठिन है। ~ हाफिज |
| * वृक्ष अपने सिर पर सूर्य की प्रचंड धूप सहता है, किंतु अपने आश्रितों की गर्मी अपनी छाया से दूर करता है। - कालिदास | | * झूठ से जो पाऊंगा वह पाना नहीं खोना है और सत्य से जो खोऊंगा वह खोना नहीं पाना है। ~ विमल मित्र |
| * त्याग ही एकमात्र प्रशंसायोग्य गुण है। अन्य गुणों के समुदाय से क्या प्रयोजन। - आचार्य नारायण राम | | * स्वजन शत्रु हो जाते हैं और पराए मित्र हो जाते हैं। कार्यवश ही लोग स्नेह करते है और तोड़ते हैं। ~ अश्वघोष |
| | * यह संभव नहीं कि कोई व्यक्ति निरंतर मुस्कराता ही रहे और वह दुष्ट भी हो। ~ शेक्सपियर |
| | * जो सेवा भावी है, उसे सेवा खोजने या पूछने की ज़रूरत नहीं होती। ज़रूरत पहचान कर वह स्वयं को वहां प्रस्तुत कर देता है। ~ विनोबा भावे |
| | * तू ने स्वर्ग औरनरकनहीं देखा। समझ ले कि उद्यम स्वर्ग है और आलस्य नरक है। ~ अज्ञात |
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| ===पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है=== | | ===झूठ से भरा भाषण प्रजा का नाश करने=== |
| * दूसरों पर दोषारोपण नहीं करोगे तो तुम पर भी दोषारोपण नहीं किया जाएगा। दूसरों पर क्रोध नहीं करोगे तो तुम पर भी क्रोध नहीं किया जाएगा। और दूसरों को क्षमा करोगे तो तुम्हें भी क्षमा किया जाएगा। - नवविधान | | * झूठ से भरा भाषण प्रजा का नाश करने वाला होता है। ~ बंकिम चंद्र |
| * यदि किसी को दूध नहीं दे सकते, तो मत दो। मगर छाछ देने में क्या हर्ज़ है? यदि किसी भूखे को अन्न देने में समर्थ नहीं हो तो कोई बात नहीं, पर प्यासे को पानी तो पिला सकते हो। - तुकाराम | | * संसार मे झूठ पापो का सरदार है। स्वार्थपरता, निर्दयता, कुटिलता, और कायरता, सब उसके साथी हैं। ~ काका कालेलकर |
| * पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है, फिर उसका विरोध होता है और अंत में उसको स्वीकार कर लिया जाता है। - स्वामी विवेकानंद
| | * लोग झूठ बोलने वाले मनुष्य से उसी प्रकार डरते हैं जैसे सांप से। संसार मे सत्य सबसे महान् धर्म है। वही सबका मूल है। ~ वाल्मीकि |
| * असंयमी विद्वान अंधा मशालदार है। - शेख सादी | | * जहां लुटेरो के चंगुल मे फंस जाने पर झूठी शपथ खाने से छुटकारा मिलता हो, वहां झूठ बोलना ही ठीक है। ऐसे मे उसे ही सत्य समझना चाहिए। ~ वेदव्यास |
| * यदि तुम स्वतंत्र नहीं हो सकते, तो जितने हो सकते हो, उतने ही हो जाओ। - एमर्सन | | * झूठ बोलने वाला कभी भी श्रेष्ठ पद को नहीं पा सकता। ~ उपनिषद |
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| ===प्रतिभा धैर्य की महान क्षमता मात्र है=== | | ===झूठे आरोपों का सर्वोत्तम उत्तर मौन=== |
| * असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। - महादेवी वर्मा | | * पूर्ण मनुष्य वही है, जो पूर्ण होने पर और बड़ा होने पर भी नम्र रहता हो और सेवा में निमग्न रहता हो। ~ शब्सतरी |
| * जब प्रकृति को कोई महान कार्य संपन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिए एक प्रतिभा का निर्माण करती है। - एमर्सन | | * प्रार्थी व्यक्ति को लक्ष्मी मिले या न मिले, किन्तु लक्ष्मी जिसे चाहे वह लक्ष्मी के लिए कैसे दुर्लभ हो सकता है। ~ कालिदास |
| * प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। - शाह अब्दुल लतीफ | | * मनुष्य को अपनी करनी का फल तो भोगना ही पड़ता है। ~ सोमेन दत्त |
| * प्रतिभा धैर्य की महान क्षमता मात्र है। - बफां | | * झूठे आरोपों का सर्वोत्तम उत्तर मौन है। ~ बेन जॉनसन |
| * प्रतिभा स्वतंत्रता के वातावरण में ही मुक्त सांस ले सकती है। - जॉन स्टुअर्ट मिल्स | | * जड़ कट जाने पर वृक्ष का पालन भला कैसे हो सकता है। ~ शूद्रक |
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| ===पहले जैसी स्थिति=== | | ===झुककर चलने वाला=== |
| * हर मन एक माणिक्य है, उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं। - शेख फरीद | | * राग मिलाने वाली वासना है और द्वेष अलग करने वाली। ~ रामचंद्र शुक्ल |
| * पढ़ना सुलभ है, पर उसका पालन करना दुर्लभ है। - लल्लेश्वरी | | * कितना भी पांडित्य हो, थोड़ी सी रसज्ञता की कमी से वह निरर्थक हो जाता है। ~ मारन वेंकटय्या |
| * कांच का कटोरा, नेत्रों का जल, मोती और मन : ये एक बार टूटने पर पहले जैसी स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकते। - लोकोक्ति | | * हितकर, किंतु अप्रिय वचन को कहने और सुनने वाले, दोनों दुर्लभ हैं। ~ वाल्मीकि |
| * राम नाम के बल पर अधर्म मत करो। राम नाम स्मरण के साथ-साथ शुद्ध कर्म भी करना आवश्यक है। - एकनाथ | | * वृद्ध व्यक्ति जो झुककर चलता है, वह धरती में क्या खोजता चलता है? उसका जो यौवन रूपी रत्न खो गया है, उसे ही खोजता है कि शायद कहीं पर गिरा हुआ हो। ~ जायसी |
| | * काम करने वाला मरने से कुछ घंटे पूर्व ही वृद्ध होता है। ~ वृंदावनलाल वर्मा |
| | * राजधर्म एक नौका के समान है। यह नौका धर्म रूपी समुद्र में स्थित है। सतगुण ही नौका का संचालन करने वाला बल है, धर्मशास्त्र ही उसे बांधने वाली रस्सी है। ~ वेदव्यास |
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| ==='प्राय:' का अर्थ 'तप' है और चित्त का अर्थ 'निश्चय'=== | | ===झुकने वाले के सामने झुकें=== |
| * इंद्रिय-जय से विनय प्राप्त होती है, विनय से प्रकृष्ट गुण प्राप्त होते हैं, प्रकृष्ट गुणों से लोकप्रियता प्राप्त होती है और लोकप्रियता से मनुष्य संपत्ति प्राप्त करता है। - अलंकारसर्वस्व | | * झुकने वाले के सामने झुकें। संगति करने वाले के साथ संगति करें। ~ जातक |
| * आयु, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि मनुष्य को उसी प्रकार प्राप्त होते हैं, जैसे इनके विपरीत वस्तुएं न चाहने पर भी प्राप्त होती हैं। - भागवत | | * उग्रता और मृदुता समय देखकर अपनानी चाहिए। अंधकार को मिटाए बिना ही सूर्य अग्निवर्षी नहीं हो जाता। ~ अज्ञात |
| * 'प्राय:' का अर्थ 'तप' है और चित्त का अर्थ 'निश्चय' है। तप और निश्चय के संयोग से 'प्रायश्चित' होता है। - आंगिरसस्मृति | | * कोमल शब्द कठोर तर्क होते हैं। ~ टामस फुलर |
| * आरंभ न करना अच्छा है, पर आरंभ करके छोड़ना ठीक नहीं। - बोधिचर्यावतार
| | * दही में जितना दूध डालिए, वह दही होता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| | * थोड़े से निर्दोष शब्दों में कहना जो नहीं जानते, वे ही अनेक शब्दों को कहने के इच्छुक होते हैं। ~ तिरुवल्लुवर |
| | * जीवन को सुंदर बनाने वाला प्रत्येक विचार ही मानो वेद है। ~ साने गुरुजी |
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| ===परोपकार का आचरण मत त्यागो=== | | ==ड== |
| * मनुष्य सुख और दुख सहने के लिए बनाया गया है, किसी एक से मुंह मोड़ लेना कायरता है। - भगवतीचरण वर्मा
| | ===डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है=== |
| * परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चन्द्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है। - सुप्रभाचार्य | | * डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है। वही सीमेंट जो ईंट पर चढ़कर पत्थर हो जाता है, मिट्टी पर चढ़ा दिया जाए तो मिट्टी हो जाएगा। ~ प्रेमचंद |
| * अधिक धनसंपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह सदा निर्धन है। धन से रहित रहने पर भी जो संतुष्ट है, वह सदा धनी है। - अश्वघोष
| | * डर रखने से हम अपनी ज़िंदगी को बढ़ा तो नहीं सकते। डर रखने से बस इतना होता है कि हम ईश्वर को भूल जाते हैं, इंसानियत को भूल जाते हैं। ~ विनोबा भावे |
| * संगीत गले से ही निकलता है, ऐसा नहीं है। मन का संगीत है, इंद्रियों का है, हृदय का है। - महात्मा गांधी | | * तब तक ही भय से डरना चाहिए जब तक कि वह पास नहीं आ जाता। परंतु भय को अपने निकट देखकर प्रहार करके उसे नष्ट करना ही ठीक है। ~ चाणक्य |
| * शंका के मूल में श्रद्धा का अभाव रहता है। - अज्ञात | |
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| ===प्रेम में स्मृति का ही सुख है=== | | ===डॉक्टर आशावादी होते हैं=== |
| * प्रेम से भरा हृदय अपने प्रेम पात्र की भूल पर दया करता है और खुद घायल हो जाने पर भी उससे प्यार करता है। - महात्मा गांधी | | * डॉक्टर असंख्य ग़लतियां करते हैं। इलाज के मामले में वे आदतन आशावादी होते हैं, लेकिन इलाज के नतीजों के मामले में उतने ही निराशावादी नजर आते हैं। ~ सैम्युअल बटलर |
| * जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे। - प्रेमचंद
| | * डॉक्टर ज़्यादातर मायनों में वकीलों जैसे ही होते हैं। उनके बीच अकेला फ़र्क़ यह होता है कि वकील सिर्फ आपको लूटते हैं, जबकि डॉक्टर लूटने के बाद आपको मार भी डालते हैं। ~ एंटन चेखव |
| * प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। - जयशंकर प्रसाद | | * डॉक्टर बीमार को काटते, मारते और टॉर्चर करते हैं, और इस किस्म की अपनी सेवाओं के बदले में मोटी फीस भी वसूलते हैं। ~ हेराक्लिटस ऑफ इफेसस |
| * प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं। - रामचंद्र शुक्ल | | * बीमारी से भी कहीं ज़्यादा खौफ डॉक्टर से खाया जाना चाहिए। ~ एक लैटिन कहावत |
| | * डॉक्टर की कामयाबी को सूरज देखता है, लेकिन उसकी नाकामी को ज़मीन छिपा लेती है। ~ एक फ्रांसीसी कहावत |
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| ===पत्नी और पति=== | | ===डरा हुआ व्यक्ति=== |
| * पति होने की तुलना में प्रेमी होना कहीं आसान है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि हर दिन अक्लमंदी की बात कहना समय-समय पर कुछ प्यारी-प्यारी बातें कहते रहने की तुलना में कहीं ज्यादा मुश्किल होता है। - बाल्जाक | | * खुद डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र |
| * हर किसी को देखकर मुस्कराओ। अपनी पत्नी को देखकर, बच्चे को देखकर, एक-दूसरे को देखकर मुस्कराओ, चाहे सामने कोई भी क्यों न हो। इससे आप सभी में एक-दूसरे के प्रति प्यार बढ़ेगा। - मदर टेरेसा | | * मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्तक। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह ग़लती कर सकता है और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी |
| * अपनी सर्वोच्च स्थिति में यदि हमें अपनी पत्नी या पति को खोना पड़ता है तो इसमें एक अप्रसन्न विवाह के सिवाय खोने को और कुछ भी नहीं होता। उसे खोकर हम स्वयं को प्राप्त करते हैं। लेकिन कोई विवाह यदि दो ऐसे लोगों के बीच होता है, जो खुद को खोज चुके हैं तो यहां से एक प्यारे से एडवेंचर की शुरुआत होती है, जिसमें हरीकेन वगैरह भी शामिल होते हैं। - रिचर्ड बाख
| | * मेरी सम्मति में इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान |
| * जब एक स्त्री दूसरा विवाह करती है तो ऐसा वह अपने पहले पति से नफरत की वजह से करती है। जब एक पुरुष दूसरा विवाह करता है तो ऐसा वह अपनी पहली पत्नी को दिलोजान से चाहने की वजह से करता है। स्त्रियां अपनी किस्मत आजमाती हैं, पुरुष अपनी किस्मत दांव पर लगाते हैं। - ऑस्कर वाइल्ड
| | * जंगली पशु खेल और मनोरंजन के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड |
| * पति वह है जो प्रेमी के सारे स्नायु निचुड़ जाने के बाद बचा रह जाता है। - हेलन रौलां | |
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| ===परिवर्तन ही सृष्टि है=== | | ==त== |
| * परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है। ~ जयशंकर प्रसाद | | ===तीन प्रकार के इंसान=== |
| * पुरुषार्थ परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने में है। ~ महात्मा गांधी | | * मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तयिता। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह ग़लती कर सकता है। और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी |
| * परोपकार के लिए कुछ जाल भी करना पड़े तो वह आत्मा की हत्या नहीं है। ~ प्रेमचंद | | * मेरी समझ से इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान |
| | * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड |
| | * शोक करने वाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किसके लिए बार-बार शोक कर रहे हैं। ~ वेद व्यास |
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| ===प्रार्थना धर्म का निचोड़ है=== | | ===तुम्हारा मन शुद्ध है तो तुम्हारे लिए जगत् शुद्ध है=== |
| * प्रार्थना धर्म का निचोड़ है। प्रार्थना याचना नहीं है, यह तो आत्मा की पुकार है। प्रार्थना दैनिक दुर्बलताओं की स्वीकृति है, यह हृदय के भीतर चलने वाले अनुसंधानों का नाम है। ~ महात्मा गांधी | | * सब शुद्धियों में दिल की शुद्धि श्रेष्ठ है। जो धन के बारे में पवित्रता रखता है, वही वस्तुत: पवित्र है। मिट्टी-पानी द्वारा प्राप्त पवित्रता वास्तविक पवित्रता नहीं है। ~ अज्ञात |
| * मैं भगवान से अष्टसिद्धि या मोक्ष की कामना नहीं करता। मेरी यही एक प्रार्थना है कि समस्त प्राणियों के अंत:करण में स्थित होकर मैं ही उनके समस्त दुखों को सहूं। ~ श्रीमद्भागवत | | * तुम्हारा मन शुद्ध है तो तुम्हारे लिए जगत् शुद्ध है। ~ शिव |
| * बारिश का परिणाम शरीर पर और उसके द्वारा मन पर होता है तो प्रार्थना का परिणाम हृदय के द्वारा आत्मा पर होता है। ~ विनोबा | | * संवेदनशील बनो पर निर्मल भी। प्रेमी बनो पर पवित्र भी। ~ बायरन |
| | * अपनी पवित्रता के संबंध में सज्जनों का चित्त ही साक्षी है। ~ श्रीहर्ष |
| | * ईश्वर को सिर झुकाने से क्या बनता है, जब हृदय ही अशुद्ध हो। ~ गुरुनानक |
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| ===पूजा हमेशा गुण की होती है=== | | ===तृष्णा संतोष की बैरिन है=== |
| * गुण की पूजा सर्वत्र होती है, बड़ी संपत्ति की नहीं। ठीक वैसे ही जैसे पूर्ण चंद्रमा उतना वंदनीय नहीं है जितना निर्दोष द्वितीया का क्षीण चंद्रमा। ~ चाणक्य | | * तृष्णा संतोष की बैरिन है, यह जहां पांव जमाती है, संतोष को भगा देती है। ~ सुदर्शन |
| * जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है, वही पूज्य है। ~ भगवान महावीर | | * जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है, और जो इच्छा का बंधुआ मज़दूर है, उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्याबी जहां रहे वहीं वन और वही भवन-कंदरा है। ~ वेदव्यास |
| * सज्जन लोग चाहे दूर भी रहें पर उनके गुण उनकी ख्याति के लिए स्वयं दूत का कार्य करते हैं। केवड़ा पुष्प की गंध सूंघकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले जाते हैं। ~ अज्ञात | | * जिस जगह मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का भी लाभी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए। ~ चाणक्य |
| | * त्रुटि निकालना सरल है, अच्छा कार्य करना कठिन है। ~ प्लूटार्क |
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| ===प्रेम से दास होना, मानो मुक्त होना=== | | ===तुम आगे बढ़े चलो=== |
| * हम प्रेम से जिसके दास होते हैं, वह हमारा भी दास हो जाता है। प्रेम से दास होना मानो एक प्रकार से मुक्त होना है। ~ साने गुरुजी | | * फूल चुनकर इकट्ठा करने के लिए मत ठहरो। आगे बढ़े चलो। तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर |
| * जिसका मन जिससे लग गया, वह उसी में रूप-गुण सब कुछ देखता है। प्रेम स्वाधीन को पराधीन कर सकता है। स्नेह के अतिरिक्त यह सामर्थ्य किसमें है? ~ दयाराम | | * आवेश और क्रोध को वश में कर लेने से शक्ति बढ़ती और आवेश को आत्मबल के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। ~ महात्मा गांधी |
| * स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र | | * आशा उत्साह की जननी है। आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। ~ प्रेमचंद्र |
| | * जब शरीर में सात्विक रस रूपी मेघ बरसते हैं, तब आयु रूपी नदी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। ~ संत ज्ञानेश्वर |
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| ===प्रेमी हृदय उदार होता है=== | | ===तपस्या धर्म का पहला और आखिरी कदम=== |
| * प्रेमी हृदय उदार होता है, वह दया और क्षमा का सागर है, ईर्ष्या और दंभ के नाले उसमें मिल कर उसे विशाल बना देते हैं। ~ प्रेमचंद | | * अपनी पीड़ा सह लेना और दूसरे जीवों को पीड़ा न पहुंचाना, यही तपस्या का स्वरूप है। ~ संत तिरुवल्लुवर |
| * जो कर्म छोड़ता है, वह गिरता है। कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है, वह चढ़ता है। ~ गांधी | | * तपस्या धर्म का पहला और आखिरी क़दम है। ~ महात्मा गांधी |
