बेगम अख़्तर: Difference between revisions

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अपनी जादुई आवाज से श्रोताओं के दिलों के तार झंकृत करने वाली यह महान गायिका [[30 अक्तूबर]] [[1974]] को इस दुनिया को अलविदा कह गई। बेगम अख़्तर की तमन्ना आखिरी समय तक गाते रहने की थी जो पूरी भी हुई। मृत्यु से आठ दिन पहले उन्होंने मशहूर शायर [[कैफ़ी आज़मी]] की यह ग़ज़ल रिकार्ड की थी-
अपनी जादुई आवाज से श्रोताओं के दिलों के तार झंकृत करने वाली यह महान गायिका [[30 अक्तूबर]] [[1974]] को इस दुनिया को अलविदा कह गई। बेगम अख़्तर की तमन्ना आखिरी समय तक गाते रहने की थी जो पूरी भी हुई। मृत्यु से आठ दिन पहले उन्होंने मशहूर शायर [[कैफ़ी आज़मी]] की यह ग़ज़ल रिकार्ड की थी-
<blockquote>सुना करो मेरी जां, उनसे उनके अफसाने।<br />
<blockquote>सुना करो मेरी जां, उनसे उनके अफ़साने।<br />
सब अजनबी हैं यहां, कौन किसको पहचाने॥</blockquote>
सब अजनबी हैं यहां, कौन किसको पहचाने॥</blockquote>



Revision as of 13:40, 24 November 2012

बेगम अख़्तर
पूरा नाम अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी
प्रसिद्ध नाम बेगम अख़्तर
जन्म 7 अक्तूबर, 1914
जन्म भूमि फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 30 अक्टूबर, 1974
मृत्यु स्थान अहमदाबाद, गुजरात
पति/पत्नी इश्तिआक अहमद अब्बासी
कर्म भूमि मुम्बई, लखनऊ
कर्म-क्षेत्र गायन, अभिनय
मुख्य फ़िल्में अमीना, रोटी, जलसा घर, दानापानी आदि
पुरस्कार-उपाधि पद्म श्री, पद्म भूषण, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार
नागरिकता भारतीय

बेगम अख़्तर (अंग्रेज़ी: Begum Akhtar, जन्म: 7 अक्तूबर, 1914 - मृत्यु: 30 अक्टूबर, 1974) भारत की प्रसिद्ध ग़ज़ल और ठुमरी गायिका थीं जिन्हें कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1968 में पद्म श्री और सन 1975 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। बेगम अख़्तर को मल्लिका-ए-ग़ज़ल भी कहा जाता है।

जीवन परिचय

उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद में 7 अक्टूबर 1914 में जन्मी बेगम अख़्तर का बचपन के दिनों से ही संगीत की ओर रूझान था। वह पार्श्वगायिका बनना चाहती थी। उनके परिवार वाले उनकी इस इच्छा के सख्त खिलाफ थे लेकिन उनके चाचा ने बेगम अख़्तर के संगीत के प्रति लगाव को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर आगे बढने के लिये प्रेरित किया। बेगम अख़्तर ने फ़ैज़ाबाद में सारंगी के उस्ताद इमान खां और अता मोहम्मद खान से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ली। इसके अलावा उन्होने मोहम्मद खान, अब्दुल वहीद खान से भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा।[1]

आरंभिक जीवन

बचपन के दिनों में उस्ताद मोहम्मद खान और बेगम अख़्तर के बीच ऐसी घटना हुई कि बेगम अख़्तर ने गाना सीखने से मना कर दिया। उन दिनों बेगम अख़्तर सही सुर नही लगा पाती थीं। उनके गुरु ने उन्हें इसके बारे में कई बार सिखाया और जब वह नही सीख पाई तो उन्हें डांट दिया। इसके बाद बेगम अख़्तर रोने लगी और कहा हमसे नहीं बनता नानाजी, मैं गाना नहीं सीखूंगी। तब उनके उस्ताद ने कहा बस इतने में हार मान ली तुमने, नहीं बिट्टो ऐसे हिम्मत नही हारते, मेरी बहादुर बिटिया चलो एक बार फिर से सुर लगाने में जुट जाओ। उनकी यह बात सुनकर बेगम अख़्तर ने फिर से रियाज शुरू किया और सही सुर लगाये। तीस के दशक में बेगम अख़्तर पारसी थियेटर से जुड़ गईं। नाटकों में काम करने के कारण उनका रियाज छूट गया जिससे उनके गुरु मोहम्मद अता खान काफी नाराज हुये और कहा जब तक तुम नाटक में काम करना नही छोड़ती मैं तुम्हें गाना नहीं सिखाउंगा। उनकी इस बात पर बेगम अख़्तर ने कहा आप सिर्फ एक बार मेरा नाटक देखने आ जाएँ उसके बाद आप जो कहेंगे, मैं करूंगी। उस रात मोहम्मद अता खान बेगम अख़्तर के नाटक तुर्की हूर देखने गये। जब बेगम अख़्तर ने उस नाटक का गाना 'चल री मोरी नैय्या' गाया तो उनकी आंखों में आंसू आ गये और नाटक समाप्त होने के बाद बेगम अख़्तर से उन्होंने कहा बिटिया तू सच्ची अदाकारा है जब तक चाहो नाटक में काम करो।[1]

