गोप

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[[चित्र:Krishna-and-Gopsakha.jpg|thumb|300px|गोपसखाओं के साथ श्रीकृष्ण तथा बलराम]] गोप शब्द का प्रयोग प्राचीन साहित्य में पशुपालक जाति के पुरुष के अर्थ में हुआ है। इस जाति के कुलदेवता 'गोपाल कृष्ण' थे। भागवत की प्रेरणा लेकर पुराणों में भी कई स्थानों पर गोपों को आध्यात्मिक रूप दिया गया है। इससे पहले महाभारत में यह आध्यात्मिक रूप नहीं मिलता। बाद की रचनाओं- 'हरिवंशपुराण' तथा अन्य पुराणों में गोप-गोपियों को देवता बताया गया है, जो भगवान श्रीकृष्ण के ब्रज में जन्म लेने पर पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। राधा श्रीकृष्ण की विख्यात प्राणसखी, उपासिका और वृषभानु नामक गोप की पुत्री थीं।

श्रीकृष्ण के सखा

ब्रज के गोप, गोपियां, गोपकुमार, गायें, वन के पशु, पक्षी आदि सभी धन्य हैं, जिनकी ध्यानमयी मूर्ति एक क्षण को हृदय में आ जाय तो जन्म-जन्मान्तर के पाप-ताप भस्म हो जाते हैं और जीव कृतार्थ हो जाता है, जिनकी चरण-रज इन्द्रियों एवं मन को संयमित करके ध्यान-धारणादि करने वाले योनियों के अनेक जन्मों की कठोर साधना के पश्चात् भी दुलर्भ ही रहती है, वे स्वयं जिनके सम्मुख रहे, जिनके साथ खेले-कूदे, नाचे-गाये, लड़े-झगड़े, जिनसे रीझे और स्वयं जिन्‍हें रिझाया, उन ब्रजवासियों के सौभाग्य का कोई क्या वरण करेगा। ब्रज में गोप, गोपियां, गायें, गोपबालक आदि सभी वनों में कई प्रकार के लोग हैं। एक तो श्यामसुन्दर मदनमोहन के नित्यजन, उन गोलोकविहारी शास्वत सखा। दूसरे वेदों की श्रुतियां, तीसरे बहुत से ऋषि-मुनि तथा अन्य लोग जो किसी-न-किसी अवतार के समय भगवान की रूपमाधुरी पर मुग्ध हुए और उनको किसी रूप में अपना बनाने को उत्कष्ठित हो गये, देवता तथा देवांगनाएं और पांचवें वे धन्यभाग जीव, जो अपनी आराधना से भगवान के समीप पहुंचने के अधिकारी हो चुके थे, जिन्होंने अनेक जन्मों में इसीलिये जप-तप, भजन-ध्यान किये थे कि वे परम ब्रह्म परमात्मा को इसी पृथ्वी पर अपने किसी सुहृद के रूप में प्राप्त करें।

[[चित्र:-Krishna-and-Gopsakha-1.jpg|thumb|300px|left|अठखेलियाँ करते गोपसखा तथा श्रीकृष्ण]]

क्रीड़ाएँ

श्रीकृष्ण का ब्रज तो है ही प्रेम का दिव्यधाम। वहां सभी प्रेम की ही मूर्तियां रहती हैं। वहां के किसी का प्रेम लौकिक मन की सीमा में नहीं आता। उनमें भी गोपकुमारों के प्रेम का तो कहना ही क्या। सुबल, सुभद्र, भद्र, मणिभ्रद, वरूथप, तोककृष्ण आदि तो श्रीकृष्ण के चचेरे भाई ही थे। श्रीदामा थे श्रीराधिकाजी के भाई। इनके अतिरिक्त सहस्त्रों सखा थे। इन बालकों के तो श्रीकृष्ण ही जीवन थे, श्रीकृष्ण ही प्राण थे, श्रीकृष्ण ही सर्वस्व थे। ये श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये दौड़ते, कूदते, गाते, नाचते और भांति-भांति की क्रीड़ाएं तथा मनोविनोद करते। श्याम गाते तो ये ताली बजाते; कन्हाई नाचते तो प्रशंसा करते; वह तनिक दूर हो जाते तो इनके प्राण तड़पने लगते और ये अपने उस जीवनसर्वस्व को छूने दौड़ पड़ते। मोहन को ये पुष्पों, किसलयों, गुंजा तथा वनधातुओं से सजाते। वह थक जाते तो उनके चरण दबाते। उनके ऊपर कमल के पत्ते से पंखा झलते। श्याम से ये खेलते, लड़ते-झगड़ते और रूठा भी करते; किंतु मोहन के नेत्रों में तनिक भी दुःख या क्षोभ की छाया इन्हें सहन नहीं हो सकती थी। [[चित्र:Balkrishna.jpg|thumb|300px|भगवान श्रीकृष्ण गोपसखाओं के साथ भोजन करते हुए|left]]