| * जो फल को जाने बिना ही कर्म की ओर दौड़ता है, वह फल प्राप्ति के अवसर पर केवल शोक का भागी होता है- जैसे कि पलाश को सींचनेवाला पुरुष उसका फल न पाने पर खिन्न होता है। ~ वाल्मीकि | | * कर्म, ज्ञान और भक्ति का संगम ही जीवन का तीर्थ राज है। ~ दीनानाथ दिनेश |
| | * सबसे उत्तम तीर्थ अपना मन है जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो। ~ स्वामी शंकराचार्य |
| | * ब्रह्माज्ञानी को स्वर्ग तृण है, शूर को जीवन तृण है, जिसने इंद्रियों को वश में किया उसको स्त्री तृण-तुल्य जान पड़ती है, निस्पृह को जगत् तृण है। ~ चाणक्य |
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| ===पीड़ितों की सेवा=== | | ===ताकि दरवाज़े खुले मिलें=== |
| * जिसे मेरी सेवा करनी है वह पीड़ितों की सेवा करे। ~ गौतम बुद्ध | | * जो भलाई करना चाहता है, वह द्वार खटखटाता है। और जो प्रेम करता है, उसे द्वार खुला मिलता है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर |
| * सेवा हृदय और आत्मा को पवित्र करती है। सेवा से ज्ञान प्राप्त होता है, और यही जीवन का लक्ष्य है। ~ स्वामी शिवानंद | | * परंपरा और विद्रोह, जीवन में दोनों का स्थान है। परंपरा घेरा डालकर पानी को गहरा बनाती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चौड़ाई में ले जाता है। ~ रामधारी सिंह दिनकर |
| * सेवा उसकी करो जिसे सेवा की जरूरत है। जिसे सेवा की जरूरत नहीं उसकी सेवा करना ढोंग है, दंभ है। ~ महात्मा गांधी | | * जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे हमें बुद्धिमान बनाते हैं। ~ जॉन मेसफील्ड |
| * निष्ठावंत और निष्काम सेवा ज्यादा दिन एकाकी नहीं रहने पाती। ~ विनोबा | | * जिस देह से श्रम नहीं होता, पसीना नहीं निकलता, सौंदर्य उस देह को छोड़ देता है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र |
| | * अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं है। ~ उड़िया लोकोक्ति |
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| ===पतित होकर भी बुद्धिमान पुरुष पुन: उठ जाता है=== | | ===त्याग का सच्चा अर्थ=== |
| * बच्चों का हृदय कोमल थाला है, चाहे इसमें कटीली झाड़ी लगा दो, चाहे फूलों के पौधे। ~ जयशंकर प्रसाद | | * जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है? और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहां रहे वही वन और वही भवन कंदरा है। ~ महाभारत |
| * सद्बुद्धि वाले पुरुष को अल्प सुख एवं अधिक क्लेश वाला कार्य नहीं करना चाहिए। ~ अचिन्त्यानन्द वर्णी | | * त्याग पीने की दवा है, दान सिर पर लगाने की सौंठ। त्याग में अन्याय के प्रति चिढ़ है, दान में नाम का लिहाज़ है। ~ विनोबा भावे |
| * मरुस्थल की मरीचिका जैसी लक्ष्मी बुद्धिमान को मोहित नहीं कर पाती। ~ सोमदेव | | * जिस देश में मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का लाभ भी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए। ~ चाणक्य |
| * बुद्धिमान वे हैं, जिनकी दृष्टि में कांच कांच है और मणि मणि। ~ भल्लट भट्ट
| | * जिस आदमी की त्याग की भावना अपनी जाति से आगे नहीं बढ़ती, वह स्वयं स्वार्थी होता है और अपनी जाति को भी स्वार्थी बनाता है। ~ महात्मा गांधी |
| * पतित अथवा पथभ्रष्ट होकर भी बुद्धिमान पुरुष पुन: उठ जाता है। ~ क्षेमेंद्र
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| ===पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए=== | | ==द== |
| * ऐसे भी लोग हैं जो देते हैं, लेकिन देने में कष्ट अनुभव नहीं करते। न वे उल्लास की अभिलाषा करते हैं और न पुण्य समझ कर ही कुछ देते हैं। इन्हीं लोगों के हाथों ईश्वर बोलता है और इन्हीं की आंखों से वह पृथ्वी पर अपनी मुस्कान बिखेरता है। ~ खलील जिब्रान | | ===दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करो=== |
| * दानशीलता हृदय का गुण है, हाथों का नहीं। ~ एडिसन | | * लोगों के साथ व्यवहार करते समय हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम तर्कशास्त्रियों के साथ व्यवहार नहीं कर रहे हैं। हम ऐसे लोगों के साथ व्यवहार कर रहे हैं, जिनमें मानसिक आवेश है, पक्षपात है और जो गर्व एवं अहंकार से संचरित होते हैं। ~ डेल कारनेगी |
| * यदि तुम पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए। ~ लाओ-त्से | | * सच्चे और सरल कर्म को जानना आसान काम नहीं है। न्यायोचित कर्मानुकूल व्यवहार करने पर ही सच्चे और सरल कर्म को जाना जा सकता है। ~ रस्किन |
| * दुखकातर व्यक्तियों को दान देना ही सच्चा गुण है। ~ तुकाराम | | * दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा कि तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे साथ करें। ~ बाइबिल |
| * तुम्हें जो दिया था वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया है, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर
| | * महापुरुष अपनी महत्ता का परिचय छोटे मनुष्यों के साथ किए गए अपने व्यवहार से देते हैं। ~ कार्लाइल |
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| ===प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होती है, प्रेम की नहीं=== | | ===दूसरों का भरोसा मत करो=== |
| * भोग ही प्रेम का प्रधान लक्षण नहीं है। उसका एक प्रधान लक्षण है कि वह आनंद से दुख को स्वीकार कर लेता है क्योंकि दुख और त्याग से ही प्रेम की सार्थकता है। - विमल मित्र | | * अगर संसार में तीन करोड़ ईसा, मुहम्मद, बुद्ध या राम जन्म लें तो भी तुम्हारा उद्धार नहीं हो सकता जब तक तुम स्वयं अपने अज्ञान को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं होते, तब तक तुम्हारा कोई उद्धार नहीं कर सकता, इसलिए दूसरों का भरोसा मत करो। ~ स्वामी रामतीर्थ |
| * प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होती है, प्रेम की नहीं। वह अ-मृत है। - उमाशंकर जोशी
| | * उद्धार वही कर सकते हैं जो उद्धार के अभिमान को हृदय में आने नहीं देते। ~ अज्ञात |
| * प्रेम किसी को अपने सिवा न कुछ देता है, न किसी से अपने-आपके सिवा कुछ लेता है। - खलील जिब्रान | | * मांगना एक लज्जास्पद कार्य है। अपने उद्योग से कोई वस्तु प्राप्त करना ही सच्चे मनुष्य का कर्त्तव्य है। ~ महात्मा गांधी |
| * प्रेम कर्कश को मधुर बना देता है, असत को सत बनाता है, पापी को पुण्यवान बनाता है और अंधकार को प्रकाशमय बनाता है। - बंकिमचंद्र | |
| * प्रेम मन की सबसे अच्छी दुर्बलता है। - ड्राइडेन
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| ===प्रेम का एक कण संसार पर भारी=== | | ===दूसरों की महानता को गौरव देनी ही असली महानता है=== |
| * नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्धत होता है। - नारायण पंडित | | * विवाद और असहमति किसी भी क्रियाशील समाज की प्राणशक्ति हैं। ~ ह्युबर्ट हम्फ्री |
| * जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। - मुक्तिकोपनिषद् | | * स्वभाव में शक्ति, मन में बुद्धि, हृदय में प्रेम- ये भव्य मानवता की त्रयी हैं। ~ अरविंद |
| * प्रेम का एक कण भी सारे संसार से बढ़कर मूल्य रखता है। - फरीदुद्दीन अत्तार | | * दूसरों में महानता देख पाना और उन्मुक्त हृदय से उन्हें उसका गौरव देना मनुष्य की महानता की कसौटी है। ~ रस्किन |
| * सबसे पहले आत्मविश्वास करना सीखो। आत्मविश्वास सरीखा दूसरा कोई मित्र नहीं। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की सीढ़ी है। - स्वामी विवेकानंद | | * धन में अनासक्ति, गुणों से मोह, पराए दु:ख में अधीन होना और अपने ऊपर पड़े दु:ख में महान् धैर्य- धारण करना, ये गुण महापुरुषों में जन्म से ही होते हैं। ~ वल्लभदेव |
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| ===प्रेम आंखों से नहीं, मन से देखता है=== | | ===दूसरों को प्रसन्न रखने की कला स्वयं प्रसन्न होने में है=== |
| * सच्ची बड़ाई उसी की है जिसकी शत्रु भी सराहना करें। - रहीम | | * कपट से धर्म नष्ट हो जाता है, क्रोध से तप नष्ट हो जाता है और प्रमाद करने से पढ़ा- सुना नष्ट हो जाता है। ~ अज्ञात |
| * प्रेम चंद्रमा के समान है। अगर वह बढ़ेगा नहीं तो घटना शुरू हो जाएगा। - सीगर | | * धन्य है वह जो किसी बात की आशा नहीं करता, क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप |
| * जहां प्रेम और भक्ति नहीं, वहां परमात्मा नहीं। - गुरु रामदास | | * सच्चा सौहार्द वह होता है, जब पीठ पीछे प्रशंसा की जाए। ~ जयशंकर प्रसाद |
| * प्रेम आंखों से नहीं, मन से देखता है। - शेक्सपियर | | * दूसरों को प्रसन्न रखने की कला स्वयं प्रसन्न होने में है। सौम्य होने का अर्थ है स्वयं व दूसरों से संतुष्ट होना। ~ हैजलिट |
| * प्रेम वही है जो अपनी शक्ति से अरूप में रूप भर दे। - अमृतलाल नागर
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| ===परंपरा अतीत की स्मृति नहीं है=== | | ===दूसरों की सुन लो, लेकिन अपना फैसला गुप्त रखो=== |
| * परंपरा रोकती है, विद्रोह आगे बढ़ना चाहता है। इस संघर्ष के बाद जो प्रगति होती है, वही असली प्रगति है। - दिनकर | | * दूसरों की सुन लो, लेकिन अपना फैसला गुप्त रखो। ~ चाणक्य |
| * परंपरा अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि जीवंत आत्मा का सतत आवास है। - राधाकृष्णन | | * जो महान् है, वह महान् पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित |
| * परंपरा बंधन नहीं है, वह मनुष्य की मुक्ति (अपने लिए ही नहीं, सबके लिए मुक्ति) की निरंतर तलाश है। - विद्यानिवास मिश्र | | * अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं। ~ लोकोक्ति |
| * आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है, निर्वाण परम सुख है। - धम्मपद
| | * कठिनाइयों का मुकाबला करो, चाहे सारी दुनिया दुश्मन ही क्यों न बन जाए। ~ मैजिनी |
| | * अपमान और दवा की गोलियां निगल जाने के लिए होते हैं। मुंह में रखकर चूसने के लिए नहीं। ~ वक्रमुख |
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| ===प्रतीक्षा भी सेवा=== | | ===दो प्रकार के सच=== |
| * जो केवल खड़े रहते हैं तथा प्रतीक्षा करते हैं, वे भी सेवा करते हैं। ~ मिल्टन | | * सर्वोपरि दान जो आप किसी मनुष्य को दे सकते हैं, वह विद्या और ज्ञान का दान है। ~ रामतीर्थ |
| * काया के पिंजरे चाहे जितने रंगों के हों, पर मन का पंछी तो सबमें एक ही जैसा है। ~ अमृतलाल नागर | | * तुम्हें जो दिया था वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया है, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर |
| * यदि मन में प्रपंच हो तो मन में भगवान का वास नहीं हो सकता, और यदि मन में भगवान हों तो प्रपंच हो नहीं सकता। ~ दयाराम | | * सच्चा दान दो प्रकार का होता है- एक वह जो श्रद्धावश दिया जाता है, दूसरा वह जो दयावश दिया जाता है। ~ रामचंद्र शुक्ल |
| * जब तक अन्त:करण दिव्य और उज्ज्वल न हो, वह प्रकाश का प्रतिबिंब दूसरों पर नहीं डाल सकता। ~ प्रेमचंद | | * ऐसे भी लोग हैं जो देते हैं, लेकिन देने में कष्ट अनुभव नहीं करते, न वे उल्लास की ही अभिलाषा करते हैं और न पुण्य समझ कर ही कुछ करते हैं। ~ खलील जिब्रान |
| | * जब तू दान करे, तो जो तेरा दाहिना हाथ करता है, उसे तेरा बायां हाथ न जानने पाए, ताकि तेरा दान गुप्त हो। ~ नवविधान |
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| ===पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें=== | | ===दो चीज़ें बुद्धि की लज्जा हैं=== |
| * तुम में सर्वप्रिय बनने की इच्छा होनी चाहिए। ऐसा करो, जिससे सामान्य लोग तुम्हें पसंद करें। यदि तुम यह सोचते हो कि पीठ पीछे किसी मोमिन, यहूदी या ईसाई की बुराई करने से लोग तुम्हें भला मान लेंगे, तो तुम लोगों का मिजाज नहीं समझते। ~ उमर खैयाम | | * जिस मनुष्य की बुद्धि दुर्भावना से युक्त है तथा जिसने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं रखा है, वह धर्म और अर्थ की बातों को सुनने की इच्छा होने पर भी उन्हें पूर्ण रूप से समझ नहीं सकता। ~ वेदव्यास |
| * तपस्या से लोगों को विस्मित न करें। यज्ञ करके असत्य न बोलें। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें। और दान दे कर उसकी चर्चा न करें। ~ मनुस्मृति | | * मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, पर वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इबन् अबीबकर |
| * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडल होम्स
| | * वाणी मधुर हो तो सब वश में हो जाते हैं। वाणी कटु हो तो सब शत्रु हो जाते हैं। ~ हिंदी लोकोक्ति |
| * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | | * दो चीज़ें बुद्धि की लज्जा हैं- बोलने के समय चुप रहना और चुप रहने के समय बोलना। ~ शेख सादी |
| * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा | |
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| ===पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है=== | | ===दुख अनंत हैं तथा सुख अत्यल्प=== |
| * समय बीतने पर उपार्जित विद्या भी नष्ट हो जाती है, मजबूत जड़ वाले वृक्ष भी गिर जाते हैं, जल भी सरोवर में जाकर (गर्मी आने पर ) सूख जाता है। लेकिन सत्पात्र दिए दान का पुण्य ज्यों का त्यों बना रहता है। - भास | | * दुराग्रह से ग्रस्त चित्त वालों के लिए सुभाषित व्यर्थ है। ~ माघ |
| * मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महंगा सौदा नहीं है। - प्रेमचंद | | * जैसा सुख-दुख दूसरे को दिया जाता है, वैसा ही सुख दु:ख परिणाम में मिलता है। ~ अज्ञात |
| * दूसरों की प्राण रक्षा से बढ़कर संसार में कोई पुण्य नहीं है। - बाणभट्ट | | * दु:ख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर यों ही होते रहते हैं। ~ कालिदास |
| * पुण्य रूपी वृक्ष में तत्काल ही अचिंतनीय फल उत्पन्न होते हैं। - सोमदेव | | * इस संसार में दु:ख अनंत हैं तथा सुख अत्यल्प है, इसलिए दुखों से घिरे सुखों पर दृष्टि नहीं लगानी चाहिए। ~ योगवाशिष्ठ |
| * पीड़ा का सीमातीत हो जाना ही उसकी चिकित्सा है। जैसे बिंदु का समुद्र में विलीन होना ही उसका सुख व विश्राम पा जाना है। - गालिब
| | * पार्थिव सुख ही एकमात्र सुख नहीं है- बल्कि धर्म के लिए, दूसरों के लिए उस सुख को उत्सर्ग कर देना ही श्रेय है। ~ शरतचंद |
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| ===परिचय के पीछे स्वार्थ न हो=== | | ===दुख में मिलते हैं ईश्वर=== |
| * प्रियतम की स्मृति भक्तों का परम धन है जो ज्ञान उन्हें इस धन से वंचित करता हुआ रस शून्य बनाने की प्रेरणा देता है उनकी दृष्टि में वह सर्वथा घातक है। ~ राम किंकर उपाध्याय | | * दु:ख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करन। ~ वेदव्यास |
| * पराजय से सत्याग्रही और अहिंसक की आत्मा को निराशा नहीं होती। उससे तो कार्य-क्षमता और लगन बढ़ती है और सत्य से मनुष्य की बुद्धि परिष्कृत होकर उसका मार्ग-दर्शन करती है। ~ महात्मा गांधी | | * धैर्य, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा आपात स्थिति में होती है। ~ तुलसीदास |
| * किसी को अपना परिचय देना बुरा नहीं है, बुरा तभी है जब वह किसी स्वार्थ या अहंकार से दिया जाता है। ~ अज्ञात | | * ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दु:ख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दु:ख का साथी ईश्वर है। ~ रामचंद डोंगरे |
| | * स्वेच्छा से ग्रहण किए हुए दु:ख को ऐश्वर्य के समान भोगा जा सकता है। ~ शरत |
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| ===प्रार्थना=== | | ===दुख-दर्द जीनियस के भाग्य में होते हैं=== |
| * प्रार्थना तभी प्रार्थना है जब वह अपने आप हृदय से निकलती है। ~ महात्मा गांधी | | * तुम भले हो जब तुम अपने लक्ष्य की ओर दृढ़ता और साहसपूर्वक क़दम बढ़ाते हो। लेकिन तब भी तुम बुरे नहीं हो जब तुम उस तरफ सिर्फ लंगड़ाते हुए जाते हो। इस तरह जानेवाले भी पीछे की तरफ नहीं जाते, आगे ही बढ़ते हैं। ~ खलील जिब्रान |
| * दान तो वही श्रेष्ठ है जो किसी को दीन नहीं बनाता। दया या मेहरबानी से जो हम देते हैं उसके कारण दूसरे की गर्दन नीचे झुकाते हैं। ~ विनोबा | | * दुख-दर्द, नि:संगता और अकेलापन, ये जीनियस के भाग्य में होते हैं, क्योंकि वह काल के विरुद्ध सोचता है। ~ दिनकर |
