गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य: Difference between revisions

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====व्यवस्थापक, शक्तिशाली शासक राजा भोज====  
====व्यवस्थापक, शक्तिशाली शासक राजा भोज====  
जैसा कि ऊपर बताया गया है, प्रतिहार वंश के आरम्भिक शासक वत्सराज तथा नागभट्ट द्वितीय, पाल और राष्ट्रकूट शासकों से पराजित हो गए थे, और इस प्रकार इनकी स्थिति कमज़ोर हो गई थी। प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक व्यवस्थापक, उस वंश का सबसे अधिक शक्तिशाली शासक राजा भोज था। हमें यह पता नहीं है कि भोज कब सिंहासन पर बैठा। उसके प्रारम्भिक जीवन के बारे में हमें पता इसलिए नहीं है क्योंकि नागभट्ट द्वितीय तथा राष्ट्रकूट शासक गोपाल तृतीय से पराजित होने के बाद प्रतिहार साम्राज्य का लगभग विघटन हो गया थां भोज ने धीरे धीरे फिर साम्राज्य की स्थापनी की। उसने कन्नौज पर 836 ई0 तक पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया और जो प्रतिहार वंश के अंत तक उसकी राजधानी बना रहा। राजा भोज ने गुर्जरात्र अथवा मध्य और पूर्वी राजस्थान पर भी पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित किया, लेकिन एक बार फिर प्रतिहारों को पाल तथा राष्ट्रकूटों का सामना करना पड़ा। भोज देवपाल से पराजित हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि कन्नौज उसके हाथ से गया नहीं। अब पूर्वी क्षेत्र में भोज पराजित हो गया, तब उसने मध्य भारत तथा दक्कन की ओर अपना ध्यान लगा दिया। गुजरात और मालवा पर विजय प्राप्त करने के अपने प्रयास में उसका फिर राष्ट्रकूटों से संघर्ष छिड़ गया। नर्मदा के तट पर एक भीषण युद्ध हुआ। लेकिन भोज मालवा के अधिकतर क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में सफल रहा। सम्भव है कि उसने गुजरात के कुछ हिस्सों पर भी शासन किया हो। [[हरियाणा]] के [[करनाल]] जिले में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार भोज ने [[सतलुज नदी|सतलज नदी]] के पूर्वी तट पर कुछ क्षेत्रों को भी अपने अधीन कर लिया था। इस अभिलेख में भोज देव के शक्तिशाली और शुभ शासनकाल में एक स्थानीय मेले में कुछ घोड़ों के व्यापारियों द्वारा घोड़ों की चर्चा की गई है। इससे पता चलता है कि प्रतिहार शासकों और मध्य एशिया के बीच काफी व्यापार चलता था। अरब यात्रियों ने बताया कि प्रतिहार शासकों के पास भारत में सबसे अच्छी अश्व सेना थी। मध्य एशिया तथा अरब के साथ भारत के व्यापार में घोड़ों का प्रमुख स्थान था। देवपाल की मृत्यु और उसके परिणामस्वरूप पाल साम्राज्य की कमज़ोरी का लाभ उठाकर भोज ने पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।  
जैसा कि ऊपर बताया गया है, प्रतिहार वंश के आरम्भिक शासक वत्सराज तथा नागभट्ट द्वितीय, पाल और राष्ट्रकूट शासकों से पराजित हो गए थे, और इस प्रकार इनकी स्थिति कमज़ोर हो गई थी। प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक व्यवस्थापक, उस वंश का सबसे अधिक शक्तिशाली शासक राजा भोज था। हमें यह पता नहीं है कि भोज कब सिंहासन पर बैठा। उसके प्रारम्भिक जीवन के बारे में हमें पता इसलिए नहीं है क्योंकि नागभट्ट द्वितीय तथा राष्ट्रकूट शासक गोपाल तृतीय से पराजित होने के बाद प्रतिहार साम्राज्य का लगभग विघटन हो गया थां भोज ने धीरे धीरे फिर साम्राज्य की स्थापनी की। उसने कन्नौज पर 836 ई0 तक पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया और जो प्रतिहार वंश के अंत तक उसकी राजधानी बना रहा। राजा भोज ने गुर्जरात्र अथवा मध्य और पूर्वी राजस्थान पर भी पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित किया, लेकिन एक बार फिर प्रतिहारों को पाल तथा राष्ट्रकूटों का सामना करना पड़ा। भोज देवपाल से पराजित हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि कन्नौज उसके हाथ से गया नहीं। अब पूर्वी क्षेत्र में भोज पराजित हो गया, तब उसने मध्य भारत तथा दक्कन की ओर अपना ध्यान लगा दिया। गुजरात और मालवा पर विजय प्राप्त करने के अपने प्रयास में उसका फिर राष्ट्रकूटों से संघर्ष छिड़ गया। नर्मदा के तट पर एक भीषण युद्ध हुआ। लेकिन भोज मालवा के अधिकतर क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में सफल रहा। सम्भव है कि उसने गुजरात के कुछ हिस्सों पर भी शासन किया हो। [[हरियाणा]] के [[करनाल]] जिले में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार भोज ने [[सतलुज नदी|सतलज नदी]] के पूर्वी तट पर कुछ क्षेत्रों को भी अपने अधीन कर लिया था। इस अभिलेख में भोज देव के शक्तिशाली और शुभ शासनकाल में एक स्थानीय मेले में कुछ घोड़ों के व्यापारियों द्वारा घोड़ों की चर्चा की गई है। इससे पता चलता है कि प्रतिहार शासकों और मध्य एशिया के बीच काफी व्यापार चलता था। अरब यात्रियों ने बताया कि प्रतिहार शासकों के पास भारत में सबसे अच्छी अश्व सेना थी। मध्य एशिया तथा अरब के साथ भारत के व्यापार में घोड़ों का प्रमुख स्थान था। देवपाल की मृत्यु और उसके परिणामस्वरूप पाल साम्राज्य की कमज़ोरी का लाभ उठाकर भोज ने पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।  
 
