मुईनुद्दीन चिश्ती: Difference between revisions
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== | ==जन्म तथा शिक्षा== | ||
ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती 536 हिजरी (1141 ई.) में [[ख़ुरासान]] प्रांत के 'सन्जर' नामक गाँव में पैदा हुए थे। 'सन्जर' [[कन्धार]] से उत्तर की स्थित है। आज भी वह गाँव मौजूद है। कई लोग इसको 'सजिस्तान' भी कहते है। ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने ही भारत में '[[चिश्ती सम्प्रदाय]]' का प्रचार-प्रसार अपने सद्गुरु ख़्वाजा उस्मान हारुनी के दिशा-निर्देशों पर किया किया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अपने [[पिता]] के संरक्षण में हुई। जिस समय ख़्वाजा मुईनुद्दीन मात्र ग्यारह वर्ष के थे, तभी इनके पिता का देहांत हो गया। उत्तराधिकार में इन्हें मात्र एक बाग़ की प्राप्ति हुई थी। इसी की आय से जीवन निर्वाह होता था। | |||
==नवचेतना का संचार== | |||
संयोग या दैवयोग से इनके बाग़ में एक बार हज़रत इब्राहिम कंदोजी का शुभ आगमन हुआ। इनकी आवभगत से वह अत्यंत प्रभावित हुए। उन्होंने इनके सिर पर अपना पवित्र हाथ फेरा तथा शुभाशीष दी। इसके बाद इनके [[हृदय]] में नवचेतना का संचार हुआ। सर्वप्रथम ये एक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ हुए, परन्तु राज कर्मचारियों द्वारा यह कहने पर कि यहाँ तो राजा की ऊँटनियाँ बैठती हैं, ये वहाँ से नम्रतापूर्वक उठ गए। राजा के ऊँट-ऊँटनियाँ वहाँ से उठ ही न पाए तो कर्मचारियों ने क्षमा-याचना की। इसके बाद इनका निवास एक तालाब के किनारे पर बना दिया गया, जहाँ पर ख़्वाजा मुईनुद्दीन दिन-रात निरंतर साधना में निमग्र रहते थे। वे अक्सर दुआ माँगते कि "ए अल्लाह त आला/परब्रह्म स्वामी जहाँ कहीं भी दुख दर्द और मेहनत हो, वह मुझ नाचीज को फरमा दे।" ख़्वाजा मुईनुद्दीन ने अनेकों हज पैदल ही किए। | |||
==सन्देश== | |||
मुईनुद्दीन चिश्ती हमेशा ईश्वर से दुआ करते थे कि वह उनके सभी भक्तों का दुख-दर्द उन्हें दे दे तथा उनके जीवन को खुशियों से भर दे। उन्होंने कभी भी अपने उपदेश किसी किताब में नहीं लिखे और न ही उनके किसी शिष्य ने उन शिक्षाओं को संकलित किया। ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने हमेशा राजशाही, लोभ और मोह आदि का विरोध किया। उन्होंने कहा कि- "अपने आचरण को नदी की तरह पावन व पवित्र बनाओ तथा किसी भी तरह से इसे दूषित न होने देना चाहिए। सभी धर्मों को एक-दूसरे का आदर करना चाहिए और धार्मिक सहिष्णुता रखनी चाहिए। ग़रीब पर हमेशा अपनी करुणा दिखानी चाहिए तथा यथा संभव उसकी मदद करनी चाहिए। संसार में ऐसे लोग हमेशा पूजे जाते हैं और मानवता की मिसाल क़ायम करते हैं।" | |||
