Difference between revisions of "चैतन्य महाप्रभु"

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|अन्य नाम=विश्वम्भर मिश्र, श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र, निमाई, गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर
 
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|अविभावक=जगन्नाथ मिश्र और शचि देवी
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|अन्य जानकारी=महाप्रभु चैतन्य के विषय में [[वृन्दावनदास ठाकुर|वृन्दावनदास]] द्वारा रचित '[[चैतन्य भागवत]]' नामक [[ग्रन्थ]] में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण [[कृष्णदास कविराज|कृष्णदास]] ने 1590 में '[[चैतन्य चरितामृत]]' शीर्षक से लिखा था।  
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|अन्य जानकारी=महाप्रभु चैतन्य के विषय में [[वृन्दावनदास ठाकुर|वृन्दावनदास]] द्वारा रचित '[[चैतन्य भागवत]]' नामक [[ग्रन्थ]] में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण [[कृष्णदास कविराज|कृष्णदास]] ने 1590 में '[[चैतन्य चरितामृत]]' शीर्षक से लिखा था। [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी]] द्वारा लिखित 'श्री श्री चैतन्य-चरितावली' गीता प्रेस गोरखपुर ने छापी है।
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|बाहरी कड़ियाँ=[http://pustak.org/bs/home.php?bookid=8200 चैतन्य महाप्रभु -अमृतलाल नागर]
 
