वत्सासुर का वध: Difference between revisions
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Revision as of 07:17, 15 April 2010
वत्सासुर का वध / Vatsasur Ka Vadh
- वृन्दावन के चारों ओर प्रकृति का वैभव बिखरा हुआ था। तरह-तरह के फलों और फूलों के वृक्ष थे। स्थान-स्थान पर सुदंर कुंज थे। भांति-भांति के पक्षी अपने मधुर कंठ स्वरों से वातावरण को गुंजित कर रहे थे। एक ओर गोवर्धन पर्वत था और दूसरी ओर यमुना कल-कल करती बह रह थी। श्रीकृष्ण प्रतिदिन प्रातः ग्वाल-बालों के साथ गायों को चराते और आपस में तरह-तरह के खेल खेला करते थे। पूरे दिन वन में ही रहते थे। गायों को चराते और आपस में तरह-तरह के खेल खेला करते थे। सन्ध्या होने पर गायों के साथ पुनः घर लौटते थे। दिन-भर का सूनापन उनके आने पर समाप्त हो जाता था और बस्ती में आनंद का सागर उमड़ पड़ता था।
- दोपहर के पूर्व का समय था। श्रीकृष्ण कदंब के वृक्ष के नीचे ग्वाल-बालों के साथ खेल रहे थे। चारों ओर सन्नाटा था। सहसा श्रीकृष्ण की दृष्टि सामने चरते हुए बछ्ड़ों की ओर गई। उन बछ्ड़ों के मध्य वे एक अद्भुत बछ्ड़े को देखकर चौंक उठे। दरअसल, वह कोई बछ्ड़ा नहीं था, वह एक दैत्य था जो बछ्ड़े का रूप धारण करके बछ्ड़ों में जा मिला था। वह श्रीकृष्ण को हानि पहुंचाने के लिए अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने गाय के बछ्ड़े का रूप धारण किया था, इसीलिए लोग उसे वत्सासुर कहते थे।
- श्रीकृष्ण ने वत्सासुर को देखते ही पहचान लिया। जो बिना नेत्रों के ही संपूर्ण भूमंडल को देखता है, उससे वत्सासुर अपने को कैसे छिपा सकता था? श्रीकृष्ण वत्सासुर को पहचानते ही उसकी ओर अकेले ही चल पड़े। उन्होंने उसके पास पहुंचकर उसकी गरदन पकड़ ली। उन्होंने उसके पेट में इतनी जोर से घूंसा मारा कि उसकी जिह्वा निकल आई। वह अपने असली रूप में प्रकट होकर धरती पर गिर पड़ा और बेदम हो गया। सभी ग्वाल-बाल उस भयानक राक्षस को देखकर विस्मित हो गए। वे श्रीकृष्ण की प्रशंसा करने लगे और ‘जय कन्हैया’ के नारे लगाने लगे। सन्ध्या समय जब वह लौटकर घर गए, तो उन्होंने पूरी बस्ती में भी इस घटना को फैला दिया। गोपों और गोपियों ने जहां श्रीकृष्ण के शौर्य की प्रशंसा की, वहीं उन्होंने वत्सासुर से बच जाने की प्रसन्नता में ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट की।
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