| * क्रोध न करके क्रोध को, भलाई करके बुराई को, दान करके कृपण को और सत्य बोलकर असत्य को जीतना चाहिए। ~ वेदव्यास | | * अन्य के भीतर प्रवेश करने की शक्ति और अन्य को संपूर्ण रूप से अपना बना लेने का जादू ही प्रतिभा का सर्वस्व और वैशिष्ट्य है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर |
| * गलती कोई भी मनुष्य कर सकता है परंतु मूर्ख के सिवा कोई उसे जारी नहीं रख सकता। ~ सिसरो | | * जब प्रकृति को कोई कार्य संपन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिए एक प्रतिभा का निर्माण करती है। ~ एमर्सन |
| * जिन्हें कहीं से प्रशंसा नहीं मिलती, वे आत्म प्रशंसा करते हैं। ~ अज्ञात
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| ===प्रेम के बिना पृथ्वी कब्र है=== | | ===दुख का दर्शन=== |
| * बिना प्रेम किए मर जाने से ज्यादा दुखद कुछ कोई और नहीं हो सकता। लेकिन इससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जिसे आप प्रेम करते हों, उसे बिना यह बताए ही दुनिया से विदा हो जाएं, कि आप उससे प्रेम करते थे। ~ अज्ञात | | * पहले से ही अधिक दुखी व्यक्ति को दु:ख के अन्य कारण दुखी नहीं करते। ~ भानुदत्त |
| * प्रेम निकाल दो तो यह पृथ्वी कब्र है। ~ रॉबर्ट ब्राउनिंग | | * दु:ख स्वयं ही एक औषधि है। ~ विलियम कोपर |
| * जितनी गहराई, ऊंचाई और विस्तार तक मेरी आत्मा जा सकती है, वहां तक मैं तुमसे प्रेम करती हूं। ~ एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग | | * तुम्हारा दु:ख उस छिलके का तोड़ा जाना है, जिसने तुम्हारे ज्ञान को अपने भीतर छिपा रखा है। ~ खलील जिब्रान |
| * जे दिन गए तुम्हइं बिनु देखे, से बिरंचि मम गिनइ न लेखे। (जो दिन तुम्हें देखे बिना गए, विधाता उन्हें मेरे भाग्य में न गिने।) ~ तुलसी | | * दु:ख के सिवा और किसी उपाय से हम अपनी शक्ति को नहीं जान सकते, और अपनी शक्ति को जितना ही कम करके जानेंगे, आत्मा का गौरव भी उतना ही कम करके समझेंगे। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर |
| * हाउ सैड ऐंड बैड ऐंड मैड इट वाज़ बट स्टिल हाउ इट वाज़ स्वीट(कितना बुरा, उदास और पागल नुमाफिर भी कितना मीठा वह एहसास) ~ कोलरिज | | * दु:ख से दुखित न होने वाले उस दु:ख को ही दुखद कर देंगे। ~ तिरुवल्लुवर |
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| ===प्राणों का मोह त्याग करना, वीरता का रहस्य है=== | | ===दुख के भीतर मुक्ति है=== |
| * मन को विषाद ग्रस्त नहीं बनाना चाहिए। विषाद में बहुत बड़ा दोष है। जैसे क्रोध में भरा हुआ सांप बालक को काट खाता है, उसी प्रकार विषाद व्यक्ति का नाश कर डालता है। ~ वाल्मीकि | | * ज़रूरी नहीं कि जो रूप-रंग में ठीक हो, वह सद्गुण संपन्न भी हो। ~ शेख सादी |
| * वृक्ष अपने सिर पर गर्मी सह लेता है लेकिन अपनी छाया से औरों को गर्मी से बचाता है। ~ कालिदास | | * जिस उद्देश्य के लिए जो वस्तु उपयोगी है, उसके लिए वह अच्छी और सुंदर है। पर जिसके लिए वह अनुपयोगी है, उसके लिए वह बुरी और कुरूप। ~ सुकरात |
| * विपत्ति आती है और चली जाती है, वीर वही है जो धीर रहे और न्याय, सचाई का त्याग न करे। ~ सुदर्शन | | * सुन लो पलटू भेद यह, हंसी बोले भगवान। दु:ख के भीतर मुक्ति है, सुख में नरक निदान। ~ पलटू साहब |
| * प्राणों का मोह त्याग करना, वीरता का रहस्य है। ~ जयशंकर प्रसाद | | * सत्य की बात तो सभी कहते हैं, पर उसका पालन कुछ ही लोग करते हैं। ~ जार्ज बर्कली |
| | * नि:स्पृह मुनि शत्रुओं की उपेक्षा कर शांति से सफलता प्राप्त करते हैं, किंतु राजा नहीं। ~ भारवि |
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| ===प्रेम से शांत होता है वैर=== | | ===दुख या सुख सदा नहीं रहते=== |
| * संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होते। प्रेम से ही वैर शांत होता है। ~ धम्मपद | | * दु:ख या सुख किसी पर सदा नहीं रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभ नीचे, कभी ऊपर यों ही होते रहते हैं। ~ कालिदास |
| * तृण वृत्ति वाले मृग, जल वृत्ति वाले मीन और संतोष वृत्ति वाले सज्जनों के भी इस संसार में शिकारी, मछुवा और चुगलखोर बिना कारण के ही वैरी रहते हैं। ~ भर्तृहरि | | * प्रत्येक व्यक्ति का सुख-दुख अपना-अपना है। ~ आचारांग |
| * व्यंग्य वचन दूसरों का हृदय छेदने में तीर का काम करते हैं। ~ अज्ञात | | * सुख तो स्वभाव से ही अल्पकालिक होते हैं और दु:ख छीर्घकालिक। ~ बाणभट्ट |
| | * सुख-दुख को देनेवाला अन्य कोई नहीं है। इन्हें कोई अन्य देता है, यह कहना कुबुद्धि है। यह अपने ही कर्मों से मिलता है। ~ अज्ञात |
| | * मनुष्य को चाहिए कि वह दु:ख से घिरा होने पर भी सुख की आशा न छोड़े। ~ जातक |
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| ===पड़ोसी भाई से कहीं उत्तम है=== | | ===दुखी के प्रति करुणा=== |
| * प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है। ~ चाणक्य | | * सुखी के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति हर्ष और पापी के प्रति उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न व निर्मल होता है। ~ पतंजलि |
| * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | | * यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद्र चित्त वालों की बात होती है। उदार चित्त वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब है। ~ महोपनिषद |
| * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | | * समग्र विश्व एक ही परिवार है। सारे वर्णभेद असत्य हैं। प्रेम बंधन ही बहुमूल्य है। ~ [[गुरुजाडा अप्पाराव]] |
| * जीवन एक कहानी के सदृश है- वह कितनी लंबी है नहीं, वरन कितनी अच्छी है, यह विचारणीय विषय है। ~ सेनेका | | * एक पंथ बनाते ही तुम विश्वबंधुता के विरुद्ध हो जाते हो। जो सच्ची विश्वबंधुता की भावना रखते हैं, वे अधिक बोलते नहीं, उनका कर्म बोलता है। ~ विवेकानंद |
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| ===प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है=== | | ===दैव का भरोसा, कौन करता है=== |
| * चंद्रमा की किरणों से खिल उठने वाला कुमुद पुष्प सूर्य की किरणों से नहीं खिला रहता। ~ कालिदास | | * जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि |
| * प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। ~ हालसातवाहन | | * भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग ही करते हैं और भाग्य पर आश्रित होकर वे अपना नाश कर लेते हैं। बुद्धिमान लोग तो पुरुषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते हैं। ~ योगवासिष्ठ |
| * प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी | | * पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य भली भांति बढ़ता है। ~ वेदव्यास |
| * जो मेरे साथ भलाई करता है, वह मुझे भला होना सिखा देता है। ~ टामस फुलर | | * भाग्य, पुरुषार्थ और काल तीनों संयुक्त हाकर मनुष्य को फल देते हैं। ~ मत्स्यपुराण |
| * साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन
| | * जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा भी पुरुषार्थ सफल हो जाता है। ~ शुक्रनीति |
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| ===परिश्रम के स्वार्जित भोजन से सबसे मधुर=== | | ===दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है=== |
| * चाहे सूखी रोटी ही क्यों न हो, परिश्रम के स्वार्जित भोजन से मधुर और कुछ नहीं होता। - तिरुवल्लुवर | | * श्रद्धा उसी को मिलती है जो हृदय के गोत्र का होता है। ~ विश्वनाथप्रसाद मिश्र |
| * करुणा करने वालों का शरीर परोपकारों से शोभा पाता है, चंदन से नहीं। - भतृहरि | | * दूध का आश्रय लेनेवाला पानी दूध हो जाता है। ~ चाणक्यसूत्राणि |
| * वृक्ष फल लगने पर झुक जाते हैं। मेघ नए जलों से भरने पर नीचे दूर तक लटक जाते हैं। सत्पुरुष समृद्धियां पाने पर विनम्र हो जाते हैं। परोपकारियों का यही स्वभाव है। - कालिदास | | * दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्वार्थ सधता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| * परोपकार में लगे हुए सज्जनों की प्रवृत्ति पीड़ा के समय भी कल्याणमयी होती है। - भारवि
| | * अंतर्निहित सत्य असत्य का मुकुट है और एक भटका हुआ सत्य उसका सबसे अधिक मूल्यवान रत्न। ~ अरविन्द |
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| ==व== | | ===दुनिया में दो ही ताकतें हैं=== |
| ===विरोध हर सरकार के लिए जरूरी है===
| | * कलाकार अपनी प्रवृत्तियों से भी विशाल है। उसकी भाव-राशि अथाह होती है। ~ मैक्सिम गोर्की |
| * विरोध हर सरकार के लिए जरूरी है। कोई भी सरकार प्रबल विरोध के बिना अधिक दिन टिक नहीं सकती। - डिजरायली | | * कला विचार को मूर्ति में परिणित करती है। ~ एमर्सन |
| * जो हमसे कुश्ती लड़ता है, हमारे अंगों को मजबूत करता है। वह हमारे गुणों को तेज करता है। एक तरह से हमारा विरोधी हमारी मदद ही करता है। - बर्क | | * संपूर्ण कला केवल प्रकृति का ही अनुसरण है। ~ सेनेका |
| * विकास के लिए यूं तो कई चीजें जरूरी होती हैं, लेकिन कठिनाई और विरोध वह देसी मिट्टी है जिसमें पराक्रम और आत्मविश्वास का विकास होता है। - जॉन नेल | | * मानव की बहुमुखी भावनाओं का प्रबल प्रवाह जब रोके नहीं रुकता है, तभी वह कला के रूप में फूट पड़ता है। ~ रस्किन |
| * विरोध बहुत रचनात्मक होता है। वह उत्साहियों को सदैव उत्तेजित करता है, उन्हें बदलता नहीं। - शिलर | | * सच्ची कला दैवी सिद्धि का केवल प्रतिबिंब होती है। ईश्वर की पूर्णता की छाया होती है। ~ माइकल एंजिलो |
| * विपत्ति ही ऐसी तुला है जिस पर हम मित्रों को तोल सकते हैं। सुदिन अच्छी तुला नहीं है। - प्लूटार्क
| | * दुनिया में दो ही ताकतें हैं, तलवार और कलम। और अंत में तलवार हमेशा कलम से हारती है। ~ नेपोलियन |
| | * कला प्रकृति द्वारा देखा हुआ जीवन है। ~ एमिल जोला |
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| ===विश्राम की बात कैसे=== | | ===दीर्घायु होना सब चाहते हैं=== |
| * जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भूलते जाते हैं। - महादेवी वर्मा | | * सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है। सुख अनुकूल है, दु:ख प्रतिकूल है। वध अप्रिय है, जीना प्रिय है। सब जीव दीर्घायु होना चाहते हैं। ~ भगवान महावीर |
| * विवेकी पुरुष को अपने मन में यह विचार करना चाहिए कि मैं कहां हूं, कहां जाऊंगा, मैं कौन हूं, यहां किसलिए आया हूं और किसलिए किसका शोक करूं। - वेदव्यास
| | * मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में अपनी राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर |
| * सभी सच्चे काम आराम हैं। - रामतीर्थ
| | * जीवन के युद्ध में चोटें और आघात बर्दाश्त करने से ही उसमें विजय प्राप्त होती है, उसमें आनंद आता है। ~ अज्ञात |
| * इस समय विश्राम की बात तुम कैसे कर सकते हो? जब हम लोग शरीर त्यागेंगे, तभी विश्राम करेंगे। - विवेकानंद | |
| * विवेकहीन बल काल के समुद्र में ढोंगी की भांति डूब जाता है। - लक्ष्मीनारायण मिश्र | |
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| ===विचार ही कार्य का मूल है=== | | ===दानशीलता हृदय का गुण है=== |
| * हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। - ऋग्वेद | | * दानशीलता हृदय का गुण है, हाथों का नहीं। ~ एडीसन |
| * मर्यादा का उल्लंघन कभी मत करो। - चाणक्य
| | * दानी भी चार प्रकार के होते हैं- कुछ बोलते हैं, देते नहीं, कुछ देते हैं, कभी बोलते नहीं। कुछ बोलते भी हैं और देते भी हैं और कुछ न बोलते हैं न देते हैं। ~ स्थानांग |
| * सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं -जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। - विवेकानंद | | * दान और युद्ध को समान कहा जाता है। थोड़े भी बहुतों को जीत लेते हैं। श्रद्धा से अगर थोड़ा भी दान करो तो परलोक का सुख मिलता है। ~ जातक |
| * अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार ही शांत दिखाई देने लगता है। - योगवासिष्ठ | | * प्रसन्न चित्त से दिया गया अल्प दान भी, हजारों बार के दान की बराबरी करता है। ~ विमानवत्थु |
| * विचार ही कार्य का मूल है। विचार गया तो कार्य गया ही समझो। - महात्मा गांधी | |
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| ===विजय सदा ही भव्य होती है=== | | ===दान देकर उसकी चर्चा न करें=== |
| * अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें और झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें। - धम्मपद | | * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा |
| * विजय सदा ही भव्य होती है, चाहे वह संयोग से प्राप्त हो या दक्षता से। - एरिओस्टो | | * मूर्ख किसान का भी बीज अच्छे खेत में पड़ जाए, तो उसे अच्छी फसल प्राप्त हो जाती है। ~ विशाखदत्त |
| * विजय की इच्छा रखने वाले शूरवीर अपने बल और पराक्रम से वैसी विजय नहीं पाते, जैसी कि सत्य, सज्जनता, धर्म तथा उत्साह से प्राप्त कर लेते हैं। - वेदव्यास | | * तपस्या से लोगों को विस्मित न करें, यज्ञ करके असत्य न बोलें। पीड़ित होकर भी गुरु की निंदा न करें। और दान देकर उसकी चर्चा न करें। ~ मनुस्मृति |
| * जो बल से विजय प्राप्त करता है, वह शत्रु पर आधी विजय ही प्राप्त करता है। - मिल्ट | | * निस्संदेह दान की बहुत प्रशंसा हुई है, पर दान से धर्माचरण ही श्रेष्ठ है। ~ जातक |
| | * नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। ~ नारायण पंडित |
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| ===वह पशुओं से भी गया-बीता है=== | | ===दिन को प्रेम से प्रारंभ करो=== |
| * मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | | * सभी प्रकार की घृणा का अर्थ है आत्मा के द्वारा आत्मा का हनन। इसलिए प्रेम ही जीवन का यथार्थ नियामक है। प्रेम की अवस्था को प्राप्त करना ही सिद्धावस्था है। ~ विवेकानंद |
| * जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। ~ दयानंद | | * प्रेम कर्कश को मधुर बना देता है, असंत को संत बनाता है, पापी को पुण्यवान बनाता है और अंधकार को प्रकाशमय बनाता है। ~ बंकिमचंद |
| * बल तथा कोश से संपन्न महान व्यक्तियों का महत्व ही क्या यदि उन्होंने दूसरों के कष्ट का उसी क्षण विनाश नहीं किया। ~ सोमदेव | | * दिन को प्रेम से प्रारंभ करो, दिन को प्रेम से भरो, दिन को प्रेम से बिताओ, दिन को प्रेम से समाप्त करो- यही परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग है। ~ सत्य साईं |
| * उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है। ~ अज्ञात | | * प्रेम की मृत्यु नहीं होती, प्रेम अमृत रहता है। ~ [[उमाशंकर जोशी]] |
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| ===विवेकहीन बल=== | | ===दीनता मानसिक दुर्बलता है=== |
| * जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भूलते जाते हैं। ~ महादेवी वर्मा | | * दीनता उस मानसिक दुर्बलता को कहते हैं जो मनुष्य को दूसरे की दया पर जीने का प्रलोभन देती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| * विवेकी पुरुष को अपने मन में यह विचार करना चाहिए कि मैं कहां हूं, कहां जाऊंगा, मैं कौन हूं, यहां किसलिए आया हूं और किसलिए किसका शोक करूं। ~ वेदव्यास | | * दुर्जन व्यक्ति बिना दूसरों की निंदा किए बिना प्रसन्न नहीं हो सकता। ~ अज्ञात |
| * सभी सच्चे काम आराम हैं। रामतीर्थ | | * सच्चा दान दो प्रकार का होता है - एक वह जो श्रद्धावश दिया जाता है, दूसरा वह जो दयावश दिया जाता है। ~ रामचंद्र शुक्ल |
| * इस समय विश्राम की बात तुम कैसे कर सकते हो? जब हम लोग शरीर त्यागेंगे, तभी विश्राम करेंगे। ~ विवेकानंद
| | * बुरों पर दया करना भलों पर अत्याचार है, और अत्याचारियों को क्षमा करना पीड़ितों पर अत्याचार है। ~ शेख सादी |
| * विवेकहीन बल काल के समुद्र में ढोंगी की भांति डूब जाता है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | |
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| ===विनाश काल आने पर बुद्धि विपरीत=== | | ===दुष्टों का बल हिंसा है=== |
| * आपदा ही एक ऐसी वस्तु है, जो हमें अपने जीवन को गहराइयों में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। - विवेकानंद | | * दुष्टों का बल हिंसा है। राजाओं का बल दंड विधि है। स्त्रियों का बल सेवा है। लेकिन गुण वालों का बल क्षमा है। ~ विदुर |
| * न पहले कभी हुआ और न किसी ने देखा, सोने के मृग की कभी बात भी नहीं हुई, फिर भी राम को सुवर्ण मृग का लोभ हुआ। विनाश काल आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है। - चाणक्य नीति | | * सेवा के लिए अर्पण किया गया बल हमेशा टिकेगा, वह अमर होगा। ~ वाल्मीकि |
