गोरखनाथ: Difference between revisions
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'''गोरखनाथ''' अथवा '''गोरक्षनाथ''' एक 'नाथ योगी' थे। सिद्धों से सम्बद्ध सभी जनश्रुतियाँ इस बात पर एकमत हैं कि [[नाथ सम्प्रदाय]] के आदि प्रवर्तक चार महायोगी हुए हैं। आदिनाथ स्वयं [[शिव]] ही हैं। उनके दो शिष्य हुए, जालंधरनाथ और | '''गोरखनाथ''' अथवा '''गोरक्षनाथ''' एक 'नाथ योगी' थे। सिद्धों से सम्बद्ध सभी जनश्रुतियाँ इस बात पर एकमत हैं कि [[नाथ सम्प्रदाय]] के आदि प्रवर्तक चार महायोगी हुए हैं। आदिनाथ स्वयं [[शिव]] ही हैं। उनके दो शिष्य हुए, जालंधरनाथ और [[मत्स्येन्द्रनाथ]] या मच्छन्दरनाथ। जालंधरनाथ के शिष्य थे- 'कृष्णपाद'<ref>कान्हापाद, कान्हपा, कानफा</ref> और मत्स्येंन्द्रनाथ के 'गोरख' अथवा 'गोरक्ष' नाथ। इस प्रकार ये चार सिद्ध योगीश्वर नाथ सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। | ||
==अनुश्रुतियाँ== | ==अनुश्रुतियाँ== | ||
परवर्ती नाथ सम्प्रदाय में मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ का ही अधिक उल्लेख पाया जाता है। इन सिद्धों के बारे में सारे देश में जो अनुश्रुतियाँ और दन्त कथाएँ प्रचलित हैं, उनसे आसानी से इन निष्कर्षों पर पहुँचा जा सकता है- | परवर्ती नाथ सम्प्रदाय में मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ का ही अधिक उल्लेख पाया जाता है। इन सिद्धों के बारे में सारे देश में जो अनुश्रुतियाँ और दन्त कथाएँ प्रचलित हैं, उनसे आसानी से इन निष्कर्षों पर पहुँचा जा सकता है- | ||
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#सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक में मच्छन्द विभु को बड़े आदर से स्मरण किया गया है। अभिनवगुप्त निश्चित् रूप से सन ई. की दसवीं शती के अन्त और ग्यारवीं शती के प्रारम्भ में विद्यमान थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ इस समय से काफ़ी समय पहले हुए होंगे। | #सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक में मच्छन्द विभु को बड़े आदर से स्मरण किया गया है। अभिनवगुप्त निश्चित् रूप से सन ई. की दसवीं शती के अन्त और ग्यारवीं शती के प्रारम्भ में विद्यमान थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ इस समय से काफ़ी समय पहले हुए होंगे। | ||
#मत्स्येन्द्रनाथ का एक नाम 'मीननाथ' है। ब्रजयनी सिद्धों में एक मीनपा हैं, जो मत्स्येन्द्रनाथ के [[पिता]] बताये गये हैं। मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे। दवेपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्र ई. सन् की नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। | #मत्स्येन्द्रनाथ का एक नाम 'मीननाथ' है। ब्रजयनी सिद्धों में एक मीनपा हैं, जो मत्स्येन्द्रनाथ के [[पिता]] बताये गये हैं। मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे। दवेपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्र ई. सन् की नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। | ||
