सत्यकाम जाबाल: Difference between revisions
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#ज्योतिष्मान- सूर्यककला, चंद्रककला, विद्युतकला, अग्निकला। | #ज्योतिष्मान- सूर्यककला, चंद्रककला, विद्युतकला, अग्निकला। | ||
#आयतनवान- प्राणकला, चक्षुकला, श्रोत्रकला, मनकला।< | #आयतनवान- प्राणकला, चक्षुकला, श्रोत्रकला, मनकला।<ref>छान्दोग्य उपनिषद, अ0 4, खंड 4,5,6,7,8,9</ref> | ||
*समृद्धिशाली परिवारों में परिचारिका के कार्य से जीविकानिर्वाह करने वाली एक स्त्री थी जिसका नाम था जबाला। | *समृद्धिशाली परिवारों में परिचारिका के कार्य से जीविकानिर्वाह करने वाली एक स्त्री थी जिसका नाम था जबाला। | ||
*उसे यौवन वयस में एक पुत्र हुआ जिसका नाम सत्यकाम था। | *उसे यौवन वयस में एक पुत्र हुआ जिसका नाम सत्यकाम था। | ||
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*जंगल में गोचारण करते हुए जब कालक्रम से उसके पास गायों की संख्या एक हज़ार हो गयी तब एक दिन उस गोयूथ में विद्यमान वृषभ ने सत्यकाम से कहा कि वत्स! अब हमारी संख्या एक हज़ार हो गयी है। अतः अब हमें गुरुकुल वापस ले चलो। मै तुम्हें ब्रह्मबोध के एक चरण की शिक्षा प्रदान करता हूँ। सत्यकाम उनके साथ गुरुकुल चल पड़ा। मार्ग में क्लान्त होकर जब-जब वह विश्राम किया करता था तब क्रमशः तीन स्थानों पर [[अग्निदेव|अग्नि]], हंस और एक अन्य जलचर पक्षी ने उसे ब्रह्मबोध के अवशिष्ट तीन चरणों का उपदेश दिया। इस प्रकार, पूर्ण ब्रह्मज्ञान की दिप्ति से विभास्वर होकर सत्यकाम जब एक हज़ार गायों के साथ गुरुकुल वापस आया तो गुरु ने उससे पूछा कि वत्स! तुम ब्रह्मज्ञान से दीप्त दिखलायी देते हो। कहो! किसने तुम्हें ब्रह्म का उपदेश प्रदान किया है? इस पर सत्यकाम ने सारा वृतान्त कहकर उनसे निवेदन किया कि गुरुमुख से ही अधिगत विद्या फलवती होती है। अतः आप मुझे ब्रह्मविद्या का उपदेश दीजिए। सत्यकाम के विनयपूर्ण आग्रह से महर्षि गौतम ने उसे पुनः सांगोपांग ब्रह्मविद्या का उपदेश प्रदान किया। | *जंगल में गोचारण करते हुए जब कालक्रम से उसके पास गायों की संख्या एक हज़ार हो गयी तब एक दिन उस गोयूथ में विद्यमान वृषभ ने सत्यकाम से कहा कि वत्स! अब हमारी संख्या एक हज़ार हो गयी है। अतः अब हमें गुरुकुल वापस ले चलो। मै तुम्हें ब्रह्मबोध के एक चरण की शिक्षा प्रदान करता हूँ। सत्यकाम उनके साथ गुरुकुल चल पड़ा। मार्ग में क्लान्त होकर जब-जब वह विश्राम किया करता था तब क्रमशः तीन स्थानों पर [[अग्निदेव|अग्नि]], हंस और एक अन्य जलचर पक्षी ने उसे ब्रह्मबोध के अवशिष्ट तीन चरणों का उपदेश दिया। इस प्रकार, पूर्ण ब्रह्मज्ञान की दिप्ति से विभास्वर