अक्षि उपनिषद: Difference between revisions
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*इस खण्ड में भगवान सांकृति उपासना करके [[सूर्य]] से नेत्र-ज्योति को शुद्ध और निर्मल करने की प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं-'हे सत्वगुण स्वरूप, नेत्रों के प्रकाशक और सर्वत्र हजारों किरणों से जगत को आभायुक्त करने वाले सूर्यदेव! हमें असत से सतपथ की ओर ले चलों, हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।' | *इस खण्ड में भगवान सांकृति उपासना करके [[सूर्य देवता|सूर्य]] से नेत्र-ज्योति को शुद्ध और निर्मल करने की प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं-'हे सत्वगुण स्वरूप, नेत्रों के प्रकाशक और सर्वत्र हजारों किरणों से जगत को आभायुक्त करने वाले सूर्यदेव! हमें असत से सतपथ की ओर ले चलों, हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।' | ||
*'ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्युर्माऽमृतं गमय।' | *'ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्युर्माऽमृतं गमय।' | ||
*ऋषि ज्योति-स्वरूप सूर्य से अपनी आंखों की निरोग रखने की प्रार्थना करते हैं। | *ऋषि ज्योति-स्वरूप सूर्य से अपनी आंखों की निरोग रखने की प्रार्थना करते हैं। |
Revision as of 14:12, 26 April 2010
अक्षि उपनिषद
कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में महर्षि सांकृति और आदित्य के मध्य प्रश्नोत्तर के मध्यम से 'चक्षु-विद्या' तथा 'योग-विद्या' पर प्रकाश डाला गया है। यह उपनिषद दो खण्डों में विभाजित है।
प्रथम खण्ड
- इस खण्ड में भगवान सांकृति उपासना करके सूर्य से नेत्र-ज्योति को शुद्ध और निर्मल करने की प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं-'हे सत्वगुण स्वरूप, नेत्रों के प्रकाशक और सर्वत्र हजारों किरणों से जगत को आभायुक्त करने वाले सूर्यदेव! हमें असत से सतपथ की ओर ले चलों, हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।'
- 'ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्युर्माऽमृतं गमय।'
- ऋषि ज्योति-स्वरूप सूर्य से अपनी आंखों की निरोग रखने की प्रार्थना करते हैं।
- जो ब्राह्मण प्रतिदिन सूर्य के लिए इस चाक्षुष्मती-विद्या का पाठ करता है, उसे नेत्र रोग कभी नहीं होते और न उसके वंश में कोई अन्धत्व को ही प्राप्त होता है।
दूसरा खण्ड
- इस खण्ड में ऋषिवर सूर्य से 'ब्रह्म-विद्या' का उपदेश देने की प्रार्थना करते हैं। आदित्य देव (सूर्यदेव) उत्तर देते हुए कहते हैं-'हे ¬ऋषिवर! आप समस्त प्राणियों की भांति अजन्मा, शान्त, अनन्त, ध्रुव, अव्यक्त तथा तत्त्वज्ञान से चैतन्य-स्वरूप परब्रह्म को देखते हुए शान्ति और सुख से रहें। आत्मा-परमात्मा के अतिरिक्त इस जगत में अन्य किसी का आभास न हो, इसी को 'योग' कहते हैं। इस योगकर्म को समझते हुए सदैव अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।'
- योग की ओर प्रवृत्त होने पर, अन्त:करण दिन-प्रतिदिन समस्त भौतिक इच्छाओं से दूर हो जाता है। साधक लोक-हित के कार्य करते हुए सदैव हर्ष का अनुभव करता है। वह सदैव पुण्यकर्मों के संकलन में ही लगा रहता है। दया, उदारता और सौम्यता का भाव सदैव उसके कार्यों का आधार होता है। वह मृदुल वाणी का प्रयोग करता है और सदैव सद्संगति का आश्रय ग्रहण करता है।
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