#[[तिब्बत|तिब्बती]] परम्परा के अनुसार कानपा<ref>कृष्णपाद</ref> राजा देवपाल के राज्यकाल में आविर्भाव हुए थे। इस प्रकार | #[[तिब्बत|तिब्बती]] परम्परा के अनुसार कानपा<ref>कृष्णपाद</ref> राजा देवपाल के राज्यकाल में आविर्भाव हुए थे। इस प्रकार [[मत्स्येन्द्रनाथ]] आदि सिद्धों का समय ई. सन के नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समझना चाहिए। | ||
कुछ ऐसी भी दन्तकथाएँ हैं जो गोरखनाथ का समय बहुत बाद में रखने का संकेत करती हैं, जैसे [[कबीर]] और [[नानक]] से उनका संवाद, परन्तु ये बहुत बाद की बातें हैं। जब मान लिया गया था कि गोरखनाथ चिरंजीवी हैं। गूँगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, [[बंगाल]] की दन्तकथाएँ और धर्मपूजा सम्प्रदाय की प्रसिद्धियाँ, [[महाराष्ट्र]] के सन्त [[ज्ञानेश्वर]] आदि की परम्पराएँ इस काल को 1200 ई. के पूर्व ले जाती हैं। इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है कि ईस्वी तेरहवीं शताब्दी में [[गोरखपुर]] का मठ ढहा दिया गया था, इसीलिए इसके बहुत से पूर्व गोरखनाथ का समय होना चाहिए। बहुत से पूर्ववर्ती मत गोरक्षनाथी सम्प्रदाय में अंतर्भुक्त हो गये थे। इनकी अनुश्रुतियों का सम्बन्ध भी गोरखनाथ से जोड़ दिया गया है। इसलिए कभी-कभी गोरक्षनाथ का समय और भी पहले निश्चित् किया जाता है। लेखक ने 'नाथ-सम्प्रदाय' नामक पुस्तक में उन सम्प्रदायों के अंतर्भुक्त होने की प्रक्रिया का सविस्तार विवेचन किया है। सब बातों पर विचार करने से गोरखनाथ का समय ईस्वी सन की नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही माना जाना ठीक जान पड़ता है। | कुछ ऐसी भी दन्तकथाएँ हैं जो गोरखनाथ का समय बहुत बाद में रखने का संकेत करती हैं, जैसे [[कबीर]] और [[नानक]] से उनका संवाद, परन्तु ये बहुत बाद की बातें हैं। जब मान लिया गया था कि गोरखनाथ चिरंजीवी हैं। गूँगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, [[बंगाल]] की दन्तकथाएँ और धर्मपूजा सम्प्रदाय की प्रसिद्धियाँ, [[महाराष्ट्र]] के सन्त [[ज्ञानेश्वर]] आदि की परम्पराएँ इस काल को 1200 ई. के पूर्व ले जाती हैं। इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है कि ईस्वी तेरहवीं शताब्दी में [[गोरखपुर]] का मठ ढहा दिया गया था, इसीलिए इसके बहुत से पूर्व गोरखनाथ का समय होना चाहिए। बहुत से पूर्ववर्ती मत गोरक्षनाथी सम्प्रदाय में अंतर्भुक्त हो गये थे। इनकी अनुश्रुतियों का सम्बन्ध भी गोरखनाथ से जोड़ दिया गया है। इसलिए कभी-कभी गोरक्षनाथ का समय और भी पहले निश्चित् किया जाता है। लेखक ने 'नाथ-सम्प्रदाय' नामक पुस्तक में उन सम्प्रदायों के अंतर्भुक्त होने की प्रक्रिया का सविस्तार विवेचन किया है। सब बातों पर विचार करने से गोरखनाथ का समय ईस्वी सन की नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही माना जाना ठीक जान पड़ता है। |
Revision as of 10:13, 25 February 2012
गोरखनाथ अथवा गोरक्षनाथ एक 'नाथ योगी' थे। सिद्धों से सम्बद्ध सभी जनश्रुतियाँ इस बात पर एकमत हैं कि नाथ सम्प्रदाय के आदि प्रवर्तक चार महायोगी हुए हैं। आदिनाथ स्वयं शिव ही हैं। उनके दो शिष्य हुए, जालंधरनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ या मच्छन्दरनाथ। जालंधरनाथ के शिष्य थे- 'कृष्णपाद'[1] और मत्स्येंन्द्रनाथ के 'गोरख' अथवा 'गोरक्ष' नाथ। इस प्रकार ये चार सिद्ध योगीश्वर नाथ सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं।