सिने कैरियर की शुरुआत

नाटकों में मिली शोहरत के बाद बेगम अख़्तर को कलकत्ता की ईस्ट इंडिया कंपनी में अभिनय करने का मौका मिला। बतौर अभिनेत्री बेगम अख़्तर ने 'एक दिन का बादशाह' से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की लेकिन इस फ़िल्म की असफलता के कारण अभिनेत्री के रुप में वह कुछ ख़ास पहचान नहीं बना पाई। वर्ष 1933 में ईस्ट इंडिया के बैनर तले बनी फ़िल्म 'नल दमयंती' की सफलता के बाद बेगम अख़्तर बतौर अभिनेत्री अपनी कुछ पहचान बनाने में सफल रही। इस बीच बेगम अख़्तर ने अमीना, मुमताज बेगम (1934), जवानी का नशा (1935), नसीब का चक्कर जैसी फ़िल्मों मे अपने अभिनय का जौहर दिखाया। कुछ समय के बाद वह लखनउ चली गई जहां उनकी मुलाकात महान निर्माता -निर्देशक महबूब खान से हुई जो बेगम अख़्तर की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुये और उन्हें मुंबई आने का न्योता दिया। वर्ष 1942 में महबूब खान की फ़िल्म 'रोटी' में बेगम अख़्तर ने अभिनय करने के साथ ही गाने भी गाये। उस फ़िल्म के लिए बेगम अख़्तर ने छह गाने रिकार्ड कराये थे लेकिन फ़िल्म निर्माण के दौरान संगीतकार अनिल विश्वास और महबूब खान के आपसी अनबन के बाद रिकार्ड किये गये तीन गानों को फ़िल्म से हटा दिया गया। बाद में उनके इन्हीं गानों को ग्रामोफोन डिस्क ने जारी किया गया। कुछ दिनों के बाद बेगम अख़्तर को मुंबई की चकाचौंध कुछ अजीब सी लगने लगी और वह लखनऊ वापस चली गईं।[1]

प्रसिद्ध फ़िल्में

  • अमीना (1934)
  • मुमताज बेगम (1934)
  • रूप कुमारी (1934)
  • जवानी का नशा (1935)
  • नसीब का चक्कर (1936)
  • अनारबाला (1940)
  • रोटी (1942)
  • दानापानी (1953)
  • एहसान (1954)
  • जलसा घर (1958)

अख़्तरी बाई से बेगम अख़्तर

1945 में जब उनकी शौहरत अपनी चरम सीमा पर थी तब उन्हें शायद सच्चा प्यार मिला और उन्हों ने इश्तिआक अहमद अब्बासी, जो पेशे से वकील थे, से निकाह कर लिया और अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी से बेगम अख़्तर बन गयीं। गायकी छोड़ दी और पर्दानशीं हो गयीं। बहुत से लोगों ने उनके गायकी छोड़ देने पर छींटाकशी की, "सौ चूहे खा के बिल्ली हज को चली" लेकिन उन्होंने अपना घर ऐसे बसाया मानों यही उनकी इबादत हो। पांच साल तक उन्होंने बाहर की दुनिया में झांक कर भी न देखा। लेकिन जो तकदीर वो लिखा कर लायी थीं उससे कैसे लड़ सकती थीं। वो बिमार रहने लगीं और डाक्टरों ने बताया कि उनकी बिमारी की एक ही वजह है कि वो अपने पहले प्यार, यानी की गायकी से दूर हैं। उनके शौहर की शह पर 1949 में वो एक बार फ़िर अपने पहले प्यार की तरफ़ लौट पड़ीं और ऑल इंडिया रेडियो की लखनऊ शाखा से जुड़ गयीं और मरते दम तक जुड़ी रहीं। उन्होंने न सिर्फ़ संगीत की दुनिया में वापस कदम रखा बल्कि हिन्दी फ़िल्मों में भी गायकी के साथ साथ अभिनय के क्षेत्र में भी अपना परचम फ़हराया।[2]

फ़िल्मों में वापसी

रेडियो में गाना शुरू हुआ तो संगीत सम्मेलन में जाने लगीं और इसी बीच फ़िल्मों में भी वापसी हुई। महान संगीतकार मदन मोहन के कहने पर बेगम अख़्तर ने 1953 में प्रदर्शित फ़िल्म 'दानापानी' के गीत 'ऐ इश्क मुझे और कुछ याद नही' और 1954 में प्रदर्शित फ़िल्म 'एहसान' के गीत 'हमें दिल में बसा भी लो' गाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया। पचास के दशक में बेगम अख़्तर ने फ़िल्मों मे काम करना कुछ कम कर दिया। वर्ष 1958 में सत्यजीत राय द्वारा निर्मित फ़िल्म 'जलसा घर' बेगम अख़्तर के सिने कैरियर की अंतिम फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म में उन्होंने एक गायिका की भूमिका निभाकर उसे जीवंत कर दिया था। इस दौरान वह रंगमंच से भी जुड़ी रही और अभिनय करती रही।[1]

सम्मान और पुरस्कार

निधन

अपनी जादुई आवाज से श्रोताओं के दिलों के तार झंकृत करने वाली यह महान गायिका 30 अक्तूबर 1974 को इस दुनिया को अलविदा कह गई। बेगम अख़्तर की तमन्ना आखिरी समय तक गाते रहने की थी जो पूरी भी हुई। मृत्यु से आठ दिन पहले उन्होंने मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की यह ग़ज़ल रिकार्ड की थी-

सुना करो मेरी जां, उनसे उनके अफ़साने।
सब अजनबी हैं यहां, कौन किसको पहचाने॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 परिमल, महेश कुमार। बेगम अख़्तर:सब अजनबी हैं यहाँ कौन किसको पहचाने (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) संवेदनाओं के पंख। अभिगमन तिथि: 11 अक्टूबर, 2012।
  2. कुमार, अनीता। दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे.... बेगम अख्तर (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) आवाज़। अभिगमन तिथि: 11 अक्टूबर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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