| * भ्रम में पड़े हुए व्यक्ति को विवेक कहां? - माघ | | * अधिक बलवान तो वे ही होते हैं जिनके पास बुद्धि बल होता है। जिनमें केवल शारीरिक बल होता है, वे वास्तविक बलवान नहीं होते। ~ वेदव्यास |
| * मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। - खलील जिब्रान
| | * सच्चा बलवान तो वही होता है, जिसने अपने मन पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लिया हो। ~ विनोबा भावे |
| * अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। - नारायण पंडित
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| ===विचार ही कार्य का मूल है=== | | ===दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला=== |
| * हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद | | * दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। ~ शंकराचार्य |
| * मर्यादा का उल्लंघन कभी मत करो। ~ चाणक्य | | * कठिनाइयों का मुकाबला करो, चाहे सारी दुनिया दुश्मन ही क्यों न बन जाए। ~ मैजिनी |
| * सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं -जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। ~ विवेकानंद | | * मुट्ठी भर संकल्पवान लोग, जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं। ~ महात्मा गांधी |
| * अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार ही शांत दिखाई देने लगता है। ~ योगवासिष्ठ | | * सुवासना और दुर्वासना- ये दोनों मोक्ष और बंधन के मूल कारण हैं। ~ माधवदेव |
| * विचार ही कार्य का मूल है। विचार गया तो कार्य गया ही समझो। ~ महात्मा गांधी | | * विपत्तियों में ही लोग अपनी शक्ति से परिचित होते हैं, समृद्धि में नहीं। ~ अज्ञात |
| | * विपत्ति में अपनी प्रकृति बदल लेना अच्छा है पर अपने आश्रय के प्रतिकूल चेष्टा करना सर्वथा ग़लत है। ~ अभिनंद |
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| ===विरोध अनिवार्य है=== | | ===दीपक की सीख=== |
| * हर सुधार का कुछ न कुछ विरोध अनिवार्य है। परंतु विरोध और आंदोलन, एक सीमा तक, समाज में स्वास्थ्य के लक्षण होते हैं। ~ महात्मा गांधी | | * निर्मल अंत:करण को जिस समय जो प्रतीत हो वही सत्य है। उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है। ~ महात्मा गांधी |
| * दुखियों की दशा वही जानता है, जो अपनी परिस्थितियों से दुखी हो गया हो। ~ शेख सादी | | * जिस प्रकार दीपक दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करता है और अपने स्वरूप को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार अंत:करण दूसरी वस्तुओं को भी प्रत्यक्ष करता है और अपने आप को भी। ~ संपूर्णानंद |
| * मृत्यु देह के लिए अनमोल वरदान है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य | | * संदेह की स्थिति में सज्जनों के अंत:करण की प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है। ~ कालिदास |
| * यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ~ नवविधान | | * ज्ञाताज्ञात पाप ही अंत:करण की मलिनता है। जब तक अंत:करण मलरहित, पापरहित नहीं होगा, तब तक वास्तविक दृष्टि का उदय नहीं होगा। ~ शंकराचार्य |
| * समृद्धियां पराक्रमी मनुष्य के साथ रहती हैं, अनुत्साही मनुष्य के साथ नहीं। ~ भारवि
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| ===विद्या ही पूजनीय बनाती है=== | | ==ध== |
| * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। - वेद व्यास | | ===धन का उपयोग=== |
| * दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। - शंकराचार्य | | * अपने अहंकार पर विजय पाना ही प्रभु की सेवा है। ~ महात्मा गांधी |
| * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। - कल्हण | | * प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है। ~ चाणक्य |
| * कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। - चाणक्य
| | * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास |
| | * बैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर |
| | * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्म्स |
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| ===वही मंगल है जिससे मन प्रसन्न हो=== | | ===धन जब बढ़ता है, मद भी साथ-साथ चढ़ता है=== |
| * वही मंगल है जिससे मन प्रसन्न हो। वही जीवन है जो परसेवा में बीते। वही अर्जित है जिसका भोग स्वजन करें। ~ गरुड़पुराण | | * धन वह है जो हाथ में हो, मित्र वह है जो विपत्ति में हमेशा साथ दे, रूप वह है जहां गुण है, विज्ञान वह है जहां धर्म हो। ~ हाल सातवाहन |
| * गलती से जिनको तुम 'पतित' कहते हो, वे वे हैं जो 'अभी उठे नहीं' हैं। ~ रामतीर्थ | | * आत्मा से संबंध रखने वाली बातों में पैसे का कोई स्थान नहीं है। ~ महात्मा गांधी |
| * जंग लग कर नष्ट होने की अपेक्षा जीर्ण होकर नष्ट होना अधिक अच्छा है। ~ रिचर्ड कंबरलैंड | | * धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महंगा सौदा नहीं है। ~ प्रेमचंद |
| * परिश्रमी धीर व्यक्ति को इस जगत में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है। ~ सोमदेव | | * धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर |
| * निरंतर और अथक परिश्रम करनेवाले भाग्य को भी परास्त कर देंगे। ~ तिरुवल्लुवर | | * धन जब बढ़ता है, मद भी साथ-साथ चढ़ता है। मद के प्रकोप से दुर्गुण और भी बढ़ते हैं। धन के निकल जाने पर मद उतर जाता है। उसके अभाव में दुर्गुण भी अदृश्य हो जाते हैं। ~ वेमना |
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| ===विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है=== | | ===धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो=== |
| * प्रेम से शोक उत्पन्न होता है, प्रेम से भय उत्पन होता है, प्रेम से मुक्त को शोक नहीं, फिर भय कहां से? - धम्मपद | | * धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर |
| * विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है, ज्ञान से विनय, विनय से लोगों का प्रेम और लोगों के प्रेम से क्या नहीं प्राप्त होता? - अज्ञात | | * मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों के प्रति अदोह, अनुग्रह और दान - यह सज्जनों का सनातन धर्म है। ~ वेदव्यास |
| * पदार्थों का कोई आंतरिक हेतु ही मिलाता है। प्रेम बाहरी उपाधियों पर आश्रित नहीं होता। - भवभूति
| | * हर व्यक्ति को जो चीज़ हृदयंगम हो गई है, वह उसके लिए धर्म है। धर्म बुद्धिगम्य वस्तु नहीं, हृदयगम्य है। ~ महात्मा गांधी |
| * जिसका घर है, उसके लिए वह मथुरापुरी जैसा है। जिसका वर है, उसके लिए तो वह श्रीकृष्ण जैसा है। - उडि़या लोकोक्ति | | * स्वधर्म के प्रति प्रेम, परधर्म के प्रति आदर और अधर्म के प्रति उपेक्षा करनी चाहिए। ~ विनोबा |
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| ==श== | | ===धन की तीन गति- दान, भोग और नाश=== |
| ===शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं=== | | * दान, भोग और नाश - ये तीन गतियां धन की होती हैं। जो न देता है और न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है। ~ भर्तृहरि |
| * शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है, वस्तुत: वही विद्वान है। - हितोपदेश | | * मोहांध तथा अविवेकी के समीप लक्ष्मी अधिक समय नहीं टिकती। ~ कथासरित्सागर |
| * निर्मल अंत:करण को जिस समय जो प्रतीत हो वही सत्य है। उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है। - महात्मा गांधी | | * अधन ही जीव का धन है, धन आधा धन है, धान्य महद् धन है तथा विद्या तप और कीर्ति अतिधन हैं। ~ भगदत्त जल्हण |
| * अविश्वास से अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। और जो विश्वासपात्र नहीं है, उससे कुछ लेने को जी भी नहीं चाहता। अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान हो जाता है। - वेद व्यास | | * संसार में धनियों के प्रति गैर मनुष्य भी स्वजन जैसा आचरण करते हैं। ~ विष्णु शर्मा |
| * जब कोई व्यक्ति अहिंसा की कसौटी पर खरा उतर जाता है तो दूसरे व्यक्ति स्वयं ही उसके पास आकर वैरभाव भूल जाते हैं। - पतंजलि
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| * मनुष्य जिस समय पशु तुल्य आचरण करता है उस समय वह पशुओं से भी नीचे गिर जाता है। - रवींद्रनाथ | |
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| ===शांति और सुख बाह्य वस्तुएं नहीं हैं=== | | ===धन का अर्जन और रक्षण करो=== |
| * अपनी प्रभुता के लिए चाहे जितने उपाय किए जाएं परंतु शील के बिना संसार में सब फीका है । - वेदव्यास | | * संपत्ति तो जन्म, मृत्यु वृद्धावस्था, शोक और राग के बीज का उत्तम अंकुर है। इसके प्रभाव में अंधा हुआ मानव मुक्ति के मार्ग को नहीं देख सकता। ~ देवीभागवत |
| * शरीर आत्मा के रहने की जगह होने के कारण तीर्थ जैसा पवित्र है। - गांधी | | * धन का अर्जन, वर्धन और रक्षण करना चाहिए। बिना कमाये खाया जाता हुआ धन सुमेरुवत होने पर भी नष्ट हो जाता है। ~ शाड़ंधर-पद्धति |
| * शांति और सुख बाह्य वस्तुएं नहीं हैं, वह तुम्हारे अंदर ही निवास करती हैं। - सत्य साईं बाबा | | * तुम्हारी जेब में एक पैसा है, वह कहां से और कैसे आया है, वह अपने से पूछो। उस कहानी से बहुत सीखोगे। ~ महात्मा गांधी |
| * अपने भीतर ही यदि शांति मिल गई तो सारा संसार शांतिमय प्रतीत होता है। - योगवाशिष्ठ | | * धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह कोई महंगा सौदा नहीं। ~ प्रेमचंद |
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| ===शांति की अपनी विजयें होती हैं=== | | ===धन आता-जाता रहता है=== |
| * शांति की अपनी विजयें होती हैं, जो युद्ध की अपेक्षा कम कीर्तिमयी नहीं होतीं। - मिल्टन | | * जैसे रथ का पहिया इधर-उधर नीचे-ऊपर घूमता रहता है, वैसे ही धन भी विभिन्न व्यक्तियों के पास आता-जाता रहता है, वह कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता। ~ ऋग्वेद |
| * कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। - मज्झिम निकाय | | * हे राजन्, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित |
| * जब बोलते समय वक्ता श्रोता की अवहेलना करके दूसरे के लिए अपनी बात कहता है, तब वह वाक्य श्रोता के हृदय में प्रवेश नहीं करता है। - वेदव्यास | | * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास |
| * किसी के धन का लालच मत करो। - ईशावास्योपनिषद् | | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ करदंड कई बार उतनी समस्याओं से रक्षा नहीं करता, जितनी कि थकान उत्पन्न कर देता है। ~ कालिदास |
| * सुखी के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति हर्ष और पापी के प्रति उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न व निर्मल होता है। - पतंजलि
| | * जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। पुन: किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है। ~ वेदव्यास |
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| ===शोक का भागी होता है=== | | ===धन पाला हुआ शत्रु=== |
| * जो फल को जाने बिना ही कर्म की ओर दौड़ता है, वह फल-प्राप्ति के अवसर पर केवल शोक का भागी होता है- जैसे कि पलाश को सींचनेवाला पुरुष उसका फल न खाने पर खिन्न होता है। ~ वाल्मीकि | | * जिसने अपने को वश में कर लिया है, उसकी जीत को देवता भी हार में नहीं बदल सकते। ~ भगवान बुद्ध |
| * जब तक तकलीफ सहने की तैयारी नहीं होती तब तक फायदा दिखाई दे ही नहीं सकता। फायदे की इमारत नुकसान की धूप में बनी है। ~ विनोबा | | * उदार मन वाले विभिन्न धर्मों में सत्य देखते हैं, संकीर्ण मन वाले केवल अंतर देखते हैं। ~ एक चीनी कहावत |
| * समय गंवाना सभी खर्चों से कीमती और व्यर्थ होता है। ~ अज्ञात | | * 'कृपया' और 'धन्यवाद'- ये ऐसी रेजगारी हैं जिनके द्वारा हम सामाजिक प्राणी होने का मूल्य चुकाते हैं। ~ गार्डनर |
| * प्रेम द्वेष को परास्त करता है। ~ गांधी | | * अच्छी नसीहत मानना अपनी योग्यता बढ़ाना है। ~ सोलन |
| | * यदि अपने पास धन इकट्ठा हो जाए, तो वह पाले हुए शत्रु के समान है क्योंकि उसे छोड़ना भी कठिन हो जाता है। ~ वेदव्यास |
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| ===शंका का अंत शांति का प्रारंभ है=== | | ===धन उसका है जो उपभोग करता है=== |
| * शंका के मूल में श्रद्धा का अभाव रहता है। - महात्मा गांधी | | * वही व्यक्ति सबसे अधिक दौलतमंद है, जिसकी प्रसन्नता सबसे सस्ती है। ~ थोरो |
| * दही में जितना भी दूध डालिए, दही होता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है। - हजारीप्रसाद द्विवेदी | | * नकद दौलत अल्लादीन का चिराग है। ~ बायरन |
| * अपने दोषों के कारण ही मनुष्य शंकित होता है। - शूद्रक | | * धन उसका नहीं जिसने उसे अर्जित किया है, और उसका भी नहीं जिसने उसे संचित रखा है। धन उसका है, जो उसका उपभोग करता है। ~ फ्रैंकलिन |
| * गंभीरता से शंका करने वाला मन सजीव मन है। - सिस्टर निवेदिता
| | * जिस तरह तीतर अपने अंडों को नहीं सेता, उसी तरह बेईमानी से कमाने वाला व्यक्ति अपने धन का उपभोग नहीं कर पाता। और मृत्यु के बाद लोग उसे मूर्ख और कुटिल कह कर बुलाते हैं। ~ रस्किन बांड |
| * शंका का अंत शांति का प्रारंभ है। - पेट्रार्क | | * धन अथाह समुद्र है, जिसमें इज्जत, अंत: करण और सत्य - सब कुछ डूब सकते हैं। ~ कोजले |
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| ===शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती=== | | ===धन उत्तम कर्मों से पैदा होता है=== |
| * लोगों को यह याद रखना चाहिए कि शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती। यह वह भेंट है, जिसे मनुष्य एक-दूसरे को देते हैं। - एली वाइजेला | | * धन उत्तम कर्मों से उत्पन्न होता है। साहस, योग्यता, कीर्ति, वेग, दृढ़ निश्चय से बढ़ता है। चतुराई से फलता-फूलता है और संयम से सुरक्षित रहता है। ~ विदुर |
| * अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। - सोमदेव
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| * सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं- जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। - विवेकानंद
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| * हे राजन, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। - नारायण पंडित
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| * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। - सत्य साईंबाबा
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| ===शक्ति भय के अभाव में रहती है=== | | ===धर्म संपूर्ण जीवन की पद्धति है=== |
| * अपने खजाने में वृद्धि करने के लिए दूसरे के हिस्से को हड़प लेने वाला व्यक्ति निकृष्ट है। - तिरुवल्लुवर | | * हर व्यक्ति को जो चीज़ हृदयंगम हो गई है, वह उसके लिए धर्म है। धर्म बुद्धिगम्य वस्तु नहीं, हृदयगम्य है। ~ महात्मा गांधी |
| * धन्य वह है जो किसी बात की आशा नहीं करता, क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। - अलेक्जेंडर पोप
| | * सारे ही धर्म एक समान बात करते हैं। मनुष्यता के ऊंचे गुणों को विकसित करना ही धर्म का उद्देश्य है। ~ हरिकृष्ण 'प्रेमी' |
| * शक्ति भय के अभाव में रहती है, न कि मांस या पुट्ठों के गुणों में, जो कि हमारे शरीर में होते हैं। - महात्मा गांधी | | * धर्म संपूर्ण जीवन की पद्धति है। धर्म जीवन का स्वभाव है। ऐसा नहीं हो सकता कि हम कुछ कार्य तो धर्म की मौजूदगी में करें और बाकी कामों के समय उसे भूल जाएं। ~ दिनकर |
| * जिनके भीतर आचरण की दृढ़ता रहती है, वे ही विचार में निर्भीक और स्पष्ट हुआ करते हैं। - हजारीप्रसाद द्विवेदी | | * जितने बंधे - बंधाए नियम और आचार हैं उनमें धर्म अंटता नहीं। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| * केवल शरीर के मैल उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता। मानसिक मैल का परित्याग करने पर ही वह भीतर से उत्पन्न होता है। - स्कंदपुराण
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| ===शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है=== | | ===धर्म का पालन धैर्य से होता है=== |
| * वृद्धावस्था विचार करती है और यौवन साहस करता है। - राउपाख | | * मुझे बताओ कि तुम किन लोगों के साथ रहते हो, मैं तुम्हें बता दूंगा कि तुम कौन हो? ~ लॉर्ड चैस्टरफील्ड |
| * शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। - सैमुअल स्माइल्स | | * एक बुराई दूसरी बुराई से उत्पन्न होती है। ~ टेरेंस |
| * मैं जितने दीपक जलाता हूं, उनमें से केवल लपट और कालिमा ही प्रकट होती है। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
| | * धर्म का पालन धैर्य से होता है। ~ महात्मा गांधी |
| * परमेश्वर विद्वानों की संगति से प्राप्त होता है। - ऋग्वेद | | * जो सचमुच मनुष्य है, वह विदोह करेगा, अन्याय के प्रति विदोह। ~ विमल मित्र |
| * प्रिय वचन बोलने से सब प्राणी संतुष्ट हो जाते हैं, अत: प्रिय वचन ही बोलना चाहिए। वचन में दरिद्रता क्या? - अज्ञात | | * भगवान की दृष्टि में, मैं तभी आदरणीय हूं जब मैं कार्यमग्न हो जाता हूं। तभी ईश्वर एवं समाज मुझे प्रतिष्ठा देते हैं। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर |
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| ===शिष्टाचार का मूल सिद्धांत=== | | ===धर्म व्यवहार अधिक है=== |
| * पक्षपात, गुणों को दोष और दोष को गुण बना देता है। ~ राजशेखर | | * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद |
| * धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मी सब शील के ही आश्रय पर रहते हैं। शील ही सबकी नींव है। ~ वेदव्यास
| | * जब करुणा प्राणों में बस जाती है, तभी धर्म मनुष्य को सुलभ होता है। ~ दुर्गा भागवत |
| * शिष्टाचार का मूल सिद्धांत है दूसरे को अपने प्रेम और आदर का परिचय देना और किसी को असुविधा और कष्ट न पहुंचाना। ~ अज्ञात | | * मनुष्य की सभी वृत्तियों का चरम प्रकाश धर्म में होता है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर |
| * योग्य शिष्य को जो शिक्षा दी जाती है, वह अवश्य फलती है। ~ कालिदास
| | * धर्म विश्वास की अपेक्षा व्यवहार अधिक है। ~ राधाकृष्णन |
| | | * धर्म के विषय में जोर-जबर्दस्ती ठीक नहीं होती। ~ क़ुरान |
| ==भ==
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| ===भलाई का जीवन===
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| * दूसरे का बुरा चाहने वाला अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। - उमर खैयाम | |
| * नेकी अगर करने वालों के दिल में रहे तो नेकी है, बाहर निकल जाए तो बदी है। - प्रेमचंद
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| * भलाई से बढ़कर जीवन और बुराई से बढ़कर मृत्यु नहीं है। - आदिभट्टल नारायण दासु | |
| * अगर तुम किसी की भलाई करते हो तो इह और पर दोनों लोकों में तुम्हारी भलाई होती है। - तिक्कना
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| * जिससे बहुत लोग भयभीत रहते हैं, वह स्वयं भी बहुतों से भयभीत रहता है। - पब्लिलियस साइरस | |
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| ===भलाई करने वाला भलाई सिखाता है===
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| * चंद्रमा की किरणों से खिल उठने वाला कुमुद पुष्प सूर्य की किरणों से नहीं खिला रहता। - कालिदास
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| * प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। - हालसातवाहन
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| * प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। - महात्मा गांधी
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| * जो मेरे साथ भलाई करता है, वह मुझे भला होना सिखा देता है। - टामस फुलर
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| * साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। - उत्तराध्ययन
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| ===भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं=== | | ===धर्म करना चाहिए, अधर्म नहीं=== |
| * भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं - बाल्मीकि | | * वही बात बोलनी चाहिए जिससे न स्वयं को कष्ट हो और न दूसरों को ही। वस्तुत: सुभाषित वाणी ही श्रेष्ठ वाणी है। ~ थेरगाथा |
| * भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। जहां दिखावे का भाव हैं वहां कृत्रिमता है। - हनुमान प्रसाद
| | * धर्म करना चाहिए, अधर्म नहीं। प्रिय करना चाहिए, अप्रिय नही। सत्य करना चाहिए, असत्य नहीं। ~ संयुत्तनिकाय |
| * यदि तुम भूलों को रोकने के लिए दरवाजा ही बंद कर दोगे, तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। - रवींद्रनाथ
| | * जो मनुष्य देश और काल के ज्ञान से रहित, परिणाम में कटु, अप्रिय, अपने लिए लघुताकारक और अकारण वचन बोलता है, उसका वह वचन नहीं, विष है। ~ विष्णु शर्मा |
| * जो आदर्श हमने सच्चे अंत:करण से बनाया है, मन वचन और काया एक करके जिस आदर्श की सृष्टि की है, वह अवश्य ही हमारे सामने सत्य के रूप में प्रकट होगा। - स्वेट मार्डेन
| | * न्यून वाणी मूर्खो की समझ में नहीं आती और अधिक बोलना विद्वानों को उद्विग्न करता है। ~ धनंजय |
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| ===भगवान तुम्हारे सामने है===
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| * मनुष्य के अंतर में शुभ और अशुभ दोनों तरह की वृत्तियां हैं। लेकिन अंतरतम में तो शुभ ही भरा है। प्रार्थना से उस अंतरतम में प्रवेश होता है। - विनोबा
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| * भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। जहां दिखावे का भाव हैं वहां कृत्रिमता है। - हनुमान प्रसाद | |
| * भगवान तुम्हारे सामने है। संसार से पीठ मोड़ो, वह तुम्हें अपने सामने खड़ा दिखाई देगा। - सत्य साईं बाबा
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| * यदि तुम भूलों को रोकने के लिए दरवाजा ही बंद कर दोगे, तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। - रवींद्र
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| * जो भलाई से प्रेम करता है वह देवताओं की पूजा करता है। जो आदरणीयों का सम्मान करता है वह ईश्वर की नजदीक रहता है। - इमर्सन | |
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| ===भजन जीभ से नहीं हृदय से===
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| * सब जगह पुरुष ही पंडित (बुद्धिमान)नहीं होता। जिस-तिस विषय में विलक्षण स्त्रियां भी पंडित होती हैं। - जातक
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| * निरंतर परिश्रम करने वाले भाग्य को भी परास्त कर देते हैं। - तिरुवल्लुवर
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| * वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियां परोपकार के लिए बहती हैं, गायें परोपकार के लिए दूध देती हैं, यह शरीर परोपकार के लिए ही है। - अज्ञात
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| * जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे दिन हमें बुद्धिमान बनाते हैं। - जॉन मेसफील्ड
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| * प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं, हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। - महात्मा गांधी
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| ==ध==
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| ===धन का उपयोग===
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| * अपने अहंकार पर विजय पाना ही प्रभु की सेवा है। - महात्मा गांधी | |
| * प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है। - चाणक्य
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| * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। - वेद व्यास
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| * बैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। - सोमेश्वर
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| * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। - ओलिवर वेंडेल होल्म्स
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| ===धन जब बढ़ता है, मद भी साथ-साथ चढ़ता है===
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| * धन वह है जो हाथ में हो, मित्र वह है जो विपत्ति में हमेशा साथ दे, रूप वह है जहां गुण है, विज्ञान वह है जहां धर्म हो। - हाल सातवाहन
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| * आत्मा से संबंध रखने वाली बातों में पैसे का कोई स्थान नहीं है। - महात्मा गांधी
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| * धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महंगा सौदा नहीं है। - प्रेमचंद
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| * धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। - तिरुवल्लुवर
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| * धन जब बढ़ता है, मद भी साथ-साथ चढ़ता है। मद के प्रकोप से दुर्गुण और भी बढ़ते हैं। धन के निकल जाने पर मद उतर जाता है। उसके अभाव में दुर्गुण भी अदृश्य हो जाते हैं। - वेमना
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| ===धर्म का अर्थ=== | | ===धर्म का अर्थ=== |
| * धर्म का अर्थ कर्मकांड नहीं होता, वह हमारे हृदय की संचित ऊर्जा है जो सबके कल्याण के लिए उद्यम करती है। - विवेकानंद | | * धर्म का अर्थ कर्मकांड नहीं होता, वह हमारे हृदय की संचित ऊर्जा है जो सबके कल्याण के लिए उद्यम करती है। ~ विवेकानंद |
| * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? - भामह | | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह |
| * हमारी श्रद्धा अखंड बत्ती जैसी होनी चाहिए। वह हमको तो प्रकाश देती ही है, आसपास भी देती है। - महात्मा गांधी | | * हमारी श्रद्धा अखंड बत्ती जैसी होनी चाहिए। वह हमको तो प्रकाश देती ही है, आसपास भी देती है। ~ महात्मा गांधी |
| * स्वार्थ की अनुकूलता और प्रतिकूलता से ही मित्र और शत्रु बना करते हैं। - वेदव्यास | | * स्वार्थ की अनुकूलता और प्रतिकूलता से ही मित्र और शत्रु बना करते हैं। ~ वेदव्यास |
| * अगर मूर्ख, लोभ और मोह के पंजे में फंस जाएं तो वे क्षम्य हैं, परंतु विद्या और सभ्यता के उपासकों की स्वार्थांधता अत्यंत लज्जाजनक है। - प्रेमचंद्र | | * अगर मूर्ख, लोभ और मोह के पंजे में फंस जाएं तो वे क्षम्य हैं, परंतु विद्या और सभ्यता के उपासकों की स्वार्थांधता अत्यंत लज्जाजनक है। ~ प्रेमचंद्र |
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| ===धोखा देने वाला धोखा खाता है===
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| * हम संसार को गलत पढ़ते हैं और कहते हैं कि वह हमें धोखा देता है। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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| * धोखा देने वाला धोखा खाता है, दूसरों के रास्ते में गड्ढा खोदने वाले को कुआं तैयार मिलता है। - हजारीप्रसाद द्विवेदी
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| * आदमी को अपने को धोखा देने की शक्ति दूसरों को धोखा देने की शक्ति से कहीं अधिक है। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हरेक समझदार व्यक्ति है। - महात्मा गांधी
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| * यदि तू अपने हृदय में फूल का विचार करेगा तो फूल हो जाएगा और यदि उसी के प्रेमी बुलबुल में ध्यान लगाएगा तो बुलबुल बन जाएगा। - जामी
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| * विपत्ति में भी जिसकी बुद्धि कार्यरत रहती है, वही धीर है। - सोमदेव
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| ===धर्म सेवा का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं=== | | ===धर्म सेवा का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं=== |
| * धर्म से अर्थ उत्पन होता है। धर्म से सुख होता है। धर्म से मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है। धर्म जगत का सार है। ~ वाल्मीकि | | * धर्म से अर्थ उत्पन्नहोता है। धर्म से सुख होता है। धर्म से मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है। धर्म जगत् का सार है। ~ वाल्मीकि |
| * जहां धर्म नहीं, वहां विद्या, लक्ष्मी, स्वास्थ्य आदि का भी अभाव होता है। धर्मरहित स्थिति में बिल्कुल शुष्कता होती है, शून्यता होती है। ~ महात्मा गांधी | | * जहां धर्म नहीं, वहां विद्या, लक्ष्मी, स्वास्थ्य आदि का भी अभाव होता है। धर्मरहित स्थिति में बिल्कुल शुष्कता होती है, शून्यता होती है। ~ महात्मा गांधी |
| * धर्म सेवा का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं। ~ प्रेमचंद | | * धर्म सेवा का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं। ~ प्रेमचंद |
| * धर्म की शक्ति ही अनेक जीवन की शक्ति है, धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है। ~ राधाकृष्णन | | * धर्म की शक्ति ही अनेक जीवन की शक्ति है, धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है। ~ राधाकृष्णन |
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| ===धन पाला हुआ शत्रु=== | | ===धोखा देने वाला धोखा खाता है=== |
| * जिसने अपने को वश में कर लिया है, उसकी जीत को देवता भी हार में नहीं बदल सकते। - भगवान बुद्ध | | * हम संसार को ग़लत पढ़ते हैं और कहते हैं कि वह हमें धोखा देता है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर |
| * उदार मन वाले विभिन्न धर्मों में सत्य देखते हैं, संकीर्ण मन वाले केवल अंतर देखते हैं। - एक चीनी कहावत | | * धोखा देने वाला धोखा खाता है, दूसरों के रास्ते में गड्ढा खोदने वाले को कुआं तैयार मिलता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| * 'कृपया' और 'धन्यवाद'- ये ऐसी रेजगारी हैं जिनके द्वारा हम सामाजिक प्राणी होने का मूल्य चुकाते हैं। - गार्डनर | | * आदमी को अपने को धोखा देने की शक्ति दूसरों को धोखा देने की शक्ति से कहीं अधिक है। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हरेक समझदार व्यक्ति है। ~ महात्मा गांधी |
| * अच्छी नसीहत मानना अपनी योग्यता बढ़ाना है। - सोलन | | * यदि तू अपने हृदय में फूल का विचार करेगा तो फूल हो जाएगा और यदि उसी के प्रेमी बुलबुल में ध्यान लगाएगा तो बुलबुल बन जाएगा। ~ जामी |
| * यदि अपने पास धन इकट्ठा हो जाए, तो वह पाले हुए शत्रु के समान है क्योंकि उसे छोड़ना भी कठिन हो जाता है। - वेदव्यास | | * विपत्ति में भी जिसकी बुद्धि कार्यरत रहती है, वही धीर है। ~ सोमदेव |
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| | ===धैर्य से होता है काम=== |
| | * सज्जनों की संगति होने पर दुर्जनों में भी सुजनता आ ही जाती है। ~ क्षत्रचूड़ामणि |
| | * किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, उसमें धैर्य की आवश्यकता भी पड़ती है। ~ गेटे |
| | * जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। ~ गुरु नानक |
| | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर |
| | * जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि |
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| ===धैर्य प्रतिभा का आवश्यक अंग है=== | | ===धैर्य प्रतिभा का आवश्यक अंग है=== |
| * प्रतिष्ठा बनने में कई वर्ष लग जाते हैं, कलंक एक पल में लग जाता है। - सुदर्शन | | * प्रतिष्ठा बनने में कई वर्ष लग जाते हैं, कलंक एक पल में लग जाता है। ~ सुदर्शन |
| * प्रतिभा अपना मार्ग स्वयं निर्धारित कर लेती है और अपना दीपक स्वयं लिए चलती है। - विल्मट | | * प्रतिभा अपना मार्ग स्वयं निर्धारित कर लेती है और अपना दीपक स्वयं लिए चलती है। ~ विल्मट |
| * धैर्य प्रतिभा का आवश्यक अंग है। - डिजरायली | | * धैर्य प्रतिभा का आवश्यक अंग है। ~ डिजरायली |
| * महान ध्येय के प्रयत्न में ही आनंद है, उल्लास है और किसी अंश तक प्राप्ति की मात्रा भी है। - नेहरू | | * महान् ध्येय के प्रयत्न में ही आनंद है, उल्लास है और किसी अंश तक प्राप्ति की मात्रा भी है। ~ नेहरू |
| * जिसे हम प्यार करते हैं उसी के अनुसार हमारा रूप और आकार निर्मित होता है। - गेटे | | * जिसे हम प्यार करते हैं उसी के अनुसार हमारा रूप और आकार निर्मित होता है। ~ गेटे |
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| ===धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो===
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| * धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। - तिरुवल्लुवर