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'''चैतन्य महाप्रभु''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Chaitanya Mahaprabhu'',  जन्म: 18 फ़रवरी सन् 1486<ref name="Gaudiya"/> - मृत्यु: सन् 1534) [[भक्तिकाल]] के प्रमुख संतों में से एक हैं। इन्होंने [[वैष्णव|वैष्णवों]] के [[चैतन्य सम्प्रदाय|गौड़ीय संप्रदाय]] की आधारशिला रखी। भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनीतिक अस्थिरता के दिनों में [[हिन्दू]]-[[मुस्लिम]] एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊँच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त [[वृन्दावन]] को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। महाप्रभु चैतन्य के विषय में [[वृन्दावनदास ठाकुर|वृन्दावनदास]] द्वारा रचित '[[चैतन्य भागवत]]' नामक [[ग्रन्थ]] में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण [[कृष्णदास कविराज|कृष्णदास]] ने 1590 में '[[चैतन्य चरितामृत]]' शीर्षक से लिखा था।  
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'''चैतन्य महाप्रभु''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Chaitanya Mahaprabhu'',  जन्म: 18 फ़रवरी सन् 1486<ref name="Gaudiya"/> - मृत्यु: सन् 1534) [[भक्तिकाल]] के प्रमुख संतों में से एक हैं। इन्होंने [[वैष्णव|वैष्णवों]] के [[चैतन्य सम्प्रदाय|गौड़ीय संप्रदाय]] की आधारशिला रखी। भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनीतिक अस्थिरता के दिनों में [[हिन्दू]]-[[मुस्लिम]] एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊँच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त [[वृन्दावन]] को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। महाप्रभु चैतन्य के विषय में [[वृन्दावनदास ठाकुर|वृन्दावनदास]] द्वारा रचित '[[चैतन्य भागवत]]' नामक [[ग्रन्थ]] में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण [[कृष्णदास कविराज|कृष्णदास]] ने 1590 में '[[चैतन्य चरितामृत]]' शीर्षक से लिखा था। [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी]] द्वारा लिखित 'श्री श्री चैतन्य-चरितावली' [[गीता प्रेस गोरखपुर]] ने छापी है।
==जीवन परिचय==
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==परिचय==
चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन् 18 फ़रवरी सन् 1486<ref name="Gaudiya">{{cite web |url=http://gaudiyahistory.com/caitanya-mahaprabhu/ |title=Chaitanya Mahaprabhu |accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=Gaudiya History |language=अंग्रेज़ी }} </ref>की [[फाल्गुन]] [[शुक्लपक्ष|शुक्ल]] [[पूर्णिमा]] को [[पश्चिम बंगाल]] के [[नवद्वीप]] ([[नादिया]]) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब 'मायापुर' कहा जाता है। बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें 'निमाई' कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें 'गौरांग', 'गौर हरि', 'गौर सुंदर' आदि भी कहते थे। चैतन्य महाप्रभु के द्वारा [[गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय|गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय]] की आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामन्त्र 'नाम संकीर्तन' का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। कवि कर्णपुर कृत 'चैतन्य चंद्रोदय' के अनुसार इन्होंने केशव भारती नामक सन्न्यासी से [[दीक्षा]] ली थी। कुछ लोग माधवेन्द्र पुरी को इनका दीक्षा गुरु मानते हैं। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था।
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{{main|चैतन्य महाप्रभु का परिचय}}
====बचपन====
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चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन् 18 फ़रवरी सन् 1486<ref name="Gaudiya">{{cite web |url=http://gaudiyahistory.com/caitanya-mahaprabhu/ |title=Chaitanya Mahaprabhu |accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=Gaudiya History |language=अंग्रेज़ी }} </ref>की [[फाल्गुन]] [[शुक्लपक्ष|शुक्ल]] [[पूर्णिमा]] को [[पश्चिम बंगाल]] के [[नवद्वीप]] ([[नादिया]]) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब 'मायापुर' कहा जाता है। बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें 'निमाई' कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें 'गौरांग', 'गौर हरि', 'गौर सुंदर' आदि भी कहते थे। चैतन्य महाप्रभु के द्वारा [[गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय|गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय]] की आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामन्त्र 'नाम संकीर्तन' का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत् तक में है। कवि कर्णपुर कृत 'चैतन्य चंद्रोदय' के अनुसार इन्होंने केशव भारती नामक संन्यासी से [[दीक्षा]] ली थी। कुछ लोग माधवेन्द्र पुरी को इनका दीक्षा गुरु मानते हैं। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व माँ का नाम शचि देवी था।
निमाई (चैतन्य महाप्रभु) बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद् चिंतन में लीन रहकर [[राम]] व [[कृष्ण]] का स्तुति गान करने लगे थे। 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका [[विवाह]] लक्ष्मी देवी के साथ हुआ। सन् 1505 में सर्पदंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके [[पिता]] का निधन हो गया। चैतन्य के बड़े भाई विश्वरूप ने बाल्यावस्था में ही सन्न्यास ले लिया था, अत: न चाहते हुए भी चैतन्य को अपनी माता की सुरक्षा के लिए चौबीस वर्ष की अवस्था तक गृहस्थ आश्रम का पालन करना पड़ा। कहा जाता है कि इनका विवाह [[वल्लभाचार्य]] की सुपुत्री से हुआ था। [[चित्र:Chaitanya-Mahaprabhu-with-Roop-and-Sanatan-Goswami.jpg|thumb|left|चैतन्य महाप्रभु को दण्डवत प्रणाम करते हुए [[रूप गोस्वामी]] और [[सनातन गोस्वामी]]]]
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==जन्म काल==
अपने समय में सम्भवत: इनके समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया हो। [[पश्चिम बंगाल]] में अद्वैताचार्य और [[नित्यानन्द]] को तथा [[मथुरा]] में [[रूप गोस्वामी]] और [[सनातन गोस्वामी]] को अपने प्रचार का भार संभलवाकर चैतन्य नीलांचल ([[कटक]]) में चले गए और वहाँ 12 [[वर्ष]] तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति और पूजा में लगे रहे। महाप्रभु के अन्तकाल का आधिकारिक विवरण निश्चयात्मक रूप से उपलब्ध नहीं होता है। 48 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। [[मृदंग]] की ताल पर [[कीर्तन]] करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज भी पूरे [[भारत]] में पर्याप्त है।
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{{main|चैतन्य महाप्रभु का जन्म काल}}
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चैतन्य के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय [[गौड़]] के शासक थे। उनके यहाँ [[अलाउद्दीन हुसैनशाह|हुसैनख़ाँ]] नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए उसे रुपया दिया। हुसैनख़ाँ ने वह रकम खा पीकर बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैनख़ाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये। हुसैनख़ाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा दिया। अब हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा था और सुबुद्धिराय उसका कैदी। हुसैनख़ाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैनख़ाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती [[मुसलमान]] के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई [[हिन्दू]] सुबुद्धिराय को अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धिराय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैनख़ाँ हुसैनशाह बन गया।
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==विवाह==
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{{main|चैतन्य महाप्रभु का विवाह}}
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निमाई (चैतन्य महाप्रभु) बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका [[विवाह]] लक्ष्मी देवी के साथ हुआ। सन् 1505 में सर्पदंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री [[विष्णुप्रिया]] के साथ हुआ।
 