अनुश्रुतियाँ
परवर्ती नाथ सम्प्रदाय में मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ का ही अधिक उल्लेख पाया जाता है। इन सिद्धों के बारे में सारे देश में जो अनुश्रुतियाँ और दन्त कथाएँ प्रचलित हैं, उनसे आसानी से इन निष्कर्षों पर पहुँचा जा सकता है-
- मत्स्येन्द्र और जालंधर समसामयिक गुरुभाई थे और दोनों के प्रधान शिष्य क्रमश: गोरखनाथ और कृष्णपाद[2] थे।
- मत्स्येन्द्रनाथ किसी विशेष प्रकार के योग मार्ग के प्रवर्तक थे, परन्तु बाद में किसी ऐसी साधना में जा फँसे थे, जहाँ पर स्त्रियों का अबाध संसर्ग माना जाता था, 'कौलज्ञान निर्णय' से जान पड़ता है कि यह वामाचारी कौल साधना थी, जिसे सिद्ध कौशल मत कहते थे; गोरखनाथ ने अपने गुरु का वहाँ से उद्धार किया था।
- शुरू से ही मत्स्येन्द्र और गोरख की साधना पद्धति जालंधर और कृष्णपाद की साधना पद्धति से भिन्न थी।
समय काल
गोरखनाथ के समय के बारे में निम्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-
- मत्स्येन्द्रनाथ द्वारा लिखित कहे जाने वाले ग्रन्थ 'कौलज्ञान निर्णय' की प्रति का लिपिकाल डाक्टर प्रबोधचन्द्र बाग़ची के अनुसार 11 शती के पूर्व का है। यदि यह ठीक हो तो मत्स्येन्द्रनाथ का समय ईस्वी 11वीं शती से पहले होना चाहिए।
- सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक में मच्छन्द विभु को बड़े आदर से स्मरण किया गया है। अभिनवगुप्त निश्चित् रूप से सन ई. की दसवीं शती के अन्त और ग्यारवीं शती के प्रारम्भ में विद्यमान थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ इस समय से काफ़ी समय पहले हुए होंगे।
- मत्स्येन्द्रनाथ का एक नाम 'मीननाथ' है। ब्रजयनी सिद्धों में एक मीनपा हैं, जो मत्स्येन्द्रनाथ के पिता बताये गये हैं। मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे। दवेपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्र ई. सन् की नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे।
- तिब्बती परम्परा के अनुसार कानपा[3] राजा देवपाल के राज्यकाल में आविर्भाव हुए थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ आदि सिद्धों का समय ई. सन के नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समझना चाहिए।
कुछ ऐसी भी दन्तकथाएँ हैं जो गोरखनाथ का समय बहुत बाद में रखने का संकेत करती हैं, जैसे कबीर और नानक से उनका संवाद, परन्तु ये बहुत बाद की बातें हैं। जब मान लिया गया था कि गोरखनाथ चिरंजीवी हैं। गूँगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बंगाल की दन्तकथाएँ और धर्मपूजा सम्प्रदाय की प्रसिद्धियाँ, महाराष्ट्र के सन्त ज्ञानेश्वर आदि की परम्पराएँ इस काल को 1200 ई. के पूर्व ले जाती हैं। इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है कि ईस्वी तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसीलिए इसके बहुत से पूर्व गोरखनाथ का समय होना चाहिए। बहुत से पूर्ववर्ती मत गोरक्षनाथी सम्प्रदाय में अंतर्भुक्त हो गये थे। इनकी अनुश्रुतियों का सम्बन्ध भी गोरखनाथ से जोड़ दिया गया है। इसलिए कभी-कभी गोरक्षनाथ का समय और भी पहले निश्चित् किया जाता है। लेखक ने 'नाथ-सम्प्रदाय' नामक पुस्तक में उन सम्प्रदायों के अंतर्भुक्त होने की प्रक्रिया का सविस्तार विवेचन किया है। सब बातों पर विचार करने से गोरखनाथ का समय ईस्वी सन की नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही माना जाना ठीक जान पड़ता है।