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| * मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों के प्रति अदोह, अनुग्रह और दान - यह सज्जनों का सनातन धर्म है। - वेदव्यास
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| * हर व्यक्ति को जो चीज हृदयंगम हो गई है, वह उसके लिए धर्म है। धर्म बुद्धिगम्य वस्तु नहीं, हृदयगम्य है। - महात्मा गांधी
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| * स्वधर्म के प्रति प्रेम, परधर्म के प्रति आदर और अधर्म के प्रति उपेक्षा करनी चाहिए। - विनोबा
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| ===धन की तीन गति- दान, भोग और नाश===
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| * दान, भोग और नाश -ये तीन गतियां धन की होती हैं। जो न देता है और न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है। - भर्तृहरि
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| * मोहांध तथा अविवेकी के समीप लक्ष्मी अधिक समय नहीं टिकती। - कथासरित्सागर
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| * अधन ही जीव का धन है, धन आधा धन है, धान्य महद् धन है तथा विद्या तप और कीर्ति अतिधन हैं। - भगदत्त जल्हण
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| * संसार में धनियों के प्रति गैर मनुष्य भी स्वजन जैसा आचरण करते हैं। - विष्णु शर्मा
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| ===धर्म व्यवहार अधिक है===
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| * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। - विवेकानंद
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| * जब करुणा प्राणों में बस जाती है, तभी धर्म मनुष्य को सुलभ होता है। - दुर्गा भागवत
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| * मनुष्य की सभी वृत्तियों का चरम प्रकाश धर्म में होता है। - रवींद्रनाथ ठाकुर
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| * धर्म विश्वास की अपेक्षा व्यवहार अधिक है। - राधाकृष्णन
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| * धर्म के विषय में जोर-जबर्दस्ती ठीक नहीं होती। - कुरान
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| ===धन आता-जाता रहता है===
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| * जैसे रथ का पहिया इधर-उधर नीचे-ऊपर घूमता रहता है, वैसे ही धन भी विभिन्न व्यक्तियों के पास आता-जाता रहता है, वह कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता। ~ ऋग्वेद
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| * हे राजन्, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित
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| * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास
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| * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ करदंड कई बार उतनी समस्याओं से रक्षा नहीं करता, जितनी कि थकान उत्पन्न कर देता है। ~ कालिदास
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| * जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। पुन:-पुन: किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है। ~ वेदव्यास
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| ==द== | | ===धीरज हो तो दरिद्रता भी शोभायमान=== |
| ===दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करो===
| | * धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है, धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं, घटिया भोजन भी गर्म होने से सुस्वादु लगता है और सुंदर स्वाभाव के कारण कुरूपता भी शोभा देती है। ~ चाणक्यनीति |
| * लोगों के साथ व्यवहार करते समय हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम तर्कशास्त्रियों के साथ व्यवहार नहीं कर रहे हैं। हम ऐसे लोगों के साथ व्यवहार कर रहे हैं, जिनमें मानसिक आवेश है, पक्षपात है और जो गर्व एवं अहंकार से संचरित होते हैं। - डेल कारनेगी | | * शोक करने वाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किस लिए बार-बार शोक करते हैं। ~ वेदव्यास |
| * सच्चे और सरल कर्म को जानना आसान काम नहीं है। न्यायोचित कर्मानुकूल व्यवहार करने पर ही सच्चे और सरल कर्म को जाना जा सकता है। - रस्किन | | * जो हानि हो चुकी है, उसके लिए शोक करना, अधिक हानि को निमंत्रित करना है। ~ शेक्सपियर |
| * दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा कि तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे साथ करें। - बाइबिल | | * शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शैनकीयनीतिसार |
| * महापुरुष अपनी महत्ता का परिचय छोटे मनुष्यों के साथ किए गए अपने व्यवहार से देते हैं। - कार्लाइल | |
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| ===दो प्रकार के सच=== | | ===धीर पुरुष अस्थिर नहीं होता=== |
| * सर्वोपरि दान जो आप किसी मनुष्य को दे सकते हैं, वह विद्या और ज्ञान का दान है। - रामतीर्थ | | * अच्छे लोग जिस बात को अपने ऊपर लेते हैं, उसका निर्वाह करते हैं। ~ बिल्हन |
| * तुम्हें जो दिया था वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया है, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
| | * अपना अहित करनेवाले के साथ भी जो सद्व्यवहार करता है, उसे ही सज्जन 'साधु' कहते हैं। ~ विष्णु शर्मा |
| * सच्चा दान दो प्रकार का होता है- एक वह जो श्रद्धावश दिया जाता है, दूसरा वह जो दयावश दिया जाता है। - रामचंद्र शुक्ल
| | * तीर्थों के सेवन का फल समय आने पर मिलता है, किंतु सज्जनों की संगति का फल तुरंत मिलता है। ~ चाणक्य |
| * ऐसे भी लोग हैं जो देते हैं, लेकिन देने में कष्ट अनुभव नहीं करते, न वे उल्लास की ही अभिलाषा करते हैं और न पुण्य समझ कर ही कुछ करते हैं। - खलील जिब्रान
| | * सज्जन नारियल के समान ऊपर से कठोर, किंतु भीतर से कोमल होते हैं। ~ नारायण पंडित |
| * जब तू दान करे, तो जो तेरा दाहिना हाथ करता है, उसे तेरा बायां हाथ न जानने पाए, ताकि तेरा दान गुप्त हो। - नवविधान | | * वास्तव में धीर पुरुष वे ही हैं, जिनका चित्त विकार उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों में भी अस्थिर नहीं होता। ~ कालिदास |
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| ===दुख में मिलते हैं ईश्वर===
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| * दुख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करन। ~ वेदव्यास
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| * धैर्य, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा आपात स्थिति में होती है। ~ तुलसीदास | |
| * ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दुख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दुख का साथी ईश्वर है। ~ रामचंद डोंगरे
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| * स्वेच्छा से ग्रहण किए हुए दुख को ऐश्वर्य के समान भोगा जा सकता है। ~ शरत | |
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| ===दुख का दर्शन===
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| * पहले से ही अधिक दुखी व्यक्ति को दुख के अन्य कारण दुखी नहीं करते। - भानुदत्त
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| * दुख स्वयं ही एक औषधि है। - विलियम कोपर
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| * तुम्हारा दुख उस छिलके का तोड़ा जाना है, जिसने तुम्हारे ज्ञान को अपने भीतर छिपा रखा है। - खलील जिब्रान
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| * दुख के सिवा और किसी उपाय से हम अपनी शक्ति को नहीं जान सकते, और अपनी शक्ति को जितना ही कम करके जानेंगे, आत्मा का गौरव भी उतना ही कम करके समझेंगे। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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| * दुख से दुखित न होने वाले उस दुख को ही दुखद कर देंगे। - तिरुवल्लुवर
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| ===दूसरों का भरोसा मत करो===
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| * अगर संसार में तीन करोड़ ईसा, मुहम्मद, बुद्ध या राम जन्म लें तो भी तुम्हारा उद्धार नहीं हो सकता जब तक तुम स्वयं अपने अज्ञान को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं होते, तब तक तुम्हारा कोई उद्धार नहीं कर सकता, इसलिए दूसरों का भरोसा मत करो। - स्वामी रामतीर्थ
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| * उद्धार वही कर सकते हैं जो उद्धार के अभिमान को हृदय में आने नहीं देते। - अज्ञात
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| * मांगना एक लज्जास्पद कार्य है। अपने उद्योग से कोई वस्तु प्राप्त करना ही सच्चे मनुष्य का कर्त्तव्य है। - महात्मा गांधी
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| ===दैव का भरोसा, कौन करता है===
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| * जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि
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| * भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग ही करते हैं और भाग्य पर आश्रित होकर वे अपना नाश कर लेते हैं। बुद्धिमान लोग तो पुरुषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते हैं। ~ योगवासिष्ठ | |
| * पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य भली भांति बढ़ता है। ~ वेदव्यास
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| * भाग्य, पुरुषार्थ और काल तीनों संयुक्त हाकर मनुष्य को फल देते हैं। ~ मत्स्यपुराण
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| * जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा भी पुरुषार्थ सफल हो जाता है। ~ शुक्रनीति
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| ===दीर्घायु होना सब चाहते हैं===
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| * सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है। सुख अनुकूल है, दुख प्रतिकूल है। वध अप्रिय है, जीना प्रिय है। सब जीव दीर्घायु होना चाहते हैं। ~ भगवान महावीर
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| * मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में अपनी राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर
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| * जीवन के युद्ध में चोटें और आघात बर्दाश्त करने से ही उसमें विजय प्राप्त होती है, उसमें आनंद आता है। ~ अज्ञात
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| ===दरिद्र कौन है===
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| * दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। - शंकराचार्य
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| * कठिनाइयों का मुकाबला करो, चाहे सारी दुनिया दुश्मन ही क्यों न बन जाए। - मैजिनी
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| * मुट्ठी भर संकल्पवान लोग, जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं। - महात्मा गांधी
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| * सुवासना और दुर्वासना- ये दोनों मोक्ष और बंधन के मूल कारण हैं। - माधवदेव
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| ==न== | | ==न== |
| ===निर्माण सदैव बलिदानों पर टिकता है=== | | ===निर्माण सदैव बलिदानों पर टिकता है=== |
| * निर्माण सदैव बलिदानों पर टिकता है। और जब तक निर्माण के लिए बलिदान की खाद नहीं दी जाती तब तक विकास अंकुरित नहीं होता। - अज्ञात | | * निर्माण सदैव बलिदानों पर टिकता है। और जब तक निर्माण के लिए बलिदान की खाद नहीं दी जाती तब तक विकास अंकुरित नहीं होता। ~ अज्ञात |
| * अगर तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को पीड़ा पहुंचती है तो तुम अपनी सब नेकी नष्ट हुई समझो। - संत तिरुवल्लुवर | | * अगर तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को पीड़ा पहुंचती है तो तुम अपनी सब नेकी नष्ट हुई समझो। ~ संत तिरुवल्लुवर |
| * अपनी बात के धनी लोगों के निश्चय मन को और नीचे गिरते हुए पानी के वेग को भला कौन फेर सकता है। - कालिदास | | * अपनी बात के धनी लोगों के निश्चय मन को और नीचे गिरते हुए पानी के वेग को भला कौन फेर सकता है। ~ कालिदास |
| * नेक बनने में सारी आयु लग जाती है, बदनाम होने में तो एक दिन भी नहीं लगता। ऊपर चढ़ना कैसा कठिन है, इसमें कितना समय लगता है? मगर गिरना कितना आसान है, इसमें परिश्रम नहीं करना पड़ता। - सुदर्शन | | * नेक बनने में सारी आयु लग जाती है, बदनाम होने में तो एक दिन भी नहीं लगता। ऊपर चढ़ना कैसा कठिन है, इसमें कितना समय लगता है? मगर गिरना कितना आसान है, इसमें परिश्रम नहीं करना पड़ता। ~ सुदर्शन |
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| ===निंदा सहना=== | | ===निंदा सहना=== |
| * जो मनुष्य अपनी निंदा सह लेता है, उसने मानो सारे जगत पर विजय प्राप्त कर ली। - वेदव्यास | | * जो मनुष्य अपनी निंदा सह लेता है, उसने मानो सारे जगत् पर विजय प्राप्त कर ली। ~ वेदव्यास |
| * मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नई दिशाओं में अपनी राह बना लेती है। - रवींद्रनाथ टैगोर | | * मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नई दिशाओं में अपनी राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर |
| * हमारा गौरव कभी न गिरने में नहीं है, बल्कि प्रत्येक बार उठ खड़े होने में है। - कन्फ्यूशस | | * हमारा गौरव कभी न गिरने में नहीं है, बल्कि प्रत्येक बार उठ खड़े होने में है। ~ कन्फ्यूशस |
| * यदि तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करें तो दूसरे के गुणों को मान्यता दो। - चाणक्य | | * यदि तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करें तो दूसरे के गुणों को मान्यता दो। ~ चाणक्य |
| * चोरी का माल खाने से कोई शूरवीर नहीं, दीन बनता है। - महात्मा गांधी | | * चोरी का माल खाने से कोई शूरवीर नहीं, दीन बनता है। ~ महात्मा गांधी |
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| ===नीति का जानकार===
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| * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु ज्यादातर लोग उसके प्रयोग से विहीन होते हैं। - कल्हण
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| * कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र हो जाता है, क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान है। - वेदव्यास
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| * जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। - हजारी प्रसाद द्विवेदी
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| * शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। - सैमुअल स्माइल्स
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| * नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। - नारायण पंडित
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| ===न मित्र न शत्रु===
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| * न कोई किसी का मित्र है और न कोई किसी का शत्रु। स्वार्थ से ही मित्र और शत्रु एक-दूसरे से बंधे हुए हैं। - वेदव्यास
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| * महान लोगों की पराजित शत्रुओं से स्थायी शत्रुता नहीं होती। - भट्टाचार्य
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| * गुप्त या प्रकट रूप से, बहुत या थोड़ा, स्वयं या दूसरे के द्वारा किया गया शत्रुओं का अपकार बहुत आनंद देता है। - भट्टनारायण
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| * अहिंसा अच्छी चीज है इसमें कोई शक नहीं, लेकिन शत्रुहीन होना उससे भी बड़ी बात है। - विमल मित्र
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| * नम्रता कठोरता से, जल चट्टान से और प्रेम बल से अधिक शक्तिशाली है। - हरमन हेस
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| ===नूर फ़कीर जानै नहीं===