==कृष्ण भक्ति==
 
==कृष्ण भक्ति==
चैतन्य को इनके अनुयायी [[कृष्ण]] का [[अवतार]] भी मानते रहे हैं। सन् 1509 में जब ये अपने पिता का [[श्राद्ध]] करने [[बिहार]] के [[गया]] नगर में गए, तब वहां इनकी मुलाक़ात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से 'कृष्ण-कृष्ण' रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय [[श्रीकृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] की [[भक्ति]] में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से [[ढोल|ढोलक]], [[मृदंग]], [[झांझ|झाँझ]], [[मंजीरा|मंजीरे]] आदि [[वाद्य यंत्र]] बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर 'हरि नाम संकीर्तन' करना प्रारंभ किया। [[चित्र:Chetanya-Mahaprabhu-1.jpg|thumb|left|चैतन्य महाप्रभु मन्दिर, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
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{{main|चैतन्य महाप्रभु की कृष्ण भक्ति}}
<blockquote>'हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे'</blockquote> नामक अठारह शब्दीय [[कीर्तन]] महामन्त्र निमाई की ही देन है।
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चैतन्य को इनके अनुयायी [[कृष्ण]] का [[अवतार]] भी मानते रहे हैं। सन् 1509 में जब ये अपने पिता का [[श्राद्ध]] करने [[बिहार]] के [[गया]] नगर में गए, तब वहां इनकी मुलाक़ात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से 'कृष्ण-कृष्ण' रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय [[श्रीकृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] की [[भक्ति]] में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से [[ढोल|ढोलक]], [[मृदंग]], [[झांझ|झाँझ]], [[मंजीरा|मंजीरे]] आदि [[वाद्य यंत्र]] बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर 'हरि नाम संकीर्तन' करना प्रारंभ किया।
इनका पूरा नाम 'विश्वम्भर मिश्र' और कहीं 'श्रीकृष्ण चैतन्यचन्द्र' मिलता है। चौबीसवें वर्ष की समाप्ति पर इन्होंने वैराग्य ले लिया। वे कर्मकांड के विरोधी और श्रीकृष्ण के प्रति आस्था के समर्थक थे। चैतन्य मत का एक नाम 'गौडीय वैष्णव मत' भी है।  चैतन्य ने अपने जीवन का शेष भाग प्रेम और भक्ति का प्रचार करने में लगाया। उनके पंथ का द्वार सभी के लिए खुला था। [[हिन्दू]] और [[मुसलमान]] सभी ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।  इनके अनुयायी चैतन्य को [[विष्णु के अवतार|विष्णु का अवतार]] मानते हैं। अपने जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने [[ओडिशा|उड़ीसा]] में बिताये। छह वर्ष तक वे [[दक्षिण भारत]], [[वृन्दावन]] आदि स्थानों में विचरण करते रहे। छ: वर्ष [[मथुरा]] से [[जगन्नाथ पुरी|जगन्नाथ]] तक के सुविस्तृत प्रदेश में अपने सिद्धांतों का प्रचार किया तथा कृष्ण भक्ति की ओर लोगों को प्रवृत्त किया।
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==व्यावहारिक प्रभाव==
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[[चित्र:Chetanya-Mahaprabhu-2.jpg|thumb|300px|चैतन्य महाप्रभु मन्दिर, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
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<div align="center">'''[[चैतन्य महाप्रभु का परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div>
चैतन्य महाप्रभु ने 'अचिन्त्य भेदाभेदवाद' का प्रवर्तन किया, किन्तु प्रामाणिक रूप से इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। इनके कुछ शिष्यों के मतानुसार 'दशमूल श्लोक' इनके रचे हुए हैं। अन्य सम्प्रदायों के प्रवर्तकों ने अपने मत की पुष्टि के लिए भाष्य और अन्य ग्रन्थ लिखे हैं, जबकि चैतन्य ने [[ब्रह्मसूत्र]], [[गीता]] आदि पर भी भाष्य नहीं लिखे। अत: यह आश्चर्यजनक बात ही है कि भाष्य आदि की रचना न करने पर भी महाप्रभु चैतन्य को एक बड़े भारी सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना गया। यह सम्भवत: इस कारण सम्भव हुआ कि इनका मत अत्यधिक भावात्मक रहा, अत: उसको आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो गया। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि चैतन्य महाप्रभु का आचार्यात्व शास्त्र विश्लेषण पर उतना आधारित नहीं, जितना कि उनके व्यावहारिक प्रभाव पर आधारित रहा। इनके उत्तरवर्ती शिष्यों ने उस शास्त्रीय आधार के अभाव की भी पूर्ति कर दी, जो भाष्य की रचना न करने के कारण इस सम्प्रदाय में चल रहा था। भक्ति को आधार बनाकर चैतन्य ने यथापि कोई नई परम्परा नहीं चलाई, फिर भी भावविह्लता का जितना पुट चैतन्य ने भक्ति में मिलाया, उतना किसी अन्य ने नहीं। [[वल्लभाचार्य]] आदि ने [[धर्म]] के और [[भक्ति]] के विधानात्मक पक्ष को महत्त्व दिया था, जबकि चैतन्य ने भावात्मक पक्ष को प्रश्रय दिया। चैतन्य की विचारधारा पर पांचरात्र साहित्य, [[भागवत]], [[पुराण]] तथा गीत गोविन्द का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। विभिन्न रूपों में प्रचलित और लिपिबद्ध कृष्ण कथा ने उनके व्यक्तित्व को भीतरी भाग तक अवश्य ही छुआ होगा। यों तो सारा [[भारत]] ही चैतन्य से प्रभावित हुआ, किन्तु [[पश्चिम बंगाल]] का जनजीवन तो उनकी विचारधारा के साथ आमूलचूल एकाकार हो गया। फलस्वरूप न केवल [[हिन्दू]] अपितु तत्कालीन [[मुसलमान]] भी उनके मत से प्रभावित हुए बिना न रह सके। भक्ति भावना के अपेक्षाकृत ह्रास के बावजूद अब भी चैतन्य का प्रभाव समाज में लगातार अक्षुण्ण बना हुआ है। महाप्रभु की प्रभुता बढ़ाने और बनाए रखने में उनकी सुन्दरता, मृदुता, साहसिकता, सूझबूझ, विद्वत्ता और शालीनता का बड़ा हाथ रहा है।
 
==चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख सिद्धांत==
 
चैतन्य महाप्रभु अपने मत की शास्त्रीय व्याख्याओं में अधिक नहीं उलझे, फिर भी उनके प्रवचनों के आधार पर उनके अनुयायियों ने इस सम्प्रदाय की मान्यताओं का जो विश्लेषण किया, उसके अनुसार अचिन्य भेदाभेदवाद में निर्दिष्ट प्रमुख तत्वों का स्वरूप निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है। [[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-4.jpg|thumb|left|[[गुरु पूर्णिमा]] पर चैतन्य वैष्णव संघ के श्रद्धालु, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
 
====ब्रह्म====
 
चैतन्य के अनुसार ब्रह्म का स्वरूप विशुद्ध आनन्दात्मक है। ब्रह्म विशेष है और उसकी अन्य शक्तियाँ विशेषण हैं। शक्तियों से विशिष्ट ब्रह्म को ही भगवान कहा जाता है।<ref>आनन्दमात्रं विशेष्यं समस्ता: शक्तय: विशेषणानि विशिष्टो भगवान्। षष्टसन्दर्भ, पृष्ठ 50</ref> ब्रह्म, ईश्वर, भगवान और परमात्मा ये संज्ञाएं एक ही तत्व की हैं। अचिन्त्य भेदाभेदवादी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जिस तत्व को ईश्वर कहा है, वह ब्रह्म ही है। ईश्वर एक और बहुभाव से अभिन्न होने पर भी गुण और गुणों तथा देह और देही भाव से भिन्न भी है। गुण और गुणी का परस्पर अभेद भी माना जाता है, इसलिए ब्रह्म गुणात्मा भी कहलाता है। भेद जल और उसकी तरंगों की भिन्नता के समान है। जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय का आधार भी ब्रह्म ही है। वही जगत का उपादान तथा निमित्त कारण है। ब्रह्म की तीन शक्तियाँ मानी गई हैं। परा, अपरा और अविद्या। परा शक्ति के कारण ब्रह्म जगत का निमित्त कारण है तथा अपरा और अविद्या (माया) शक्ति के कारण ब्रह्म जगत का उपादान कारण माना जाता है। अभिव्यक्ति की दृष्टि से ब्रह्म की शक्ति के तीन रूप हैं- सेवित्, संघिनी और ह्लादिनी। चैतन्य के अनुसार ब्रह्म ऐश्वर्य और माधुर्य दोनों से ही युक्त है। यही कारण है कि 'षट्सन्दर्भ' के लेखक ने कृष्ण के विग्रह को भी ब्रह्म से अभिन्न मानने का प्रयास किया और कृष्ण को ही परमशक्ति बताया। जीव गोस्वामी के कथनानुसार ब्रह्म जगत के स्रष्टा के रूप में भगवान कहलाता है। बलदेव विद्याभूषण सत्ता, महत्ता और स्नेह की अवस्थिति के कारण ब्रह्म को ही 'हरि', 'नारायण' या 'कृष्ण' कहते हैं।
 
====जगत====
 
चैतन्य के अनुसार जगत की सृष्टि ब्रह्म की अविद्या अथवा माया शक्ति के द्वारा होती है। जगत ईश्वर से भिन्न होते हुए भी उसके अधीन होने के कारण अभिन्न है। जगत 'भ्रम' नहीं अपितु 'सत्य' है। प्रकृति और माया को चैतन्य सम्प्रदाय में अभिन्न माना गया है। अत: प्रकृति को ब्रह्म की शक्ति कहा गया है। प्रलय काल में भी प्रकृति की स्थिति सूक्ष्म रूप में बनी रहती है। अत: प्रपंच ब्रह्म से न तो पूर्णतया भिन्न है और न ही अभिन्न। वस्तुत: इनकी भिन्नाभिन्नतात्मकता अचिन्त्य हैं-
 