होकर सत्यकाम जब एक हज़ार गायों के साथ गुरुकुल वापस आया तो गुरु ने उससे पूछा कि वत्स! तुम ब्रह्मज्ञान से दीप्त दिखलायी देते हो। कहो! किसने तुम्हें ब्रह्म का उपदेश प्रदान किया है? इस पर सत्यकाम ने सारा वृतान्त कहकर उनसे निवेदन किया कि गुरुमुख से ही अधिगत विद्या फलवती होती है। अतः आप मुझे ब्रह्मविद्या का उपदेश दीजिए। सत्यकाम के विनयपूर्ण आग्रह से महर्षि गौतम ने उसे पुनः सांगोपांग ब्रह्मविद्या का उपदेश प्रदान किया। | ||
*इस आख्यान में तत्कालीन सामाजिक स्थिति के परिपार्श्व में दासी वृत्ति के द्वारा जीवन-यापन करने वाली जबाला की आत्मवृत-विषयक स्पष्टोक्ति, ॠजु-स्वभाव एवं निश्र्छलता का परिचय प्राप्त होता है। माता के कथानुसार निस्संकोच एवं अकुण्ठ भाव से अपने मातृलुक गोत्र का उल्लेख करने वाले सत्यकाम के चरित्र में सत्यवादिता को हम आश्चर्यजनक रूप में प्रतिष्ठित पाते है। गो-सहस्त्र के साथ गुरुकुल लौटने के क्रम में सत्यकाम को वृषभ, अग्नि, हंस एवं जलचर पक्षी के द्वारा रहस्यभूत ब्रह्मज्ञान की देशना के वृतान्त में प्राणि-पात्रप्रधान कथाबन्ध का परवर्त्ती स्वरूप उन्मेषोन्मुख उपलब्ध होता है, जो अनिर्भ्रान्त भाव से इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि तत्कालीन लोकमानस में पशु-पक्षी एवं अचेतन प्राकृतिक तत्त्व द्वारा मनुष्य की वाणी का व्यवहार किया जाना सन्देहातीत रूप में स्वीकृत हो चुका था। परन्तु, परवर्त्ती तर्कचेतना-वशम्वद भाष्यकारों ने इस आख्यान में चर्चित पात्रों पर देवतात्त्व का अध्यारोप कर दिया है। तदनुसार, वृषभ प्रभुति क्रमशः वायु, आदित्य एवं प्राणशक्ति के प्रतिरूप के रूप में व्याख्यात हुए हैं। | *इस आख्यान में तत्कालीन सामाजिक स्थिति के परिपार्श्व में दासी वृत्ति के द्वारा जीवन-यापन करने वाली जबाला की आत्मवृत-विषयक स्पष्टोक्ति, ॠजु-स्वभाव एवं निश्र्छलता का परिचय प्राप्त होता है। माता के कथानुसार निस्संकोच एवं अकुण्ठ भाव से अपने मातृलुक गोत्र का उल्लेख करने वाले सत्यकाम के चरित्र में सत्यवादिता को हम आश्चर्यजनक रूप में प्रतिष्ठित पाते है। गो-सहस्त्र के साथ गुरुकुल लौटने के क्रम में सत्यकाम को वृषभ, अग्नि, हंस एवं जलचर पक्षी के द्वारा रहस्यभूत ब्रह्मज्ञान की देशना के वृतान्त में प्राणि-पात्रप्रधान कथाबन्ध का परवर्त्ती स्वरूप उन्मेषोन्मुख उपलब्ध होता है, जो अनिर्भ्रान्त भाव से इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि तत्कालीन लोकमानस में पशु-पक्षी एवं अचेतन प्राकृतिक तत्त्व द्वारा मनुष्य की वाणी का व्यवहार किया जाना सन्देहातीत रूप में स्वीकृत हो चुका था। परन्तु, परवर्त्ती तर्कचेतना-वशम्वद भाष्यकारों ने इस आख्यान में चर्चित पात्रों पर देवतात्त्व का अध्यारोप कर दिया है। तदनुसार, वृषभ प्रभुति क्रमशः वायु, आदित्य एवं प्राणशक्ति के प्रतिरूप के रूप में व्याख्यात हुए हैं। | ||