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| * नूर फ़कीर जानै नहीं, जात बरन एक राम। तुव चरनन में आय के, मन मिल्यौ बिसराम।। - नूरूद्दीन
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| * किसके कुल में दोष नहीं है, कौन व्याधि से पीड़ित नहीं है, कौन कष्ट में नहीं पड़ता और लक्ष्मी निरंतर किसके पास रहती है? - बृहस्पति नीति सार
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| * अपने को विद्वान मानने वाले जिसे अयोग्य सिद्ध करते हैं, विधाता विजय की नियति से हठात उसी में शुभ रख देता है।
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| कल्हण
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| * उन्होंने (श्रीकृष्ण ने) पहले नवपल्लवयुक्त पलाशवन वाली विकसित, पराग से परिपूर्ण कमलों वाली तथा पुष्पसुगंधों मतवाली हुई वसंत ऋतु को देखा। - माघ
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| * वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना भी एक तरह का फैशन ही है। - डिजरायली
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| ===निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है===
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| * मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। - तुकाराम
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| * जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। - दयानंद
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| * बल तथा कोश से संपन्न महान व्यक्तियों का महत्व ही क्या यदि उन्होंने दूसरों के कष्ट का उसी क्षण विनाश नहीं किया। - सोमदेव
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| * उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है। - अज्ञात
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| ===नीति का जानकार=== | | ===नीति का जानकार=== |
| * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु ज्यादातर लोग उसके प्रयोग से विहीन होते हैं। ~ कल्हण | | * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु ज़्यादातर लोग उसके प्रयोग से विहीन होते हैं। ~ कल्हण |
| * कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र हो जाता है, क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान है। ~ pवेदव्यास | | * कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र हो जाता है, क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान है। ~ वेदव्यास |
| * जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | | * जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी |
| * शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | | * शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स |
| * नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। ~ नारायण पंडित | | * नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। ~ नारायण पंडित |
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| ===नैतिक बल ही सर्वश्रेष्ठ है=== | | ===न मित्र न शत्रु=== |
| * आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है, निर्वाण परम सुख। ~ धम्मपद | | * न कोई किसी का मित्र है और न कोई किसी का शत्रु। स्वार्थ से ही मित्र और शत्रु एक-दूसरे से बंधे हुए हैं। ~ वेदव्यास |
| * मनुष्य पराक्रम के द्वारा दुखों से पार पाता है और प्रज्ञा से परिशुद्ध होता है। ~ सुत्तनिपात | | * महान् लोगों की पराजित शत्रुओं से स्थायी शत्रुता नहीं होती। ~ भट्टाचार्य |
| * सभी प्रकार के बलों में नैतिक बल ही सर्वश्रेष्ठ है। ~ पिंगलि सूरना | | * गुप्त या प्रकट रूप से, बहुत या थोड़ा, स्वयं या दूसरे के द्वारा किया गया शत्रुओं का अपकार बहुत आनंद देता है। ~ भट्टनारायण |
| * घृणा और द्वेष जो बढ़ा है, वह शीघ्र ही पतन के गह्वर में गिर पड़ता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | | * अहिंसा अच्छी चीज़ है इसमें कोई शक नहीं, लेकिन शत्रुहीन होना उससे भी बड़ी बात है। ~ विमल मित्र |
| | * नम्रता कठोरता से, जल चट्टान से और प्रेम बल से अधिक शक्तिशाली है। ~ हरमन हेस |
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| ==ह== | | ===न पूछो जाति महात्मा की=== |
| ===हमारी श्रद्धा अखंड बत्ती जैसी होनी चाहिए===
| | * जाति से कोई पतित नहीं है। पतित वह है जो चोरी, व्यभिचार, ब्रह्महत्या, भ्रूण-हत्या आदि दुष्ट कृत्यों को करता है और उनको गुप्त रखने के लिए झूठ बोलता है। ~ अज्ञात |
| * एक कृष्ण वसुदेव का बेटा, एक कृष्ण घट-घट में लेटा। एक कृष्ण जो सकल पसारा, एक कृष्ण जो सबसे न्यारा।। - अज्ञात | | * कभी किसी महात्मा से यह न पूछो कि तुम्हारी जाति क्या है क्योंकि भगवान के दरबार में जाति का बंधन नहीं रह जाता। ~ कबीर |
| * हमारी श्रद्धा अखंड बत्ती जैसी होनी चाहिए। वह हमको तो प्रकाश देती ही है, आसपास भी देती है। - महात्मा गांधी | | * जातिवाद आत्मा और राष्ट्र, दोनों के लिए नुक्सानदेह है। ~ महात्मा गांधी |
| * जितने से काम चल जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। - भागवत | | * संपूर्ण विश्व में केवल एक ही जाति है- मानव जाति। एक ही भाषा है- प्रेम की भाषा। ~ सत्य साईं बाबा |
| * प्रेम का एक-एक कण भी सारे संसार से बढ़कर मूल्य रखता है। - फरीदुद्दीन अत्तार
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| * माया सबको मोहित करती है, परंतु भगवान के भक्त से वह हारी हुई है। - अज्ञात
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| ===हृदय की पुस्तक=== | | ===नम्रता कठोरता से अधिक शक्तिशाली है=== |
| * संसार में धन पाकर जो लोग उसे मित्रों और धर्म में लगाते हैं, उनके धन सारवान हैं, नष्ट होने पर अन्त में वे धन ताप नहीं पैदा करते हैं। - अश्वघोष | | * किसी मनुष्य का स्वभाव ही उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। ~ अरस्तू |
| * ईर्ष्या, लोभ, क्रोध एवं कठोर वचन-इन चारों से सदा बचते रहना ही वस्तुत: धर्म है। - तिरुवल्लुवर | | * अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या न हो, विद्वान् पुरुष उसके लिए शोक नहीं करता। ~ वेदव्यास |
| * संसार के धर्म-ग्रन्थों को उसी भाव से ग्रहण करना चाहिए, जिस प्रकार रसायनशास्त्र का हम अध्ययन करते हैं और अपने अनुभव के अनुसार अन्तिम निश्चय पर पहुंचते हैं। - रामतीर्थ
| | * अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें, झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें। ~ धम्मपद |
| * मनुष्य की यह विशेषता है कि केवल उसी को अच्छे-बुरे का या उचित-अनुचित आदि का ज्ञान है और ऐसे ज्ञान से युक्त प्राणियों के साहचर्य से ही परिवार और समाज का निर्माण होता है। - अरस्तू | | * ज्यों - ज्यों लाभ होता है, त्यों - त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन |
| * जिसके हृदय की पुस्तक खुल चुकी है, उसे अन्य किसी पुस्तक की आवश्यकता नहीं रह जाती। पु्स्तकों का महत्व केवल इतना भर है कि वे हममें लालसा जगाती है। वे प्राय: अन्य व्यक्ति के अनुभव होती हैं। - विवेकानन्द | | * नम्रता कठोरता से अधिक शक्तिशाली है, जल चट्टान से अधिक शक्तिशाली है और प्रेम बल से अधिक शक्तिशाली है। ~ हरमन हेस |
| * प्राचीनता और भी अधिक प्राचीनता की प्रशंसा से परिपूर्ण मिलती है। - वाल्टेयर
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| ===हर मन एक माणिक्य है=== | | ===नम्रता ही मनुष्य का आभूषण=== |
| * वैराग्य भीरु की आत्म-प्रवंचना मात्र है। जीवन की प्रवृत्ति प्रबल और असंदिग्ध सत्य है। - यशपाल | | * विचार या भाव ही मनुष्य को उत्तेजित करते हैं, आदर्श ही लोगों को मृत्यु तक का सामना करने को तैयार करते हैं। ~ विवेकानंद |
| * समाज में रहकर समाज को हानि पहुंचाना और आत्महत्या कर लेना दोनों ही समान हैं। - शरतचंद्र | | * बिना अपनी स्वीकृति के कोई मनुष्य आत्म-सम्मान नहीं गंवाता। ~ महात्मा गांधी |
| * शूर जन जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। - वाल्मीकि | | * नम्रता और मीठे वचन ही मनुष्य के आभूषण होते हैं। शेष सब नाममात्र के भूषण हैं। ~ संत तिरुवल्लवुर |
| * हर मन एक माणिक्य है, उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं। - शेख सादी | | * दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उतना उन दोषों से नहीं बचाता, जितना अपने को बचाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ |
| | * कभी-कभी आलोचना अपने मित्र को भी शत्रु के शिविर में भेज देती है। ~ अज्ञात |
| | * संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ है जो मनुष्य की आशा का पेट भर सके। पुरुष की आशा समुद्र के समान है, वह कभी भरती नहीं। ~ वेदव्यास |
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| ===हर शरीर में सात ऋषि हैं=== | | ===निराश व्यक्ति को प्रलोभन मत दो=== |
| * प्रत्येक शरीर में सात ऋषि हैं। ये सातों प्रमाद रहित हो कर उसका रक्षण करते हैं। जब ऋषि सोने जाते हैं, तब भी भीतर बैठे देव जागते हैं और इस यज्ञशाला की रक्षा करते हैं। - यजुर्वेद | | * निराश व्यक्ति को प्रलोभन मत दो। ~ शेक्सपियर |
| * अपनी छाया से मार्ग के परिश्रम को दूर करने वाले, प्रचुर मात्रा में अत्यधिक मधुर फलों से युक्त, सुपुत्रों के समान आश्रम के वृक्षों पर उनके अतिथियों की पूजा का भार स्थिति है। - कालिदास | | * दूसरे का अप्रिय वचन सुनकर भी उत्तम व्यक्ति सदा प्रिय वाणी ही बोलता है। ~ अज्ञात |
| * जीवन को सुंदर बनाने वाला प्रत्येक विचार वेद ही है। - साने गुरु जी | | * दुखदायी अवस्था में मनुष्य दैव को दोष देता है। वह अपने कर्म का दोष नहीं देखता। ~ नारायण पंडित |
| * अलमारियों में बंद वेदान्त की पुस्तकों से काम न चलेगा, तुम्हें उसको आचरण में लाना होगा। - रामतीर्थ | | * भिक्षु हो या राजा; जो निष्काम है, वही शोभित होता है। ~ अष्टावक्र गीता |
| * उच्च और निम्न की योग्यता का विचार वस्त्र देख कर भी होता है। समुद्र ने विष्णु को पीताम्बरधारी देख कर अपनी कन्या दे दी तथा शिव को दिगम्बर देख कर विष दिया। - अज्ञात | | * जिस प्रकार वासवृक्ष पर समागम के पश्चात् पक्षी पृथक-पृथक् दिशाओं में चले जाते हैं, उसी प्रकार प्राणियों के समागम का अन्त वियोग है। ~ अश्वघोष |
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| ===हर भूल कुछ न कुछ सिखा देती है=== | | ===निश्चय के बल से ही फल की प्राप्ति=== |
| * यदि तुम भूलों को रोकने के लिए द्वार बंद कर दोगे तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | | * यदि कोई मनुष्य निश्चिंतताओं से प्रारंभ करेगा तो अंत संदेहों में होगा, लेकिन वह यदि वह संदेहों से प्रारंभ कर सके तो अंत में उसे निश्चिंततओं की प्राप्ति होगी। ~ बेकन |
| * सोई हुई आत्मा को जगाने के लिए भूलें एक प्रकार की दैविक यंत्रणाएं जो हमें सदा के लिए सतर्क कर देती हैं। ~ प्रेमचंद | | * निश्चय के बल से ही फल की प्राप्ति होती है। ~ तुकाराम |
| * दूसरों की भूलों से बुद्धिमान लोग अपनी भूलें सुधारते हैं। ~ साइरस | | * निष्काम होकर नित्य अपना काम करनेवाले की गोद में ही उत्सुक होकर सफलता आती है। ~ भारवि |
| * यदि मनुष्य सीखना चाहे तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ शिक्षा दे सकती है। ~ डिकेंस | | * केवल वही व्यक्ति सबकी अपेक्षा उत्तम रूप से कार्य कर सकता है, जो पूर्णतया नि:स्वार्थी है। ~ विवेकानंद |
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| ==य== | | ===नूर फ़कीर जानै नहीं=== |
| ===यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण===
| | * नूर फ़कीर जानै नहीं, जात बरन एक राम। तुव चरनन में आय के, मन मिल्यौ बिसराम।। ~ नूरूद्दीन |
| * मनुष्य श्रद्धा से संसार प्रवाह को पार कर जाता है। - सुत्तनिपात | | * किसके कुल में दोष नहीं है, कौन व्याधि से पीड़ित नहीं है, कौन कष्ट में नहीं पड़ता और लक्ष्मी निरंतर किसके पास रहती है? ~ बृहस्पति नीति सार |
| * हमारी श्रद्धा अखंड बत्ती जैसी होनी चाहिए जो स्वयं ही नहीं अपने आसपास को भी प्रकाशित करती है। - महात्मा गांधी | | * अपने को विद्वान् मानने वाले जिसे अयोग्य सिद्ध करते हैं, विधाता विजय की नियति से हठात उसी में शुभ रख देता है। ~ कल्हण |
| * सब लोग हृदय के दृढ़ संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं, क्योंकि श्रद्धा से ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है। - ऋगवेद
| | * उन्होंने (श्रीकृष्ण ने) पहले नवपल्लवयुक्त पलाशवन वाली विकसित, पराग से परिपूर्ण कमलों वाली तथा पुष्पसुगंधों मतवाली हुई वसंत ऋतु को देखा। ~ माघ |
| * यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण। - रामचंद्र शुक्ल | | * वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना भी एक तरह का फैशन ही है। ~ डिजरायली |
| * श्रद्धा या आस्था के बिना जीवन-दृष्टि तो नहीं होती, जीने का ढर्रा या नक्शा-भर बन सकता है। - अज्ञेय | |
| * चाहे गुरु पर हो या ईश्वर पर, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, क्योंकि बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ होती हैं। - समर्थ रामदास
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| * अश्रद्धा की अपेक्षा श्रद्धा अच्छी है। लेकिन बेवकूफी की अपेक्षा तो अश्रद्धा ही अच्छी है। - काका कालेलकर
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| ===योग्यता और व्यक्तित्व=== | | ===निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है=== |
| * न कोई किसी का मित्र है, न कोई किसी का शत्रु। संसार में व्यवहार से ही लोग मित्र और शत्रु होते हैं।- नारायण पंडित | | * मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम |
| * किसी मनुष्य का स्वभाव उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। - अरस्तू | | * जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। ~ दयानंद |
| * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष की पूर्ति प्रतिष्ठा के द्वारा होती है। - मोहन राकेश | | * बल तथा कोश से संपन्न महान् व्यक्तियों का महत्व ही क्या यदि उन्होंने दूसरों के कष्ट का उसी क्षण विनाश नहीं किया। ~ सोमदेव |
| * दीपक के नीचे का अंधकार दूर करने के लिए दूसरा दीपक जलाने का प्रयत्न करना चाहिए। - संस्कृत लोकोक्ति | | * उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है। ~ अज्ञात |
| * किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। - लाला लाजपतराय
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| * दार्शनिक विवाद में अधिकतम लाभ उसे होता है, जो हारता है। क्योंकि वह अधिकतम सीखता है। - एपिक्युरस
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| ==ल== | | ===निष्कपट प्रेम=== |
| ===लोभ निरंतर बढ़ता है===
| | * निष्कपट प्रेम किसी भी कपट को नहीं सह सकता है। ~ चैतन्यचंदोदयम् |
| * मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है , किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो महान अनर्थ का कारण बन जाती है। - वेदव्यास | | * विद्वानों के मुख से सहसा बातें बाहर नहीं निकलतीं और यदि कहीं निकली तो हाथी के दांत की तरह कभी परावर्तित नहीं होतीं। ~ भामिनी-विलास |
| * आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। - तुर्की लोकोक्ति | | * बलवती आशा कष्टप्रद है। नैराश्य परम सुख है। ~ व्यास |
| * वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। - डिजरायली | | * गुणियों को भी अपने रूप का ज्ञान दूसरों के द्वारा ही होता है। वे स्वयं अपने गुणों को नहीं जान सकते, नेत्र अपने गौरव का अनुभव तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि उनके सामने दर्पण न रखा जाए। ~ कविता-कौमुदी |
| * ज्यों-ज्यों लाभ होता है त्यों-त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। - उत्तराध्ययन
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| ===लक्ष्मी का निवास=== | | ===नैतिक शिक्षा देते समय संक्षेप में कहो=== |
| * उत्साही, आलस्यहीन, बहादुर और पक्की मित्रता निभाने वाले मनुष्य के पास लक्ष्मी निवास करने के लिए स्वयं चली आती है। - नारायण पंडित
| | * प्रशंसा ऐसा विष है, जिसे अल्पमात्रा में ही ग्रहण करना चाहिए। ~ बालजाक |
| * परिस्थितियां ही मनुष्य में साहस का संचार करती हैं। - हरिकृष्ण प्रेमी
| | * नैतिक शिक्षा देते समय संक्षेप में कहो। ~ होरेस |
