मन्त्रिकोपनिषद: Difference between revisions
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[[यजुर्वेद|शुक्ल यजुर्वेद]] से सम्बन्धित इस [[उपनिषद]] में, उपनिषदकार का कहना यह है कि 'जीवात्मा' स्वयं को परमात्मा का अंश अनुभव करता हुआ भी उसे सहज रूप से देख नहीं पाता। जब इस शरीर का मोह और अहंकार हटता है, तभी उसे अनुभव कर पाना सम्भव है। प्राय: सामान्य साधक अविनाशी और अविचल माया का ही ध्यान करते हैं। उसमें संव्याप्त परमात्मा का अनुभव करने का प्रयास नहीं करते, जबकि ध्यान उसी का किया जाना चाहिए। उपनिषदों में उसी को द्वैत-अद्वैत, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म और विराट रूपों में गाया गया है। सभी मन्त्रों का मर्म वही 'ब्रह्म' है। यहाँ उसे ब्रह्मचारी, स्तम्भ की भांति अडिग, संसार में समस्त श्रीवृद्धि को देने वाला और विश्व-रूपी छकड़े (गाड़ी) को खींचने वाला कहा गया है। इसमें कुल बीस मन्त्र हैं।<br /> | [[यजुर्वेद|शुक्ल यजुर्वेद]] से सम्बन्धित इस [[उपनिषद]] में, उपनिषदकार का कहना यह है कि 'जीवात्मा' स्वयं को परमात्मा का अंश अनुभव करता हुआ भी उसे सहज रूप से देख नहीं पाता। जब इस शरीर का मोह और अहंकार हटता है, तभी उसे अनुभव कर पाना सम्भव है। प्राय: सामान्य साधक अविनाशी और अविचल माया का ही ध्यान करते हैं। उसमें संव्याप्त परमात्मा का अनुभव करने का प्रयास नहीं करते, जबकि ध्यान उसी का किया जाना चाहिए। उपनिषदों में उसी को द्वैत-अद्वैत, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म और विराट रूपों में गाया गया है। सभी मन्त्रों का मर्म वही 'ब्रह्म' है। यहाँ उसे ब्रह्मचारी, स्तम्भ की भांति अडिग, संसार में समस्त श्रीवृद्धि को देने वाला और विश्व-रूपी छकड़े (गाड़ी) को खींचने वाला कहा गया है। इसमें कुल बीस मन्त्र हैं।<br /> |
Revision as of 10:26, 16 May 2010
शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में, उपनिषदकार का कहना यह है कि 'जीवात्मा' स्वयं को परमात्मा का अंश अनुभव करता हुआ भी उसे सहज रूप से देख नहीं पाता। जब इस शरीर का मोह और अहंकार हटता है, तभी उसे अनुभव कर पाना सम्भव है। प्राय: सामान्य साधक अविनाशी और अविचल माया का ही ध्यान करते हैं। उसमें संव्याप्त परमात्मा का अनुभव करने का प्रयास नहीं करते, जबकि ध्यान उसी का किया जाना चाहिए। उपनिषदों में उसी को द्वैत-अद्वैत, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म और विराट रूपों में गाया गया है। सभी मन्त्रों का मर्म वही 'ब्रह्म' है। यहाँ उसे ब्रह्मचारी, स्तम्भ की भांति अडिग, संसार में समस्त श्रीवृद्धि को देने वाला और विश्व-रूपी छकड़े (गाड़ी) को खींचने वाला कहा गया है। इसमें कुल बीस मन्त्र हैं।
यस्मिन्सर्वमिदं प्रोतं ब्रह्म स्थावरजंगमम्।
तस्मिन्नेव लयं यान्ति स्त्रवन्त्य: सागरे यथा॥17॥
यस्मिन्भावा: प्रलीयन्ते लीनाश्चाव्यक्ततां ययु:।
पश्यन्ति व्यक्ततां भूयो जायन्ते बुद्बुदा इव॥18॥
अर्थात यह सम्पूर्ण जड़-चेतन जगत उस 'ब्रह्म' में ही समाया हुआ है जिस प्रकार बहती हुई नदियां समुद्र में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत भी उस 'ब्रह्म' में लय हो जाता है। जिस प्रकार पानी का बुलबुला पानी से उत्पन्न होता है और पानी में ही लय हो जाता है, उसी प्रकार जिससे सम्पूर्ण जीव-पदार्थ जन्म लेते हैं, उसी में लय होकर अदृश्य हो जाते हैं। ज्ञानीजन उसी को 'ब्रह्म' कहते हैं। जो विद्वान, अर्थात ब्रह्मवेत्ता उस ब्रह्म को जानते हैं, वे उसी में लीन हो जाते हैं। उसमें लीन होकर वे अव्यक्त रूप से सुशोभित होते हैं।
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