:स्वरूपाधभिन्नत्वेन चिन्तयितुमशक्यत्वाद भेद:, भिन्नत्वेन चिन्तयितुमशक्यत्वादभेदश्च प्रतीयते इति शक्तिमतोभेदाभेददांवंर्गीकृतो तौ च अचिन्त्यौ।<ref>स्वमते अचिन्त्यभेदावेव अचिन्त्यशक्तित्वात्, भागवत्सन्दर्भस्य सर्वसंवादिनी, पृष्ठ 23</ref>
 
चैतन्य जगत को न तो शाश्वत मानते हैं और न ही मिथ्या। यदि जगत नित्य माना जाये तो कार्यकारण सम्बन्धों की अवस्थिति नहीं मानी जा सकती। यदि जगत को मिथ्या माना जाये तो मिथ्या से मिथ्या की उत्पत्ति मानना असंगत ही है। अत: चैतन्य का यह विचार है कि जगत अपने मूल (निमित्त कारण) में अव्यक्त रूप से रहता है, उस अवस्था में वह नित्य है किन्तु व्यक्तावस्था में वह अनित्य है।
 
====जीव====
 
[[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-5.jpg|thumb|300px|[[गुरु पूर्णिमा]] पर श्रद्धालुओं का [[भजन-कीर्तन]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
 
चैतन्य के अनुसार जीव ब्रह्म से पृथक है। यह अणु परिणाम है। जीव में सत्व, रजस् तथा तमस् ये तीनों गुण विद्यमान रहते हैं। ब्रह्म प्रलय के अनन्तर 'एकोऽहं बहुस्याम्' की इच्छा से जीव की पुष्टि करता है। जीव अपने स्वरूप को माया के कारण भूल जाता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य से पृथक नहीं हैं, उसी प्रकार जीव भी वास्तव में ब्रह्म से पृथक नहीं है, किन्तु अभिव्यक्ति के समय जीव की पृथक सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। चैतन्य के अनुसार जीव ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, आभास नहीं। भक्ति के द्वारा जीव अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। जीव भी अणु चैतन्य है, वह नित्य है। बलदेव विद्याभूषण के अनुसार ईश्वर, जीव, प्रकृति और काल ये चार पदार्थ नित्य हैं और इन चारों में से अन्तिम तीन प्रथम के अधीन हैं। इसी कारण जीव को ईश्वर की 'शक्ति' और ब्रह्म को 'शक्तिमान' भी कहा जा सकता है। चैतन्य ने जीवतत्व को शक्ति और कृष्ण तत्व को शक्तिमान कहा है। जीव दो प्रकार के होते हैं, नित्यमुक्त और नित्य संसारी।
 
====माया====
 
चैतन्य मतानुयायियों ने माया को ब्रह्म की परिणाम शक्ति कहा और उसके दो भेद बताए-
 
<blockquote><poem>तत्र सा मायाख्या परिणाम शक्तिश्च द्विविधा वर्ण्यते,
 
निमित्ताशो माया उपादानांश: प्रधानम् इति। तत्र केवला
 
शक्तिर्निमित्तम्, तद व्यूहमयी तूपादानमिति विवेक:।<ref>भागवत संख्या 11, 24, 19 [[जीव गोस्वामी]]</ref></poem></blockquote>
 
ब्रह्म की परिणाम शक्ति के निमित्तांश को निमित्त माया और उपादानांश को उपादार्नामाया भी कहा गया है। निमित्त माया के काल, दैव, कर्म और स्वभाव के चार भेद बताये गए हैं और उपादान भाषा में द्रव्य, क्षेत्र, प्राण, आत्मन् और विकार का समावेश माना गया है। [[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-3.jpg|thumb|left|[[गुरु पूर्णिमा]] पर [[भजन-कीर्तन]] करते श्रद्धालु, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
 
====मोक्ष====
 
चैतन्य के मतानुसार भक्ति ही मुक्ति का साधन है।  जीव दो प्रकार के होते हैं, नित्य मुक्त और नित्य संसारी। नित्य मुक्त जीवों पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता और ब्रह्म की स्वरूप शक्ति के अधीन वे सदा मुक्त रहते हैं। नित्य संसारी जीव माया के अधीन रहते हैं। ऐसे जीवों के दो भेद होते हैं, बहिर्मुख और विद्वेषी। बहिर्मुख जीवों के दो भेद हैं- अरुचिग्रस्त और वैकृत्यग्रस्त। माया ग्रस्त जीवों का मोक्ष अनेक योनियों में भ्रमण करने के अनन्तर सत्संग से संभव होता है। ज्योंहि माया ग्रस्त जीव माया के बन्धन से छूटने का उपक्रम करता है, त्यौंहि भगवान भी उस पर अपनी कृपा न्यौछावर कर देते हैं। चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार मुक्ति पांच प्रकार होती है-
 