| * दूसरों के धन का अपहरण करना सबसे बड़ा पाप है। - अज्ञात
| | * राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा वैसा ही आचरण करने लगती है। ~ वाल्मीकि |
| * जो मारता है वह सबल है, जो भय करता है वह निर्बल है। - यशपाल
| | * मेहनत वह चाबी है जो किस्मत का दरवाज़ा खोल देती है। ~ चाणक्य |
| * कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है। - प्रेमचंद
| | * श्रद्धा सामर्थ्य के प्रति होती है और दया असामर्थ्य के प्रति। ~ रामचन्द्र शुक्ल |
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| ===लोभ कभी बूढ़ा नहीं होता===
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| * इंसान अगर लालच को ठुकरा दे, तो बादशाह से भी ऊंचा दर्जा हासिल कर सकता है, क्योंकि संतोष ही इंसान का माथा ऊंचा रख सकता है। ~ सादी | |
| * गहरे जल से भरी हुई नदियां समुद्र में मिल जाती हैं परंतु जैसे उनके जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, उस प्रकार चाहे जितना धन प्राप्त हो जाए, पर लोभी तृप्त नहीं होता। ~ वेदव्यास
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| * जिसमें लोभ है, उसे दूसरे अवगुण की क्या आवश्यकता? ~ भर्तृहरि
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| * मनुष्य बूढ़ा हो जाता है परंतु लोभ बूढ़ा नहीं होता। ~ सुदर्शन
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| ==त==
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| ===तीन प्रकार के इंसान===
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| * मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तयिता। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह गलती कर सकता है। और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। - हजारी प्रसाद द्विवेदी
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| * मेरी समझ से इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच- विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। - खलील जिब्रान
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| * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है, जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। - जेम्स एंथनी फ्राउड
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| * शोक करने वाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किसके लिए बार-बार शोक कर रहे हैं। - वेद व्यास
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| ===तृष्णा संतोष की बैरिन है===
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| * तृष्णा संतोष की बैरिन है, यह जहां पांव जमाती है, संतोष को भगा देती है। ~ सुदर्शन
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| * जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है, और जो इच्छा का बंधुआ मजदूर है, उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्याबी जहां रहे वहीं वन और वही भवन-कंदरा है। ~ वेदव्यास
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| * जिस जगह मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का भी लाभी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए। ~ चाणक्य
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| * त्रुटि निकालना सरल है, अच्छा कार्य करना कठिन है। ~ प्लूटार्क | |
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| ===तुम आगे बढ़े चलो===
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| * फूल चुनकर इकट्ठा करने के लिए मत ठहरो। आगे बढ़े चलो। तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर
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| * आवेश और क्रोध को वश में कर लेने से शक्ति बढ़ती और आवेश को आत्मबल के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। ~ महात्मा गांधी
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| * आशा उत्साह की जननी है। आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। ~ प्रेमचंद्र | |
| * जब शरीर में सात्विक रस रूपी मेघ बरसते हैं, तब आयु रूपी नदी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। ~ संत ज्ञानेश्वर
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| ===तपस्या धर्म का पहला और आखिरी कदम===
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| * अपनी पीड़ा सह लेना और दूसरे जीवों को पीड़ा न पहुंचाना, यही तपस्या का स्वरूप है। ~ संत तिरुवल्लुवर
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| * तपस्या धर्म का पहला और आखिरी कदम है। ~ महात्मा गांधी
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| * कर्म, ज्ञान और भक्ति का संगम ही जीवन का तीर्थ राज है। ~ दीनानाथ दिनेश
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| * सबसे उत्तम तीर्थ अपना मन है जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो। ~ स्वामी शंकराचार्य
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| * ब्रह्माज्ञानी को स्वर्ग तृण है, शूर को जीवन तृण है, जिसने इंद्रियों को वश में किया उसको स्त्री तृण-तुल्य जान पड़ती है, निस्पृह को जगत तृण है। ~ चाणक्य
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| ==ब==
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| ===बड़प्पन सिर्फ उम्र में ही नहीं है===
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| * बड़प्पन सिर्फ उम्र में ही नहीं, उम्र के कारण मिले हुए ज्ञान और चतुराई में भी है। - महात्मा गांधी
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| * बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट में नहीं है, जिसकी आत्मा पवित्र है वही बड़ा है। - प्रेमचंद
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| * किसी आदमी की बुराई-भलाई उस समय तक मालूम नहीं होती जब तक कि वह बातचीत न करे। - बालकृष्ण भट्ट
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| * जो मनुष्य तौल कर बात नहीं करता उसे कठोर बातें सुननी पड़ती हैं। - शेख सादी
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| ===बुराई के बीज===
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| * बुराई के बीज चाहे गुप्त से गुप्त स्थान में बोओ, वह स्थान किले की तरह चाहे सुरक्षित ही क्यों न हो, पर प्रकृति के अत्यंत कठोर , निर्दय, अमोघ, अपरिहार्य कानून के अनुसार तुम्हें ब्याज सहित कर्मों का मूल्य चुकाना होगा। ~ स्वामी रामतीर्थ
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| * सच्ची मित्रता में उत्तम से उत्तम वैद्य की सी निपुणता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमलता होती है। ~ रामचन्द्र शुक्ल
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| * मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, यह कथन मानव समाज पर एक लांछन है। ~ विवेकानंद
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| * जिस आदमी का मान उसके अपने ख्याल से मर चुका है, वह जितनी हानि अपने को पहुंचा सकता है उतनी दूसरा कोई और नहीं पहुंचा सकता। ~ महात्मा गांधी
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| ===बिना त्याग के धन===
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| * बिना त्याग के धन की शोभा नहीं होती। ~ अग्नि पुराण
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| * रक्षा का पहला साधन तो अपने हृदय में पड़ा है। वह है ईश्वर में सरल श्रद्धा, दूसरा है पड़ोसियों की सद्भावना। ~ महात्मा गांधी
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| * दुखती आंखों वाले को सामने रखी दीपशिखा अच्छी नहीं लगती है। ~ कालिदास
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| * लोभी न परमार्थ को समझता है और न धर्म को। ~ इतिवुत्तक
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| * राग मिलाने वाला वासना है और द्वेष अलग करने वाली। ~ रामचंद्र शुक्ल
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| * मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, परंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष
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| ===बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है===
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| * दुख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है - मन से दुखों की चिंता न करना। ~ वेदव्यास
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| * 99 फीसदी अवस्थाओं में कोई भी मनुष्य खुद को दोषी नहीं ठहराता, चाहे उसकी कितनी ही भयंकर भूल क्यों न हो। ~ डिजरायली
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| * बुरा आदमी तब और भी बुरा है जब वह साधु बनने का स्वांग रचता है। ~ बेकन
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| * शरीर जल से पवित्र होता है, मन सत्य से, आत्मा धर्म से और बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है। ~ मनुस्मृति
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| * परोपकार के लिए कुछ छल भी करना पड़े तो वह आत्मा की हत्या नहीं है। ~ प्रेमचंद
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| ==ज्ञ==
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| ===ज्ञान का लक्ष्य चरित्र-निर्माण===
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| * मनुष्य जितना ज्ञान में घुल गया हो, उतना ही वह कर्म के रंग में रंग जाता है। - विनोबा | |
| * अपने अज्ञान का आभाष होना ही ज्ञान की तरफ एक बड़ा कदम है। - डिजराइली
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| * ज्ञान का सार यह है कि ज्ञान रहते उसका प्रयोग करना चाहिए और उसके अभाव में अपनी अज्ञानता स्वीकार कर लेनी चाहिए। - कन्फ्यूशस
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| * ज्ञान अनुभव की बेटी है। - कहावत
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| * ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र-निर्माण होना चाहिए। - महात्मा गांधी
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| ===ज्ञान से मन शांत===
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| * जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। ~ वेदव्यास
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| * प्रत्येक बालक यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर
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| * जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं। ~ गौतम बुद्ध
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| * जहां प्रकाश रहता है वहां अंधकार कभी नहीं रह सकता। ~ माघ
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| ==र==
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| ===रुपया वापस दिया जा सकता है, लेकिन===
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| * जब हम अपने पैर की धूल से भी अधिक अपने को नम्र समझते हैं तो ईश्वर हमारी सहायता करता है। ~ महात्मा गांधी
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| * किसी का रुपया वापस दिया जा सकता है, परंतु सहानुभूति के दो शब्द वह ऋण है जिसे चुकाना मनुष्य के सार्मथ्य के बाहर है। ~ सुदर्शन
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| * दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। ~ प्रेमचंद
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| * सम्मान सच्चे परिश्रम में है। ~ जी. क्लीवलैंड | |
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| ===राज्य का अस्तित्व===
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| * राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीवन के लिए नहीं। ~ अरस्तू
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| * विश्राम करने का समय वही होता है, जब तुम्हारे पास उसके लिए समय न हो। ~ अज्ञात
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| * जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी प्रकार सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। ~ बाणभट्ट
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| * अपनी डिगनिटी को बनाए रखने के लिए मैं सदा संतोष की धूप में खड़ा रहता हूं और स्वयं को इच्छाओं की छाया से दूर रखता हूं। ~ ब्रह्माकुमार
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| ==क्ष==
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| ===क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है===
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| * जो मनुष्य मन में उठे हुए क्रोध को दौड़ते हुए रथ के समान शीघ्र रोक लेता है, उसी को मैं सारथी समझता हूं, क्रोध के अनुसार चलने वाले को केवल लगाम रखने वाला कहा जा सकता है। ~ गौतम बुद्ध
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| * क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करने योग्य हो जाता है। ~ वेदव्यास
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| * क्षमा पर मनुष्य का अधिकार है, वह पशु के पास नहीं मिलती। प्रतिहिंसा पाशव धर्म है। ~ जयशंकर प्रसाद
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| * यदि कोई दुर्बल मनुष्य तुम्हारा अपमान करे तो उसे क्षमा कर दो, क्योंकि क्षमा करना ही वीरों का काम है, परंतु यदि अपमान करने वाला बलवान हो तो उसे अवश्य दंड दो। ~ गुरु गोविंद सिंह
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| ==श्र==
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| ===श्रद्धा में निराशा का कोई स्थान नहीं===
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| * विप्रों का आभूषण विद्या है, पृथ्वी का आभूषण राजा है, आकाश का आभूषण चंद्रमा है पर शील सबका आभूषण है। - बृहस्पतिनीतिसार
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| * वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाते। - विवेकानंद
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| * शोक करनेवाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किस लिए बार-बार शोक कर रहे हैं। - वेदव्यास
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| * श्रद्धा में निराशा का कोई स्थान नहीं। - महात्मा गांधी
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| ===श्रम से सब कार्य सिद्ध===
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| * जो श्रम नहीं करता, देवता उसके साथ मैत्री नहीं करते। ~ ऋग्वेद
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| * श्रम करने से ही कार्य सिद्ध होते हैं, केवल मनोरथ करने से नहीं। ~ हितोपदेश
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| * श्रम आत्मा के लिए रसायन का काम करता है। श्रम ही मनुष्य की आत्मा है। ~ स्वामी कृष्णानंद
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| * श्रम की पूजा करो। उसकी पूजा करनेवाला त्रिकाल में भी कभी निराश नहीं होता। ~ राम प्रताप त्रिपाठी
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| | ===नैतिक बल ही सर्वश्रेष्ठ है=== |
| | * आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है, निर्वाण परम सुख। ~ धम्मपद |
| | * मनुष्य पराक्रम के द्वारा दुखों से पार पाता है और प्रज्ञा से परिशुद्ध होता है। ~ सुत्तनिपात |
| | * सभी प्रकार के बलों में नैतिक बल ही सर्वश्रेष्ठ है। ~ पिंगलि सूरना |
| | * घृणा और द्वेष जो बढ़ा है, वह शीघ्र ही पतन के गह्वर में गिर पड़ता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| | * मुहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावों को जिंदा कर देती है। मुहब्बत आत्मिक वरदान है। यह ज़िंदगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक बरकत है। ~ प्रेमचंद |
| | * ग़लती से जिनको तुम 'पतित' कहते हो, वे वे हैं जो 'अभी उठे नहीं' हैं। ~ रामतीर्थ |
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| ==बाहरी कड़ियाँ==
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