कुलीनवाद: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
Line 28: Line 28:
{{धर्म}}
{{धर्म}}
[[Category:हिन्दू धर्म]]
[[Category:हिन्दू धर्म]]
[[Category:हिन्दू धर्म कोश]]
[[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Revision as of 12:13, 21 March 2014

'कुलीन' का मूल अर्थ है, श्रेष्ठ परिवार का व्यक्ति। अत: कुलीनवाद का अर्थ हुआ 'पारिवारिक श्रेष्ठता का सिद्धान्त'। कुलीनवाद के अनुसार श्रेष्ठ परिवार में ही उत्तम गुण होते हैं। अत: विवाह आदि सम्बन्ध भी उन्हीं के साथ में होना चाहिए। कुलीनवाद धर्मशास्त्र के अनुसार जिस परिवार में लगातार कई पीढ़ियों तक वेद-वेदांग का अध्ययन होता हो, वह कुलीन कहलाता है।

विवाह सम्बन्ध में श्रेष्ठ

शैक्षणिक प्रतिष्ठा के साथ विवाह सम्बन्ध में इस प्रकार के परिवार बंगाल में श्रेष्ठ माने जाते थे। सेन वंश के शासन काल में कुलीनता का बहुत प्रचार हुआ। विवाह के सम्बन्ध में कुलीन परिवारों की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई। इस पर बहुत ध्यान दिया जाता था, कि पुत्री अपने से उच्च कुल के वर से ब्याही जाए। फल यह हुआ कि कुलीन वरों की माँग अधिक हो गई और इससे अनेक प्रकार की कुरीतियाँ उत्पन्न हुईं। बंगाल में यह कुलीन प्रथा खूब बढ़ी तथा वहाँ एक-एक कुलीन ब्राह्मण ने बहुत ही ऊँचा दहेज लेकर उनका 'उद्धार' कर डाला।

शिशुहत्या

शिशुहत्या भी इस प्रथा एक कुपरिणाम थी, क्योंकि विवाह को लेकर कन्या एक समस्या बन जाती थी। अंग्रेज़ों ने भी इस शिशुहत्या को बंद कर दिया तथा आधुनिक काल के अनेक सुधारवादी समाजों की चेष्टा से कुलीनवाद का ढोंग कम होता गया और आज यह प्रथा प्राय: पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है।

कुलदीपिका ग्रन्थ

'कुलदीपिका' नामक ग्रन्थ में कुल की परिभाषा और कुलाचार का वर्णन निम्नाकिंत प्रकार से पाया जाता है-

आचारो विनयो विद्या प्रतिष्ठा तीर्थदर्शनम्।
निष्ठाऽवृत्तिस्तपो दानं नवधा कुलक्षणम्।।

(आचार, विनय, विद्या, प्रतिष्ठा, तीर्थदर्शन, निष्ठा, वृत्ति का अत्याग, तप और दान ये नौ प्रकार के कुल के लक्षण हैं।)

कुलीनस्य सुतां लब्ध्वा कुनीनाय सुतां ददौ।
पर्यायक्रमतश्चैव स एव कुलदीपक:।।

(वही कुल को प्रकाशित करने वाला है, जो कुल से कन्या ग्रहण करके पर्यायक्रम से कुल को ही कन्या देता है।) चार प्रकार के कुलकर्म बताए गए हैं-

आदानच्ञ प्रदानच्ञ कुशत्यागस्तथैव च।
प्रतिज्ञा घटकाग्रेच च कुलकर्म चतुर्विधम्।।

(आदान, प्रदान, कुशत्याग, प्रतिज्ञा और घटकाग्र ये कुलकर्म कहे गये हैं।) राजा वल्लालसेन ने पंच गोत्रीय राढीय बाईस कुलों को कुलीन घोषित किया था। बंगाल में इनकी परम्परा अभी तक चली आ रही है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

पाण्डेय, डॉ. राजबली हिन्दू धर्मकोश, द्वितीय संस्करण-1988 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 192।

संबंधित लेख