गोपकुमारों का कृष्ण पर विश्वास

श्रीकृष्णचन्द्र दूसरों के लिये चाहे जो और जैसे रहे हों, अपने इन सखाओं के लिये सदा स्नेहमय, सुकुमार प्राणप्रिय सखा ही रहे, न कम, न अधिक ! सखाओं का मान रखना, उनका सदा का व्रत रहा। गोपकुमारों का उन पर कितना विश्वास था, यह इसी से स्पष्ट है कि सामने पर्वताकार अघासुर को देखकर भी उन्होंने उसे कोई कुतूहलप्रद गिरिगुफ़ा नहीं समझा। किसी ने संदेह भी किया- "यदि यह सचमुच अजगर ही हो तो?" बालकों ने हंसी में उड़ा दी यह बात। उन्होंने कितने विश्वास से कहा- "हो अजगर तो हुआ करे। यदि यह अजगर हुआ और इसने हमें भक्षण करने का मन किया तो श्याम इसे वैसे ही फाड़कर फेंक देगा, जैसे उसने बगुले (बकासुर) को फाड़ दिया था।" ऐसे निश्चिन्त विश्वास से जो श्याम पर निर्भर करते हैं, श्याम उन्हीं का तो है। [[चित्र:Krishna Leela(6).jpg|thumb|300px|right|भगवान श्रीकृष्ण गोपसखाओं के साथ]]अपने सखाओं के लिये वह भुवनपावन अघासुर के मुख में गया और उसका मस्तक फोड़कर अपने सखाओं का उसने उद्धार किया। इतना ही नहीं, अघासुर को निष्प्राण करके उसके देह को सखाओं के खेलने की गुफ़ा बना दिया।

इसी प्रकार व्योमासुर जब बालकों में गोप बालक बनकर आ मिला और खेल के बहाने छिपे-छिपे उन्हें गुफ़ाओं में बंद करने लगा, तब श्याम ने उसे पकड़ कर घूसे-थप्पड़ों से ही मार डाला। श्यामसुन्दर ने सखाओं के लिये दावाग्नि का पान किया और जब बालकों ने तालवन के फल खाने की इच्छा प्रकट की, तब धेनुकासुर को बड़े भाई बलराम द्वारा परमधाम भिजवाकर कन्हाई ने उस वन को ही निर्विघ्न कर दिया। कालियदह का जल कालिय नाग के विष से दूषित हो गया। उसे अनजान में पीकर गायें तथा गोपबालक मूर्छित हो गये। यह बात श्रीकृष्णचन्द्र से भला, कैसे सही जाती। अपनी अमृतदृष्टि से सबको उन्होंने जीवन दिया तथा कालियदह में कूदकर उस महानाग के गर्व को चूर-चूर कर दिया और उसे वहां से निर्वासित कर दिया।

श्रीकृष्ण मथुरा गये और फिर ब्रज नहीं आये। यह बात दूसरे सब लोगों के लिये सत्य है, संसार के लिये भी सत्य है; किंतु मोहन के भोले सखाओं के लिये यह सत्य सदा असत्य रहा और रहेगा। जो कन्हाई को एक घड़ी तो क्या, एक क्षण कालिय के बन्धन में निश्चेष्ट पड़ा देखकर मूर्छित हो गये, मृतप्राय हो गये, वे क्या अपने मयूरमुकुटी सखा का वियोग सह सकते थे? वे कन्हाई के बिना जीवित रहते? श्रुति इसी से तो श्रीकृष्ण को सर्वसमर्थ, विभु और सर्वशक्तिमान कहती है। वे ब्रज से गये मथुरा और फिर नहीं लौटे; किंतु ब्रज के गोपकुमारों, जैसे परम प्रेमियों के हृदय में उनके चरण प्रेम की रज्जु से इतने ढीले नहीं बंधे थे कि वहां से वे खिसक सकें। अत: गोपकुमारों के लिये तो वे कहीं गये ही नहीं। शास्त्र कहता है- "वे वृन्दावन छोड़कर एक पग भी कहीं बाहर नहीं जाते।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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