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Revision as of 15:03, 1 June 2010
- जाबाला के पुत्र सत्यकाम ने गुरुकुल के लिए प्रस्थान करने से पूर्व जाबाला से अपना गोत्र पूछा। मां ने बताया कि वह अतिथि-सत्कार करने वाली परिचारिणी थी, वहीं उसे पुत्र की प्राप्ति हुई थी- गोत्र क्या है, वह नहीं जानती। साथ ही मां ने कहा-'तुम मेरे पुत्र हो, अपना नाम 'सत्यकाम जाबाल' बताना।
- सत्यकाम हारिद्रुमत गौतम के आश्रम में पहुंचा। आचार्य गौतम के पूछने पर उसने मां की कही बात ज्यों की ज्यों दोहरा दी। आचार्य ने कहा-'इतना स्पष्टवादी बालक ब्राह्मण के अतिरिक्त और कौन हो सकता है?' तथा उसका उपनयन करवाकर उसे 400 दुर्बल गौ चराने के लिए सौंप दीं।
- सत्यकाम ने कहा-'मैं तभी वापस आऊंगा जब इनकी संख्या एक सहस्त्र हो जायेगी।' सत्यकाम बहुत समय तक जंगल में रहा। उसकी सत्यनिष्ठा, तप और श्रद्धा से प्रसन्न होकर दिग्व्यापी वायु देवता ने सांड़ का रूप धारण किया और उससे कहा कि गौवों की संख्या एक सहस्त्र हो गयी है, अत: वह आश्रम जाए।
- मार्ग में अग्नि ने 'अनंतवान', हंस ने 'ज्योतिष्मान' और मद्गु ने 'आयतनवान' नामक चतुष्कल पदों के आदेश दिये। आश्रम में पहुंचने पर गौतम को वह ब्रह्मज्ञानी जान पड़ा।
- गौतम ने उसे विभिन्न ऋषियों से दिए गये उपदेश का परिवर्द्धन कर उसके ज्ञान को पूर्ण कर दिया। ब्रह्म के चार-चार कलाओं से युक्त चार पद माने गए हैं-
- प्रकाशवान- पूर्वदिक्कला, पश्चिम दिक्कला, दक्षिण दिक्कला, उत्तर दिक्कला।
- अनंतवान- पृथ्वीकला, अंतरिक्षकला, द्युलोककला, समुद्रकला।
- ज्योतिष्मान- सूर्यककला, चंद्रककला, विद्युतकला, अग्निकला।
- आयतनवान- प्राणकला, चक्षुकला, श्रोत्रकला, मनकला।[1]
- समृद्धिशाली परिवारों में परिचारिका के कार्य से जीविकानिर्वाह करने वाली एक स्त्री थी जिसका नाम था जबाला।
- उसे यौवन वयस में एक पुत्र हुआ जिसका नाम सत्यकाम था।
- यथा समय शिक्षा प्राप्त करने के लिए जब वह गुरुकुल गया तो महर्षि गौतम ने उसका गोत्र पूछा। उसने अपनी माँ से अपना गोत्र जानना चाहा। माँ ने कहा- 'तुम गुरु से कहना मेरी माँ का नाम जबाला है और तुम्हारा नाम सत्यकाम है। अतः, तुम गुरु से कहना कि मै सत्यकाम जाबाल हूँ। जाओ।'
