वत्सनाभ: Difference between revisions
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वत्सनाभ नामक महर्षि ने कठोर तपस्या का व्रत लिया। वे तपस्यारत थे। उनके सारे शरीर पर दीमक ने घर बना लिया। बांबी-रूपी वत्सनाभ तब भी तपस्या में लगे रहे। [[इन्द्र]] ने भयानक वर्षा की, दीमक का घर बह गया तथा वर्षा का प्रहार ऋषि के शरीर को कष्ट पहुँचाने लगा। यह देखकर धर्म ने एक विशाल भैंसे का रूप धारण किया तथा तपस्या करते हुए ऋषि को अपने चारों पैरों के बीच में करके खड़े हो गए। तपस्या की समाप्ति के उपरान्त वत्सनाभ ने [[जल]]-प्लावित [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] को देखा, फिर भैंसे को देखकर सोचा कि, निश्चय ही उसने ऋषि की वर्षा से रक्षा की होगी। तदनन्तर वे मन ही मन यह सोचकर कि पशु योनि में भी भैंसा धर्मवत्सल है तथा ऋषि स्वयं कितने कृतध्न हैं कि न तो माता-पिता का भरण-पोषण किया और न गुरु दक्षिणा ही दी। यह बात उनके मन में इतनी जम गई कि आत्महनन के अतिरिक्त कोई मार्ग उन्हें नहीं सूझा। वे अनासक्त चित्त से मरुपर्वत के शिखर पर प्राण त्याग के लिए चले गये। धर्म ने उनका हाथ पकड़ लिया तथा कहा कि "तुम्हारी आयु बहुत लम्बी है। प्रत्येक धर्मात्मा अपने कृत्यों पर ऐसे ही विचार तथा पश्चाताप करता है।"<ref>[[महाभारत]], दानधर्मपर्व, 12</ref> | वत्सनाभ नामक महर्षि ने कठोर तपस्या का व्रत लिया। वे तपस्यारत थे। उनके सारे शरीर पर दीमक ने घर बना लिया। बांबी-रूपी वत्सनाभ तब भी तपस्या में लगे रहे। [[इन्द्र]] ने भयानक वर्षा की, दीमक का घर बह गया तथा वर्षा का प्रहार ऋषि के शरीर को कष्ट पहुँचाने लगा। यह देखकर धर्म ने एक विशाल भैंसे का रूप धारण किया तथा तपस्या करते हुए ऋषि को अपने चारों पैरों के बीच में करके खड़े हो गए। तपस्या की समाप्ति के उपरान्त वत्सनाभ ने [[जल]]-प्लावित [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] को देखा, फिर भैंसे को देखकर सोचा कि, निश्चय ही उसने ऋषि की वर्षा से रक्षा की होगी। तदनन्तर वे मन ही मन यह सोचकर कि पशु योनि में भी भैंसा धर्मवत्सल है तथा ऋषि स्वयं कितने कृतध्न हैं कि न तो माता-पिता का भरण-पोषण किया और न गुरु दक्षिणा ही दी। यह बात उनके मन में इतनी जम गई कि आत्महनन के अतिरिक्त कोई मार्ग उन्हें नहीं सूझा। वे अनासक्त चित्त से मरुपर्वत के शिखर पर प्राण त्याग के लिए चले गये। धर्म ने उनका हाथ पकड़ लिया तथा कहा कि "तुम्हारी आयु बहुत लम्बी है। प्रत्येक धर्मात्मा अपने कृत्यों पर ऐसे ही विचार तथा पश्चाताप करता है।"<ref>[[महाभारत]], दानधर्मपर्व, 12</ref> | ||
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Revision as of 13:33, 10 January 2011
वत्सनाभ नामक महर्षि ने कठोर तपस्या का व्रत लिया। वे तपस्यारत थे। उनके सारे शरीर पर दीमक ने घर बना लिया। बांबी-रूपी वत्सनाभ तब भी तपस्या में लगे रहे। इन्द्र ने भयानक वर्षा की, दीमक का घर बह गया तथा वर्षा का प्रहार ऋषि के शरीर को कष्ट पहुँचाने लगा। यह देखकर धर्म ने एक विशाल भैंसे का रूप धारण किया तथा तपस्या करते हुए ऋषि को अपने चारों पैरों के बीच में करके खड़े हो गए। तपस्या की समाप्ति के उपरान्त वत्सनाभ ने जल-प्लावित पृथ्वी को देखा, फिर भैंसे को देखकर सोचा कि, निश्चय ही उसने ऋषि की वर्षा से रक्षा की होगी। तदनन्तर वे मन ही मन यह सोचकर कि पशु योनि में भी भैंसा धर्मवत्सल है तथा ऋषि स्वयं कितने कृतध्न हैं कि न तो माता-पिता का भरण-पोषण किया और न गुरु दक्षिणा ही दी। यह बात उनके मन में इतनी जम गई कि आत्महनन के अतिरिक्त कोई मार्ग उन्हें नहीं सूझा। वे अनासक्त चित्त से मरुपर्वत के शिखर पर प्राण त्याग के लिए चले गये। धर्म ने उनका हाथ पकड़ लिया तथा कहा कि "तुम्हारी आयु बहुत लम्बी है। प्रत्येक धर्मात्मा अपने कृत्यों पर ऐसे ही विचार तथा पश्चाताप करता है।"[1]
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