#सालोक्य
 
#सार्ष्टि
 
#सारूप्य
 
#सामीप्य
 
#सायुज्य।
 
इन सब मुक्तियों में से सायुज्य को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। अद्वैतवादियों के अनुसार तो यह (सायुज्य मुक्ति) मोक्ष ही है, यानी जीव की पृथक सत्ता का इस अवस्था में अवसान हो जाता है। किन्तु चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार जीव का कभी ब्रह्म में विलय नहीं होता, सायुज्य मुक्ति में भी ब्रह्म और जीव का नित्य सहअस्तित्व बना रहता है। यद्यपि गौड़ीय वैष्णव मतानुसार जीव के ब्रह्म में शाश्वत विलय का सर्वथा निषेध नहीं किया गया है, किन्तु वे इस प्रकार के विलय से भी अधिक महत्त्व उस स्थिति को देते हैं, जिसमें जीव ब्रह्म के साथ सहअस्तित्व का आनन्द उठाता रहे। किन्तु उस अवस्था में जीव ब्रह्म से भिन्न रहता है या अभिन्न। यह प्रश्न या इसका उत्तर चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार 'अचिन्त्य' है।
 
====अचिन्त्यशक्ति का अर्थ====
 
[[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-26.jpg|thumb|300px|[[गुरु पूर्णिमा]] पर श्रद्धालुओं का [[भजन-कीर्तन]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
 
चैतन्य के मत को अचिन्त्य भेदाभेदवाद के नाम से पुकारा जाता है। अत: यह जानना भी आवश्यक है कि अचिन्त्य का अर्थ क्या है।
 
*श्रीधर स्वामी के अनुसार अचिन्त्य वह ज्ञान है, जो तर्कगम्य नहीं होता। 'अचिन्त्यम् तर्कासहं यज्ञज्ञानम्।'
 
*जबकि जीव गोस्वामी के अनुसार अचिन्त्य का अर्थ है- :'अर्थापत्तिगम्य'- 'भिन्नाभिन्नत्वादिविकल्पेश्चिन्तयितुमशक्य: केवलमर्थापत्ति ज्ञानगोचर:।'
 
<blockquote>[[जीव गोस्वामी]] ने भागवत संदर्भ में यह भी कहा है कि वह शक्ति जो असम्भव को भी सम्भव बना दे अथवा अभेद में भी भेद का दर्शन करवा दे, अचिन्त्य कहलाती है।</blockquote>
 
*"दुर्घटघटकत्वम् अचिन्त्यत्वम्।" [[रूप गोस्वामी]] का यह कथन है कि पुरुषोत्तम में एकत्व और पृथकत्व अंशत्व और अंशित्व युगपद रूप में रह सकते हैं। जिस प्रकार [[अग्नि]] में ज्वलन शक्ति तथा जैसे भगवान [[श्रीकृष्ण]] में सोलह हज़ार रानियों के समक्ष एक साथ ही रहने की शक्ति है, किन्तु उसकी कोई तार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती, उसी प्रकार अभेद में भेद की सत्ता है, किन्तु उसका तार्किक विश्लेषण नहीं किया जा सकता, वह अचिन्त्य है।
 
*बलदेव विद्याभूषण ने अचिन्त्य की व्याख्या में विशेष शब्द का भी सन्निवेश कर दिया और इस प्रकार उन्होंने अभेद में भेद का आधार विशेष को ही बतलाया और एक प्रकार से विशेष को अचिन्त्य का [[पर्यायवाची शब्द|पर्यायवाची]] मानने का उपक्रम किया।
 
:विशेषबलात् तद् भेद व्यवहारो भवतिविशेषश्च भेदप्रतिनिधि: भेदाभावेऽपि तत् कार्य प्रत्याय्यम्।<ref>सिद्धांत रत्न 83.4</ref>
 
चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार न केवल [[भेदाभेद]] के विश्लेषण के लिए, अपितु श्रुतियों की व्याख्या के लिए भी अचिन्त्य शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए [[बृहदारण्यकोपनिषद|बृहदारण्यक उपनिषद]]<ref>[[बृहदारण्यकोपनिषद|बृहदारण्यक उपनिषद]] 3.9.2.8</ref> में कहा गया है- 'विज्ञानम् आनन्दं ब्रह्म।' इस श्रुति वाक्य में यदि आनन्द और विज्ञान को समानार्थक माना जाये तो दोनों शब्दों में से एक का प्रयोग व्यर्थ हो उठेगा। इसके विपरीत यदि दोनों शब्दों को समानार्थक न माना जाये तो ब्रह्म में स्वत: ही भेद मानना पड़ेगा। इस समस्या का समाधान अचिन्त्य शक्ति के आधार पर ही सम्भव है। अत: चैतन्य का मत, यदि 'अचिन्त्य भेदाभेद' नाम से प्रसिद्ध हुआ तो यह श्रुति व्याख्यान की दृष्टि से भी उपयुक्त ही है।
 