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दुर्भाग्यवश हमें भोज के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। भोज का नाम कथाओं में अवश्य प्रसिद्ध है। सम्भवतः उसके समसामयिक लेखक भोज के प्रारम्भिक जीवन की रोमांचपूर्ण घटनाओं, खोए हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के साहस, तथा कन्नौज की विजय से अत्यनत प्रभावित थे। किंतु भोज [[विष्णु]] का भक्त था और उसने 'आदिवराह' की पदवी ग्रहण की थी जो उसके सिक्कों पर भी अंकित है। कुछ समय बाद कन्नौज पर शासन करने वाले [[परमार वंश]] के राजा भोज, और [[गुर्जर प्रतिहार वंश|प्रतिहार वंश]] के इस राजा भोज में अन्तर करने के लिए इसे कभी-कभी 'मिहिर भोज' भी कहा जाता है।  
दुर्भाग्यवश हमें भोज के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। भोज का नाम कथाओं में अवश्य प्रसिद्ध है। सम्भवतः उसके समसामयिक लेखक भोज के प्रारम्भिक जीवन की रोमांचपूर्ण घटनाओं, खोए हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के साहस, तथा कन्नौज की विजय से अत्यनत प्रभावित थे। किंतु भोज [[विष्णु]] का भक्त था और उसने 'आदिवराह' की पदवी ग्रहण की थी जो उसके सिक्कों पर भी अंकित है। कुछ समय बाद कन्नौज पर शासन करने वाले [[परमार वंश]] के राजा भोज, और [[गुर्जर प्रतिहार वंश|प्रतिहार वंश]] के इस राजा भोज में अन्तर करने के लिए इसे कभी-कभी 'मिहिर भोज' भी कहा जाता है।  



Revision as of 13:41, 22 August 2010

देवपाल के शासन के अन्तिम दिनों में प्रतिहार साम्राज्य की शक्ति बढ़ने लगी। प्रतिहारों का गुजरात अथवा दक्षिण-पश्चिम राजस्थान से सम्बन्ध होने के कारण उन्हें गुर्जर प्रतिहार भी कहा जाता है। ये पाल वंश से कुछ समय पहले ही शक्तिशाली बने। आरम्भ में सम्भवतः ये केवल स्थानीय अधिकारी थे, लेकिन कालान्तर में उन्होंने मध्य तथा पूर्वी राजस्थान के कई क्षेत्रों पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया। इनकी ख्याति तब बढ़ी जब इन्होंने राजस्थान और गुजरात में सिंध के अरबी शासकों के आक्रमण का विरोध किया। गुजरात के एक युद्ध में 738 ई0 में चालुक्यों ने 'म्लच्छों' को निर्णायक रूप से पराजित किया। बताया जाता है कि इसके बाद अरब कभी भी गुजरात में अपना प्रभाव क़ायम नहीं कर सके। इस युद्ध में भाग लेने वाला एक मुख्य व्यक्ति दन्तिदुर्ग था जो बादामी के चालुक्यों का एक सामंत था और जो इस समय दक्षिण में शासक बन बैठा था। बाद में दन्तिदुर्ग ने चालुक्यों को पराजित कर राष्ट्रकूट साम्राज्य की नींव डाली।

