फ़ना

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फ़ना अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है "गुज़र जाना" या "अस्तित्व का समाप्त होना", आत्म की पूर्ण अवहेलना और ईश्वर की प्राप्ति करना। यह ऐसा क़दम है, जो मुस्लिम सूफ़ी ईश्वर के साथ एकाकार की स्थिति प्राप्त करने के लिए उठाते हैं। फ़ना की प्राप्ति लगातार ध्यान और ईश्वर के गुणों के चिंतन तथा इंसानी गुणों के चिंतन तथा इंसानी गुणों की निंदा से की जा सकती है। सूफ़ी जब अपने को सांसारिकता से पूरी तरह शुद्ध कर ईश्वर के प्रेम में डुबो देते हैं, तो कहा जाता है कि उन्होंने अपने निजत्व का नाश कर अपने अस्तित्व को समाप्त कर दिया है, ताकि ईश्वर के साथ और ईश्वर के भीतर जीवन व्यतीत किया जा सके।

कई सूफ़ियों का मानना है कि केवल फ़ना नकारात्मक स्थिती है, हालांकि सांसारिक इच्छाओं से स्वयं को मुक्त करना और मानवीय त्रुटियों को पहचानकर उन्हें छोड़ना हरेक पवित्र व्यक्ति के लिए आवश्यक है, लेकिन सूफ़ीवाद का मार्ग अपनाने वाले व्यक्ति के लिए गुण पर्याप्त नहीं हैं। यद्यपि फ़ना अन-अल-फ़ना के माध्यम से सूफ़ी मानवीय गुणों के त्याग और सांसारिक अस्तित्व को भूल जाने में कामयाब होता है, इसके बाद वह ईश्वर की कृपा से फिर सक्रिय हो जाता है और उसे दिव्य गुणों का रहस्य मालूम हो जाता है। पूर्ण जागरूकता प्राप्त करने के बाद ही वह अधिक उदात्त बक़ा की अवस्था तक पहुँचना है, जहाँ आख़िरकार वह ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए तैयार हो जाता है।

फ़ना और कुछ बौद्धईसाई अवधाराणाओं के बीच तुलना के बावजूद कई मुस्लिम विद्वान् इस बात पर ज़ोर देते हैं कि अन्य सूफ़ी सिद्धंतों की तरह फ़ना भी पूरी तरह इस्लामी शिक्षा पर आधारित है, वे क़ुरान की इस आयत को फ़ना का प्रत्यक्ष स्त्रोत बताते हैं,

संसार की सभी वस्तुएं विनाश का सामना करती हैं और केवल ख़ुदा का चेहरा अपने प्रभुत्व और उदारता में दिखाई देता है।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 55:26-27

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