==अचिन्त्य भेदाभेदवाद का तुलनात्मक विश्लेषण==
 
शंकर के अनुसार निर्विकल्पक ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है और सम्यक ज्ञान ही उसकी प्राप्ति का एक मात्र साधन है। जबकि चैतन्य ब्रह्म को सविकल्पक मानते हैं और भक्ति को ही उसकी प्राप्ति का साधन बतलाते हैं। शंकर के अनुसार ब्रह्म "सत्-चित्-आनन्दमय" है। [[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-7.jpg|thumb|left|[[गुरु पूर्णिमा]] पर श्रद्धालुओं का [[भजन-कीर्तन]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]] निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से सत् का ज्ञान होता है। सत् ही चिन्मय है। [[रामानुज]], [[वल्लभाचार्य|वल्लभ]] और [[मध्वाचार्य|मध्व]] निर्विकल्पक ज्ञान की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। चैतन्य मतानुयायी [[जीव गोस्वामी]] भी वैसे तो निर्विकल्पक ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, किन्तु उनका यह भी कथन है कि यदि निर्विकल्पक ब्रह्म को मानना ही हो तो अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि वह सविकल्पक ब्रह्म का अपूर्ण दर्शन है। चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार ब्रह्म केवल भक्तिगम्य है। [[वल्लभाचार्य]] का भक्ति मार्ग और चैतन्य का भक्ति मार्ग प्राय: एक जैसा ही है। [[निम्बार्क]] का '[[द्वैताद्वैतवाद]]' और चैतन्य का 'अचिन्त्य भेदाभेदवाद' भी एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं है। मध्व के मत से तो चैतन्य मत का अत्यधिक साम्य स्पष्ट होता है। श्री मध्व और चैतन्य दोनों के मतानुसार ब्रह्म सगुण और सर्विशेष है। जीव अणु और सेवक है। जीव की मुक्ति भक्ति से होती है। जगत सत्य है और ब्रह्म भी जगत का निमित्त और उपादान कारण है। जीव और ब्रह्म मुक्तावस्था में भी भिन्न रहते हैं। किन्तु मध्व के मत से इतना साम्य होने पर भी चैतन्य का मत इस दृष्टि से कुछ पृथक है कि चैतन्य के मत में गुण और गुणी भाव से जीव और ब्रह्म को अभिन्न और भिन्न माना जाता है। उपासना की दृष्टि से भी दोनों में यह अन्तर है कि जहाँ मध्व ब्रह्म और जीव में सेव्य-सेवक भाव को ही स्फूर्ति मानते हैं, वहाँ गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय में ब्रह्म और जीव के बीच दास्य के अतिरिक्त शान्त, सख्य, वात्सल्य और मधुर भाव को भी स्थान दिया गया है। [[जीव गोस्वामी]] ब्रह्म को [[अद्वय]] ज्ञानतत्व बतलाते हैं। अद्वैतवादियों ने भी यद्यपि इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है किन्तु वहाँ पर शंकर का यह विचार कि ब्रह्म 'अद्वय' है, क्योंकि उसके अतिरिक्त कोई दूसरा तत्व है ही नहीं, वहाँ रूप गोस्वामी के अनुसार ब्रह्म अद्वय है, क्योंकि वैसा ही कोई दूसरा तत्व [[ब्रह्माण्ड]] में विद्यमान नहीं है।<ref>आशय यह है कि ब्रह्म के समान तो नहीं, किन्तु उससे अवर तत्व जीव जगत तो विद्यमान हैं</ref> जीव गोस्वामी भगवान को परम तत्व और ब्रह्म को निर्विशेष मानते हैं। ब्रह्म में शक्तियाँ अव्यक्त रूप से रहती हैं। भगवान में वे क्रियाशीलता के साथ रहती हैं। इन दोनों स्थितियों के बीच की एक अन्य स्थिति है, जिसमें ब्रह्म को परमात्मा कहा जाता है। माया शक्ति का सम्बन्ध परमात्मा से ही है।
 
==महाप्रभु चैतन्य का भक्तिपरक मत==
 
[[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-27.jpg|thumb|300px|[[गुरु पूर्णिमा]] पर शंख बजाती श्रद्धालु युवती, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
 
