त्र्यरुण: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
गोविन्द राम (talk | contribs) m (श्रेणी:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश (को हटा दिया गया हैं।)) |
No edit summary |
||
(4 intermediate revisions by 3 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
एक बार राजा त्र्यरुण को एक सारथी की आवश्यकता थी। उसके पुरोहित [[वृषजान]] ने घोड़ों की लगाम को थाम लिया। पुरोहित को सारथी के रूप में पाकर राजा '''रथारूढ़''' हुए। मार्ग में एक बालक आ गया। अथक प्रयत्न से भी वृषजान घोड़ों को रोक नहीं पाया तथा बालक रथ के पहिये से कुचलकर मारा गया। जनता इकट्ठी हो गई तथा वहाँ पर हाहाकार मच गया। पुरोहित ने | एक बार राजा त्र्यरुण को एक सारथी की आवश्यकता थी। उसके [[पुरोहित]] [[वृषजान]] ने घोड़ों की लगाम को थाम लिया। पुरोहित को सारथी के रूप में पाकर राजा '''रथारूढ़''' हुए। मार्ग में एक बालक आ गया। अथक प्रयत्न से भी वृषजान घोड़ों को रोक नहीं पाया तथा बालक रथ के पहिये से कुचलकर मारा गया। जनता इकट्ठी हो गई तथा वहाँ पर हाहाकार मच गया। पुरोहित ने [[अथर्वन]] मंत्रों तथा 'वार्शसाम' स्तोत्र के द्वारा स्तवन किया। बालक पुन: जीवित हो उठा। विवाद शुरू हो चुका था, कि अपराधी कौन है-सारथी या फिर रथी? सबने निश्चय किया कि [[इक्ष्वाकु]] इसका निर्णय करेंगे। इक्ष्वाकु की व्यवस्था के अनुसार वृषजान को स्वदेश त्यागना पड़ा। | ||
प्रजा के सम्मुख विकट संकट उत्पन्न हो गया। अग्नि तापरहित हो गई। भोजन तैयार करना, दूध-पानी गरम करना असम्भव हो गया। प्रजा ने एकत्र होकर कहा कि [[पुरोहित]] को दंड देना अनुचित है। इक्ष्वाकु ने अपने वंशज (त्र्यरुण) के साथ पक्षपात करके पुरोहित को विदेश गमन की व्यवस्था दी है, इसी से अग्नि का ताप नष्ट हो गया। राजा पुरोहित के पास गये। उनसे क्षमा-याचना की और कहा, <blockquote>"पुरोहितवर, आपका धर्म क्षमादान है। मेरा दंडदान कीजिए व आप मुझे क्षमा कीजिए। मेरे कारण प्रजा को कष्ट पहुँचाना उचित नहीं है।"</blockquote> पुरोहित वृषजान ने राजा को क्षमा कर दिया तथा राज्य का [[पुरोहित]] पद पुन: स्वीकार कर लिया, किन्तु अग्नि का ताप अब भी नहीं लौटा। पुरोहित ने कहा कि वे कारण जान गये हैं। उन्होंने कहा कि रानी पिशाचिनी है। रानी को बुलाया गया। पुरोहित ने [[अग्निदेव]] का आहावान किया। रानी अत्यन्त मलिन, उदास थी। अग्नि देवता ने प्रकट होकर रानी को भस्म कर दिया। पाप की समाप्ति के साथ ही अग्नि का तेज़ और प्रकाश एक बार फिर से पुन: लौट आया।<ref>[[ऋग्वेद]] 5|2, 5|21</ref> | |||
{{लेख प्रगति | {{लेख प्रगति | ||
|आधार= | |आधार= | ||
Line 9: | Line 9: | ||
|शोध= | |शोध= | ||
}} | }} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
[[Category: | ==संबंधित लेख== | ||
{{कथा}} | |||
[[Category:कथा साहित्य]][[Category:कथा साहित्य कोश]] [[Category:पौराणिक कोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
Latest revision as of 13:25, 19 February 2014
एक बार राजा त्र्यरुण को एक सारथी की आवश्यकता थी। उसके पुरोहित वृषजान ने घोड़ों की लगाम को थाम लिया। पुरोहित को सारथी के रूप में पाकर राजा रथारूढ़ हुए। मार्ग में एक बालक आ गया। अथक प्रयत्न से भी वृषजान घोड़ों को रोक नहीं पाया तथा बालक रथ के पहिये से कुचलकर मारा गया। जनता इकट्ठी हो गई तथा वहाँ पर हाहाकार मच गया। पुरोहित ने अथर्वन मंत्रों तथा 'वार्शसाम' स्तोत्र के द्वारा स्तवन किया। बालक पुन: जीवित हो उठा। विवाद शुरू हो चुका था, कि अपराधी कौन है-सारथी या फिर रथी? सबने निश्चय किया कि इक्ष्वाकु इसका निर्णय करेंगे। इक्ष्वाकु की व्यवस्था के अनुसार वृषजान को स्वदेश त्यागना पड़ा।
प्रजा के सम्मुख विकट संकट उत्पन्न हो गया। अग्नि तापरहित हो गई। भोजन तैयार करना, दूध-पानी गरम करना असम्भव हो गया। प्रजा ने एकत्र होकर कहा कि पुरोहित को दंड देना अनुचित है। इक्ष्वाकु ने अपने वंशज (त्र्यरुण) के साथ पक्षपात करके पुरोहित को विदेश गमन की व्यवस्था दी है, इसी से अग्नि का ताप नष्ट हो गया। राजा पुरोहित के पास गये। उनसे क्षमा-याचना की और कहा,
"पुरोहितवर, आपका धर्म क्षमादान है। मेरा दंडदान कीजिए व आप मुझे क्षमा कीजिए। मेरे कारण प्रजा को कष्ट पहुँचाना उचित नहीं है।"
पुरोहित वृषजान ने राजा को क्षमा कर दिया तथा राज्य का पुरोहित पद पुन: स्वीकार कर लिया, किन्तु अग्नि का ताप अब भी नहीं लौटा। पुरोहित ने कहा कि वे कारण जान गये हैं। उन्होंने कहा कि रानी पिशाचिनी है। रानी को बुलाया गया। पुरोहित ने अग्निदेव का आहावान किया। रानी अत्यन्त मलिन, उदास थी। अग्नि देवता ने प्रकट होकर रानी को भस्म कर दिया। पाप की समाप्ति के साथ ही अग्नि का तेज़ और प्रकाश एक बार फिर से पुन: लौट आया।[1]
|
|
|
|
|