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मुईनुद्दीन चिश्ती (पूरा नाम 'ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह'; जन्म- 1141, ईरान; मृत्यु- 1230, अजमेर, राजस्थान) एक प्रसिद्ध सूफ़ी संत थे। उन्होंने 12वीं शताब्दी में अजमेर में 'चिश्तिया' परंपरा की स्थापना की थी। माना जाता है कि ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती सन 1195 ई. में मदीना से भारत आए थे। इसके बाद उन्होंने अपना समस्त जीवन अजमेर (राजस्थान) में ही लोगों के दु:ख-दर्द दूर करते हुए गुजार दिया। वे हमेशा ईश्वर से यही दुआ किया करते थे कि वह सभी भक्तों का दुख-दर्द उन्हें दे दे तथा उनके जीवन को खुशियों से भर दे।
जन्म तथा शिक्षा
ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती 536 हिजरी (1141 ई.) में ख़ुरासान प्रांत के 'सन्जर' नामक गाँव में पैदा हुए थे। 'सन्जर' कन्धार से उत्तर की स्थित है। आज भी वह गाँव मौजूद है। कई लोग इसको 'सजिस्तान' भी कहते है। ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने ही भारत में 'चिश्ती सम्प्रदाय' का प्रचार-प्रसार अपने सद्गुरु ख़्वाजा उस्मान हारुनी के दिशा-निर्देशों पर किया किया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अपने पिता के संरक्षण में हुई। जिस समय ख़्वाजा मुईनुद्दीन मात्र ग्यारह वर्ष के थे, तभी इनके पिता का देहांत हो गया। उत्तराधिकार में इन्हें मात्र एक बाग़ की प्राप्ति हुई थी। इसी की आय से जीवन निर्वाह होता था।
नवचेतना का संचार
संयोग या दैवयोग से इनके बाग़ में एक बार हज़रत इब्राहिम कंदोजी का शुभ आगमन हुआ। इनकी आवभगत से वह अत्यंत प्रभावित हुए। उन्होंने इनके सिर पर अपना पवित्र हाथ फेरा तथा शुभाशीष दी। इसके बाद इनके हृदय में नवचेतना का संचार हुआ। सर्वप्रथम ये एक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ हुए, परन्तु राज कर्मचारियों द्वारा यह कहने पर कि यहाँ तो राजा की ऊँटनियाँ बैठती हैं, ये वहाँ से नम्रतापूर्वक उठ गए। राजा के ऊँट-ऊँटनियाँ वहाँ से उठ ही न पाए तो कर्मचारियों ने क्षमा-याचना की। इसके बाद इनका निवास एक तालाब के किनारे पर बना दिया गया, जहाँ पर ख़्वाजा मुईनुद्दीन दिन-रात निरंतर साधना में निमग्र रहते थे। वे अक्सर दुआ माँगते कि "ए अल्लाह त आला/परब्रह्म स्वामी जहाँ कहीं भी दुख दर्द और मेहनत हो, वह मुझ नाचीज को फरमा दे।" ख़्वाजा मुईनुद्दीन ने अनेकों हज पैदल ही किए।
सन्देश
मुईनुद्दीन चिश्ती हमेशा ईश्वर से दुआ करते थे कि वह उनके सभी भक्तों का दुख-दर्द उन्हें दे दे तथा उनके जीवन को खुशियों से भर दे। उन्होंने कभी भी अपने उपदेश किसी किताब में नहीं लिखे और न ही उनके किसी शिष्य ने उन शिक्षाओं को संकलित किया। ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने हमेशा राजशाही, लोभ और मोह आदि का विरोध किया। उन्होंने कहा कि- "अपने आचरण को नदी की तरह पावन व पवित्र बनाओ तथा किसी भी तरह से इसे दूषित न होने देना चाहिए। सभी धर्मों को एक-दूसरे का आदर करना चाहिए और धार्मिक सहिष्णुता रखनी चाहिए। ग़रीब पर हमेशा अपनी करुणा दिखानी चाहिए तथा यथा संभव उसकी मदद करनी चाहिए। संसार में ऐसे लोग हमेशा पूजे जाते हैं और मानवता की मिसाल क़ायम करते हैं।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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