- गुरु के पास आकर सत्यकाम ने अपनी माँ के कथनानुसार अपने को सत्यकाम जाबाल बतलाया और स्पष्ट शब्दों में कहा कि माँ को पिता का नाम स्मरण नहीं है। गुरु ने भी कहा कि वत्स! ब्राह्मण ही ऐसा सत्यवादी हो सकता है। जाओ! समिधा ले आओ। मे तुम्हें उपनीत करूँगा। उपनय संस्कार के अनन्तर गुरु ने सत्यकाम को चार सौ कृशकाय गायें दीं और कहा कि इन्हें लेकर जाओ। गोचारण करते-करते जब इनकी संख्या एक हज़ार हो जाय तब उनके साथ गुरुकुल वापस आ जाना।
- जंगल में गोचारण करते हुए जब कालक्रम से उसके पास गायों की संख्या एक हज़ार हो गयी तब एक दिन उस गोयूथ में विद्यमान वृषभ ने सत्यकाम से कहा कि वत्स! अब हमारी संख्या एक हज़ार हो गयी है। अतः अब हमें गुरुकुल वापस ले चलो। मै तुम्हें ब्रह्मबोध के एक चरण की शिक्षा प्रदान करता हूँ। सत्यकाम उनके साथ गुरुकुल चल पड़ा। मार्ग में क्लान्त होकर जब-जब वह विश्राम किया करता था तब क्रमशः तीन स्थानों पर अग्नि, हंस और एक अन्य जलचर पक्षी ने उसे ब्रह्मबोध के अवशिष्ट तीन चरणों का उपदेश दिया। इस प्रकार, पूर्ण ब्रह्मज्ञान की दिप्ति से विभास्वर होकर सत्यकाम जब एक हज़ार गायों के साथ गुरुकुल वापस आया तो गुरु ने उससे पूछा कि वत्स! तुम ब्रह्मज्ञान से दीप्त दिखलायी देते हो। कहो! किसने तुम्हें ब्रह्म का उपदेश प्रदान किया है? इस पर सत्यकाम ने सारा वृतान्त कहकर उनसे निवेदन किया कि गुरुमुख से ही अधिगत विद्या फलवती होती है। अतः आप मुझे ब्रह्मविद्या का उपदेश दीजिए। सत्यकाम के विनयपूर्ण आग्रह से महर्षि गौतम ने उसे पुनः सांगोपांग ब्रह्मविद्या का उपदेश प्रदान किया।
- इस आख्यान में तत्कालीन सामाजिक स्थिति के परिपार्श्व में दासी वृत्ति के द्वारा जीवन-यापन करने वाली जबाला की आत्मवृत-विषयक स्पष्टोक्ति, ॠजु-स्वभाव एवं निश्र्छलता का परिचय प्राप्त होता है। माता के कथानुसार निस्संकोच एवं अकुण्ठ भाव से अपने मातृलुक गोत्र का उल्लेख करने वाले सत्यकाम के चरित्र में सत्यवादिता को हम आश्चर्यजनक रूप में प्रतिष्ठित पाते है। गो-सहस्त्र के साथ गुरुकुल लौटने के क्रम में सत्यकाम को वृषभ, अग्नि, हंस एवं जलचर पक्षी के द्वारा रहस्यभूत ब्रह्मज्ञान की देशना के वृतान्त में प्राणि-पात्रप्रधान कथाबन्ध का परवर्त्ती स्वरूप उन्मेषोन्मुख उपलब्ध होता है, जो अनिर्भ्रान्त भाव से इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि तत्कालीन लोकमानस में पशु-पक्षी एवं अचेतन प्राकृतिक तत्त्व द्वारा मनुष्य की वाणी का व्यवहार किया जाना सन्देहातीत रूप में स्वीकृत हो चुका था। परन्तु, परवर्त्ती तर्कचेतना-वशम्वद भाष्यकारों ने इस आख्यान में चर्चित पात्रों पर देवतात्त्व का अध्यारोप कर दिया है। तदनुसार, वृषभ प्रभुति क्रमशः वायु, आदित्य एवं प्राणशक्ति के प्रतिरूप के रूप में व्याख्यात हुए हैं।
टीका टिप्पणी
- ↑ छान्दोग्य उपनिषद, अ0 4, खंड 4,5,6,7,8,9