व्यवस्थापक, शक्तिशाली शासक राजा भोज

जैसा कि ऊपर बताया गया है, प्रतिहार वंश के आरम्भिक शासक वत्सराज तथा नागभट्ट द्वितीय, पाल और राष्ट्रकूट शासकों से पराजित हो गए थे, और इस प्रकार इनकी स्थिति कमज़ोर हो गई थी। प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक व्यवस्थापक, उस वंश का सबसे अधिक शक्तिशाली शासक राजा भोज था। हमें यह पता नहीं है कि भोज कब सिंहासन पर बैठा। उसके प्रारम्भिक जीवन के बारे में हमें पता इसलिए नहीं है क्योंकि नागभट्ट द्वितीय तथा राष्ट्रकूट शासक गोपाल तृतीय से पराजित होने के बाद प्रतिहार साम्राज्य का लगभग विघटन हो गया थां भोज ने धीरे धीरे फिर साम्राज्य की स्थापनी की। उसने कन्नौज पर 836 ई0 तक पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया और जो प्रतिहार वंश के अंत तक उसकी राजधानी बना रहा। राजा भोज ने गुर्जरात्र अथवा मध्य और पूर्वी राजस्थान पर भी पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित किया, लेकिन एक बार फिर प्रतिहारों को पाल तथा राष्ट्रकूटों का सामना करना पड़ा। भोज देवपाल से पराजित हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि कन्नौज उसके हाथ से गया नहीं। अब पूर्वी क्षेत्र में भोज पराजित हो गया, तब उसने मध्य भारत तथा दक्कन की ओर अपना ध्यान लगा दिया। गुजरात और मालवा पर विजय प्राप्त करने के अपने प्रयास में उसका फिर राष्ट्रकूटों से संघर्ष छिड़ गया। नर्मदा के तट पर एक भीषण युद्ध हुआ। लेकिन भोज मालवा के अधिकतर क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में सफल रहा। सम्भव है कि उसने गुजरात के कुछ हिस्सों पर भी शासन किया हो। हरियाणा के करनाल जिले में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार भोज ने सतलज नदी के पूर्वी तट पर कुछ क्षेत्रों को भी अपने अधीन कर लिया था। इस अभिलेख में भोज देव के शक्तिशाली और शुभ शासनकाल में एक स्थानीय मेले में कुछ घोड़ों के व्यापारियों द्वारा घोड़ों की चर्चा की गई है। इससे पता चलता है कि प्रतिहार शासकों और मध्य एशिया के बीच काफी व्यापार चलता था। अरब यात्रियों ने बताया कि प्रतिहार शासकों के पास भारत में सबसे अच्छी अश्व सेना थी। मध्य एशिया तथा अरब के साथ भारत के व्यापार में घोड़ों का प्रमुख स्थान था। देवपाल की मृत्यु और उसके परिणामस्वरूप पाल साम्राज्य की कमज़ोरी का लाभ उठाकर भोज ने पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

दुर्भाग्यवश हमें भोज के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। भोज का नाम कथाओं में अवश्य प्रसिद्ध है। सम्भवतः उसके समसामयिक लेखक भोज के प्रारम्भिक जीवन की रोमांचपूर्ण घटनाओं, खोए हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के साहस, तथा कन्नौज की विजय से अत्यनत प्रभावित थे। किंतु भोज विष्णु का भक्त था और उसने 'आदिवराह' की पदवी ग्रहण की थी जो उसके सिक्कों पर भी अंकित है। कुछ समय बाद कन्नौज पर शासन करने वाले परमार वंश के राजा भोज, और प्रतिहार वंश के इस राजा भोज में अन्तर करने के लिए इसे कभी-कभी 'मिहिर भोज' भी कहा जाता है।