कृतियाँ
गोरक्षनाथ के नाम से बहुत-सी पुस्तकें संस्कृत में मिलती हैं और अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी चलती हैं। निम्नलिखित पुस्तकें गोरखनाथ की लिखी बतायी गयी हैं-
(1)अमवस्क, (2) अवरोधशासनम्, (3) अवधूत गीता, (4) गोरक्षकाल, (5) गोरक्षकौमुदी, (6) गोरक्ष गीता, (7) गोरक्ष चिकित्सा, (8) गोरक्षपंचय, (9) गोरक्षपद्धति, (10) गोरक्षशतक, (11) गोरक्षशास्त्र, (12) गोरक्षसंहिता, (13) चतुरशीत्यासन, (14) ज्ञान प्रकाश शतक, (15) ज्ञान शतक, (16) ज्ञानामृत योग, (17) नाड़ीज्ञान प्रदीपिका, (18) महार्थमंजरी, (19) योगचिन्तामणि, (20) योगमार्तण्ड, (21) योगबीज, (22) योगशास्त्र, (23) योगसिद्धासन, पद्धति, (24) विवेक मार्तण्ड, (25) श्रीनाथसूत्र, (26) सिद्धसिद्धान्त पद्धति, (27) हठयोग, (28) हठ संहिता। इसमें महार्थ मंजरी के लेखक का नाम पर्याय रूप में महेश्वराचार्य भी लिखा है और यह प्राकृत में है। बाकी संस्कृत में हैं। कई एक दूसरे से मिलती हैं; कई पुस्तकों के गोरक्षलिखित होने में सन्देह है।
- हिन्दी में सब मिलाकर 40 छोटी-बड़ी रचनाएँ गोरखनाथ की कही जाती हैं, जिनकी प्रामाणिकता असन्दिग्ध नहीं है-
(1) सबदी, (2) पद, (3) सिष्यादर्सन, (4) प्राणसंकली, (5) नरवे बोध, (6) आतम बोध (पहला), (7) अभैमात्रा योग, (8) पन्द्रह तिथि, (9) सप्नवाद, (10) मछींद्रगोरख बोध, (11) रोमावली, (12) ग्यानतिलक, (13) ग्यान चौंतीस, (14) पंचमात्रा, (15) गोरखगणेश गोष्ठी, (16) गोरादत्तगोष्ठी, (17) महादेवगोरख गुष्ट, (18) सिस्टपुराण, (19) दयाबोध, (20) जाती भौरावली (छन्द गोरख), (21) नवग्रह, (22) नवरात्र, (23) अष्ट परछाया, (24) रहरास, (25)ग्यानमाल, (26) आतमाबोध (दूसरा), (27) व्रत, (28) निरंजन पुराण, (29) गोरखवचन, (30) इन्द्री देवता, (31) मूल गर्मावती, (32) खाणवारूणी, (33) गोरखससत, (34) अष्टमुद्रा, (35) चौबी सिधि, (36) डक्षरी, (37) पंच अग्नि, (38) अष्टचक्र, (39) अवलि सिलूक, (40) क़ाफ़िर बोध।
इन ग्रन्थों से अधिकांश गोरखनाथी मत के संग्रहमात्र हैं। ग्रन्थ रूप में स्वयं गोरखनाथ ने इनकी रचना की होगी, यह बात संदिग्ध है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी, जैसे-बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि में इसी प्रकार की रचनाएँ प्राप्त होती हैं।
शाखाएँ
गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित 'योगिसम्प्रदाय' मुख्य रूप से बारह शाखाओं में विभक्त है। इसीलिए इसे 'बारहपन्थी' कहते हैं। इस मत के अनुयायी कान फड़वाकर मुद्रा धारण करते हैं। इसीलिए उन्हें 'कनफटा', 'भाकतफटाँ' योगी भी कहते हैं। बारह में से छ: तो शिव द्वारा प्रवर्तित माने जाते हैं और छ: गोरखनाथ द्वारा- (1) भुज के कंठरनाथ, (2) पागलनाथ, (3) रावल, (4) पंख या पंक, जिससे सतनाथ, धरमनाथ, ग़रीबनाथ और हाड़ीभरंग सम्बद्ध हैं, (5) वन और (6) गोपाल या राम के सम्प्रदाय कहे जाते हैं और (7) चाँदनाथ कपिलानी, जिससे गंगानाथ, मायनाथ, कपिलानी, नीमनाथ, पारसनाथ आदि के सम्बन्ध हैं, (8) हेठनाथ, जिससे लक्ष्मणनाथ या कालनाथ, दरियांथ, नाटसेरी, जाफ़र पीर आदि का सम्बन्ध बताया जाता है। (9) आई पन्थ के चोलीनाथ जिससे मस्तनाथ, आई पन्थ से छोटी दरग़ाह, बड़ी दरग़ाह आदि का सम्बन्ध है, (10) वेराग पन्थ, जिससे भाईनाथ, प्रेमनाथ, रतननाथ आदि का सम्बन्ध है और कायानाथ या कायमुद्दीन प्रवर्तित सम्प्रदाय भी सम्बन्धित है, (11) जैपुर के पावनाथ, जिससे पापन्थ, कानिया, बाराराग आदि का सम्बन्ध है और (12) घजनाथ, जो हनुमानजी के द्वारा प्रवर्तित कहा जाता है, गोरखनाथ के सम्प्रदाय कहे जाते हैं। इसका विश्लेषण करने से पता चलता है कि इनमें पुराने मत, जैसे कपिल का योगमार्ग लकुलीशमत, कापालिक मत, वाममार्ग आदि सम्मिलित हो गये हैं।
अंग
गोरक्षमत के योग को पंतजलि वर्णित 'अष्टांगयोग' से भिन्न बताने के लिए 'षडंग योग' कहते हैं। इसमें योग के केवल छ: अंगों का ही महत्व है। प्रथम दो अर्थात् यम और नियम इसमें गौण है। इसका साधनापक्ष या प्रक्रिया-अंग हठयोग कहा जाता है। शरीर में प्राण और अपान, सूर्य और चन्द्र नामक जो बहिर्मुखी और अंतर्मुखी शक्तियाँ हैं, उनको प्राणायाम, आसन, बन्ध आदि के द्वारा सामरस्य में लाने से सहज समाधि सिद्ध होती है। जो कुछ पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में भी है। इसीलिए हठयोग की साधना पिण्ड या शरीर को ही केन्द्र बनाकर विश्व ब्रह्माण्ड में क्रियाशील शक्ति को प्राप्त करने का प्रयास है।
गोरक्षनाथ के नाम पर चलने वाले ग्रन्थों में विशेष रूप से इस साधना प्रक्रिया का ही विस्तार है। कुछ अंग दर्शन या तत्त्ववाद के समझाने के उद्देश्य से लिख गये हैं। अवरोधशासन, सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति, महार्थ मंजरी[4] आदि ग्रन्थ इसी श्रेणी में आते हैं। अवरोध शासन में[5] गोरखनाथ ने वेदान्तियों, मीमांसकों, कौलों, व्रजयानियों और शाक्त तान्त्रिकों के मोक्षसम्बन्धी विचारों को मूर्खता कहा है। असली मोक्ष वे सहज समाधि को मानते हैं। सहज समाधि उस अवस्था को बताया गया है, जिसमें मन स्वयं ही मन को देखने लगता है। दूसरे शब्दों में स्वसंवेदन ज्ञान की अवस्था ही सहज समाधि है। यही चरम लक्ष्य है।
प्रामाणिकता
आधुनिक देशी भाषाओं के पुराने रूपों में जो पुस्तकें मिलती हैं, उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। इनमें अधिकतर योगांगों, उनकी प्रक्रियाओं, वैराग्य, ब्रह्मचर्य, सदाचार आदि के उपदेश हैं और माया की भर्त्सना है। तर्क-वितर्क को गर्हित कहा गया है, भवसागर में पच-पचकर मरने वाले जीवों पर तरस खाया गया है और पाखण्डियों को फ़टकार बतायी गयी है। सदाचार और ब्रह्मचर्य पर गोरखनाथ ने बहुत बल दिया है। शंकराचार्य के बाद भारतीय लोकमत को इतना प्रभावित करने वाला आचार्य भक्तिकाव्य के पूर्व दूसरा नहीं हुआ। निर्गुणमार्गी भक्ति शाखा पर भी गोरखनाथ का भारी प्रभाव है। निस्सन्देह गोरखनाथ बहुत तेजस्वी और प्रभावशाली व्यक्तित्व लेकर आये थे।[6]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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