आरुणि उद्दालक की कथा: Difference between revisions

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Revision as of 07:54, 20 July 2011

महर्षि धौम्य वन में आश्रम बनाकर रहा करते थे । वे बहुत ही विद्वान महापुरुष थे । वेदों पर उनका पूरा अधिकार था तथा अनेक विद्याओं में वे पारंगत थे । दूर-दूर से उनके आश्रम में बालक पढ़ने के लिए आया करते थे और शिक्षा प्राप्त करके अपने-अपने स्थानों पर लौट जाते थे। ऋषि धौम्य के आश्रम में आरुणि नाम का एक शिष्य भी था । वह गुरु का अत्यन्त आज्ञाकारी शिष्य था । सदा उनके आदेश का पालन करने में तत्पर रहता था । यद्यपि वह अधिक कुशाग्र बुद्धि नहीं था परन्तु इस आज्ञाकारिता के गुण के कारण वह ऋषि धौम्य का प्रिय शिष्य था । एक दिन बड़े ज़ोर की वर्षा हुई, जो लगातार बहुत देर तक होती रही । आश्रम में एक उसके चारों ओर पानी ही पानी हो गया । आश्रम के चारों ओर आश्रम के खेत थे जिनमें अन्न तथा साग-सब्जी उगी हुई थी । वर्षा की दशा देखकर ऋषि को यह चिन्ता हुई कि कहीं खेतों में अधिक पानी न भर गया हो । यदि ऐसा हो गया तो सभी फ़सल नष्ट हो जाएंगी । उन्होंने आरुणि को अपने पास बुलाया और उससे कहा कि वह जाकर देखे कि खेतों में कहीं अधिक पानी तो नहीं भर गया । कोई बरहा (नाली) तो पानी के ज़ोर से नहीं टूट गया है । यदि ऐसा हो गया है तो उस जाकर बंद कर दें । आरुणि तुंरत फावड़ा लेकर चल दिया । वर्षा ज़ोरों पर थीं पर उसने इसकी कोई चिन्ता न की । वह सारे खेतों में बारी-बारी से घूमता रहा । एक जगह उसने देखा कि बरहा टूटा पड़ा है और पानी बड़े वेग के साथ खेत में घूस रहा है । वह तुंरत उसे रोकने में लग गया । बहुत प्रयास किया परन्तु बरहा बार-बार टूट जाता था । जितनी मिट्टी वह डालता सब बह जाती । काफ़ी देर संघर्ष करते हो गई लेकिन पानी को आरुणि नहीं रोक पाया । उसे गुरु के आदेश का पालन करना था चाहे कुछ भी हो । जब थक गया तो एक उपाय उसकी समझ में आया, वह स्वंय उस टूटी हुई मेंड़ पर लेट गया अब उसके बहने का तो प्रश्न ही नहीं था । पानी बंद हो गया और वह चुपचाप वहीं लेटा रहा । धीरे-धीरे वर्षा कम होने लगी, लेकिन पानी का बहाव अभी वैसा ही था, इसलिए उसने उठना उचित नहीं समझा ।

इधर, गुरु को चिंता सवार हूई । आख़िर इतनी देर हो गई आरुणि कहां गया । उन्होंने अपने सभी शिष्यों से पूछा, लेकिन किसी को भी आरुणि के लौटने का ज्ञान नहीं था । तब ऋषि धौम्य कुछ शिष्यों को साथ लेकर खेतों की ओर चल दिए । वे जगह-जगह रूक कर आरुणि को आवाज़ लगाते लेकिन कोई उत्तर न पाकर आगे बढ़ जाते । एक जगह जब उन्होंने पुनः आवाज़ लगाई, 'आरुणि तुम कहां हो?' तो आरुणि ने उसे सुन लिया, लेकिन वह उठा नहीं और वहीं से लेटे-लेटे बोला, 'गुरुजी मैं यहाँ हूं।' गुरु और सभी उसकी आवाज़ की ओर दौड़े और उन्होंने पास जाकर देखा कि आरुणि पानी में तर-बतर और मिट्टी में सना मेंड़ पर लेटा हुआ है । गुरु कर दिल भर आया । आरुणि की गुरु भक्ति ने उन्हें हिलाकर रख दिया । उन्होंने तुरंत उसे उठने की आज्ञा दी और गद् गद होकर अपने सीने से लगा लिया । सारे शिष्य इस अलौकिक दृश्य को देखकर रोमांचित हो गए । उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे । वे आरुणि को अत्यन्त सौभाग्यशाली समझ रहे थे, जो गुरुजी के सीने से लगा हुआ रो रहा था ।

गुरु ने उसके अश्रु अपने हाथ से पीछे और बोले,'बेटे, आज तुमने गुरु भक्ति का एक अपूर्व उदाहरण किया है, तुम्हारी यह तपस्या और त्याग युगों-युगों तक याद किया जाएगा । तुम एक आदर्श शिष्य के रूप में सदा याद किए जाओगे तथा अन्य छात्र तुम्हारा अनुकरण करेंगे । मेरा आर्शीवाद है कि तुम एक दिव्य बुद्धि प्राप्त करोगे तथा सभी शास्त्र तुम्हें प्राप्त हो जाएंगे । तुम्हें उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ेगा । आज से तुम्हारा नाम उद्दालक के रूप में प्रसिद्ध होगा अर्थात जो जल से निकला उत्पन्न हुआ और यही हुआ।’ आरुणि का नाम उद्दालक के नाम से प्रसिद्ध हुआ और सारी विद्याएं उन्हें बिना पढ़े, स्वंय ही प्राप्त हो गई ।

शिवा नः सन्तु वार्षिकीः[1]

हमें वर्षा द्वारा प्राप्त जल सुख दे ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अथर्ववेद-1/6/4

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