भोज की मृत्यु सम्भवतः 885 ई0 में हुई। उसके बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम सिंहासन पर बैठा। महेन्द्रपाल ने लगभग 908-09 तक राज किया और न केवल भोज के राज्य को बनाए रखा वरन मगध तथा उत्तरी बंगाल तक उसका विस्तार किया। काठियावाड़, पूर्वी पंजाब और अवध में भी इससे सम्बन्धित प्रमाण मिले हैं। महेन्द्रपाल ने कश्मीर नरेश से भी युद्ध किया पर हार कर उसे भोज द्वारा विजित पंजाब के कुछ क्षेत्रों को कश्मीर नरेश को देना पड़ा।

अल मसूदी के अनुसार

इस प्रकार प्रतिहार नौवीं शताब्दी के मध्य से लेकिर दसवीं शताब्दी के मध्य, अर्थात एक सौ वर्षों तक उत्तरी भारत में शक्तिशाली बने रहे। बग़दाद निवासी अल मसूदी 915-16 में गुजरात आया था और उसने प्रतिहार शासकों, उनके साम्राज्य के विस्तार, और उनकी शक्ति की चर्चा की है। वह गुर्जर-प्रतिहार राज्य को अल-जुआर (गुर्जर का अपभ्रंश) और शासक को 'बौरा' पुकारता है। जो शायद आदिवराह का ग़लत उच्चारण है। यद्यपि यह पदवी राजा भोज की थी, जिसका इस समय तक देहान्त हो चुका था। अल मसूदी कहता है कि जुआर राज्य में 1,800,000 गाँव और शहर थे। इसकी लम्बाई 2,000 किलोमीटर थी और इतनी ही इसकी चौड़ाई थी। राजा की सेना के चार अंग थे और प्रत्येक अंग में सात लाख से लेकर नौ लाख सैनिक थे। अल मसूदी कहता है कि उत्तर की सेना से यह नरेश मुलतान के शासक और उसके मित्रों से युद्ध करता है, दक्षिण की सेना से राष्ट्रकूटों से तथा पूर्व की सेना से पालों से संघर्ष करता है। इसके पास युद्ध के लिए प्रशिक्षित केवल 2,000 हाथी थे लेकिन अश्व सेना देश में सबसे अच्छी थी। प्रतिहार शासक साहित्य तथा ज्ञान को बहुत प्रोत्साहित करते थे। महान संस्कृत कवि और नाटककार राजशेखर भोज के पौत्र महीपाल के दरबार में रहता था। प्रतिहारों ने कई सुन्दर भवनों और मन्दिरों का निर्माण कर कन्नौज की शोभा बढ़ाई।

आठवीं-नौवीं शताब्दी के दौरान कई भारतीय विद्वान बग़दाद के ख़लीफ़ों के दरबार में गए। इन्होंन अरब में भारतीय विज्ञान, विशेषकर गणित, बीजगणित तथा चिकित्सा शास्त्र का प्रचार किया। हमें उन राजाओं के नाम का पता नहीं जो अपने दूतों और इन विद्वानों को बग़दाद भेजते थे। प्रतिहार सिंध के अरब शासकों के शत्रु के रूप में जाने जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि इस काल में भी भारत और पश्चिम एशिया के बीच विद्वानों और वस्तुओं का आदान-प्रदान जारी रहा।

राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय ने 915 और 918 ई0 के मध्य में एक बार फिर कन्नौज पर धावा बोल दिया। इससे प्रतिहार साम्राज्य कमज़ोर पड़ गया और सम्भवतः गुजरात पर राष्ट्रकूटों का अधिकार स्थापित हो गया क्योंकि अल मसूदी कहता है कि प्रतिहार साम्राज्य की समुद्र तक पहुँच नहीं थी। गुजरात, समुद्र के रास्ते होने वाले व्यापार का केन्द्र था तथा उत्तरी भारत से पश्चिम एशिया को जाने वाली वस्तुओं का प्रमुख द्वार था। गुजरात के हाथ से निकल जाने से प्रतिहारों को और भी धक्का लगा। महीपाल के बाद प्रतिहार साम्राज्य का धीरे-धीरे पतन हो गया। एक और राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण तृतीय ने 963 ई0 में उत्तरी भारत पर आक्रमण कर प्रतिहार शासक को पराजित कर दिया। इसके शीघ्र बाद प्रतिहार साम्राज्य का विघटन हो गया।


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