परमहंसोपनिषद: Difference between revisions

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Revision as of 12:47, 25 March 2010

परमहंसोपनिषद

  • शुक्ल यजुर्वेद के इस उपनिषद में महामुनि नारद ने ब्रह्माजी से 'परमहंस' की स्थिति और उसके मार्ग के विषय में प्रश्न किया थां इसमें कुल चार मन्त्र हैं।
  • ब्रह्मा ने बताया कि परमहंस का मार्ग इस जगत में अति दुर्लभ है। ऐसे वेद पुरुष का चित्त सदैव मुझमें ही अधिष्ठित रहता है और मैं उस महापुरुष के हृदय में रहता हूं। परमहंस संन्यासी अपने समस्त लौकिक सम्बन्धों और कर्मकाण्डों का परित्याग कर लोकहित के लिए शरीर की रक्षा करता है। सभी प्रकार के सुख-दु:ख में वह समदर्शी रहता है। वह अपने शरीर का भी कुछ मोह नहीं रखता। वह संशय और मिथ्या-भाव से दूर रहता है। वह नित्य बोध-स्वरूप होता है, उसे किसी सांसारिक पदार्थ की कामना नहीं होती।
  • ऐसा परमहंस व्यक्ति समस्त कामनाओं का त्याग करके अद्वैत परब्रह्म के स्वरूप में स्थित रहता है। वह निर्विकार भाव से स्वेच्छापूर्वक 'भिक्षु' बनता है। ब्रह्म के अतिरिक्त उसका आह्वान, विसर्जन, मन्त्र, ध्यान, उपासना, लक्ष्य-अलक्ष्य कुछ भी नहीं होता। उसे कोई वस्तु आकर्षक अथवा अनाकर्षक प्रतीत नहीं होती। वह स्वर्ण से प्रेम नहीं करता। उसकी इन्द्रियां अतिशय शान्त हो जाती हैं। वह अपने 'आत्मतत्त्व' में ही निमग्न रहता है। वह अपने आपको सदा पूर्णानन्द, पूर्णबोधस्वरूप 'ब्रह्म' ही समझता है। वह समस्त जीवों में अपना ही प्रतिबिम्ब देखता है।


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