चैतन्य सगुण भक्ति को महत्त्व देते थे। भगवान का वह सगुण रूप, जो अपरिमेय शक्तियों और गुणों से पूर्ण है, उन्हें मान्य रहा। जीव उनकी दृष्टि में परमात्मा का शाश्वत अंश होते हुए भी परमात्मा का सेवक है। परमात्मा के अनेक नामों में अनेक शक्तियों का परिगणन किया गया है। अत: उन नामों का संकीर्तन ही जीव की बन्धनमुक्ति का एकमात्र साधन है। चैतन्य ने [[कृष्ण]] को भगवान का अवतार नहीं, अपितु स्वयं भगवान माना है। यह भी एक उल्लेखनीय बात है कि चैतन्य के अनुयायियों ने [[कृष्णदास कविराज]], [[वृन्दावन]] और लोचनदास ने चैतन्य को कृष्ण का अवतार माना है, इसी भावना के आधार पर चैतन्य को 'श्री कृष्ण चैतन्य' भी कहा जाता है। चैतन्य ने भक्ति को ही मोक्ष का साधन माना है। वस्तुत: भगवान प्रीति के अनुभव को ही वे मोक्ष मानते हैं, और प्रीति के लिए भक्ति के समान कोई दूसरा साधन नहीं है। भक्ति के द्वारा जीव ईश्वर के समान स्थिति प्राप्त कर लेता है। ईश्वर से अभिन्न तो वह नहीं हो सकता, किन्तु भक्ति के द्वारा जीव को इतना अधिक आन्तरिक सामीप्य प्राप्त हो जाता है कि जीव फिर कभी ब्रह्म के समीप से अलग नहीं होता। भक्ति के लिए गुरु की कृपा भी आवश्यक है। चैतन्य के भक्ति मार्ग में तर्क का कोई स्थान नहीं है। चैतन्य के मतानुसार भक्ति वस्तुत: आध्यात्मिक स्नेह है। ब्रह्म की संवित् एवं द्वादिनीशक्ति का सम्मिश्रण ही भक्ति है। यद्यपि ज्ञान और वैराग्य भी मुक्ति के साधन हैं, किन्तु भक्ति प्रमुख साधन है, जबकि ज्ञान और वैराग्य सहकारी साधन है। ह्लादिनी शक्ति का सार होने के कारण भक्ति आनन्दरूपिणी होती है और संवित् शक्ति का सार होने के कारण भक्ति ज्ञानरूपिणी भी है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि चैतन्य के मत में भक्ति एक साधना मार्ग ही नहीं, अपितु ज्ञान और विज्ञान का सार भी है। बलदेव विद्याभूषण के अनुसार भक्ति मार्ग की तीन अवस्थाएं हैं- साधन, भाव और प्रेम। इन्द्रियों के माध्यम से की जाने वाली भक्ति जीव के हृदय में भगवत प्रेम को जागृत करती है। इसीलिए इसको साधन भक्ति कहा जाता है। भाव प्रेम की प्रथम अवस्था का नाम है, अत: भक्ति मार्ग की प्रक्रिया में भाव भक्ति का दूसरा स्थान है। जब भाव घनीभूत हो जाता है, तब वह प्रेम कहलाने लगता है। यही भक्ति की चरम अवस्था है और इस सोपान पर पहुँचने के बाद ही जीव मुक्ति<ref>यानी ब्रह्म के सततसान्निध्य</ref> का पात्र बनता है। साधन भक्ति के दो भेद हैं- वैधी और रागानुगा। शास्त्रीय विधियों द्वारा प्रवर्तित भक्ति वैधी और भक्त के हृदय में स्वाभाविक रूप से जागृत भक्ति रागानुगा कहलाती है।
 
====चैतन्य के मतानुसार====
 
चैतन्य के मतानुसार भक्ति की पात्रता उन लोगों में ही होती है, जो सांसारिक मामलों से न तो एकदम विरक्त होते हैं, और न ही एकदम अनुरक्त और भगवान की जो पूजा और नाम संकीर्तन में विश्वास रखते हैं। ऐसे लोग तीन कोटियों में रखे जा सकते हैं- उत्तम, मध्यम और निकृष्ट। उत्तम कोटि में वे आते हैं, जो वेदशास्त्र ज्ञाता होने के साथ साथ पूर्ण [[आत्मा]] और दृढ़ संकल्प से भगवान की [[भक्ति]] में रत होते हैं। मध्यम कोटि के [[भक्त]] वे हैं, जो वेदशास्त्रवेत्ता न होते हुए भी भगवतभक्ति में दृढ़ आस्था रखते हैं। निकृष्ट कोटि के भक्तों में उन लोगों की गिनती होती है, जिनकी आस्था और संकल्प दृढ़ नहीं रहते। आनन्द प्राप्ति और मोक्ष प्राप्ति की इच्छा जिस व्यक्ति के मन से दूर नहीं हुई, वह भक्ति मार्ग पर नहीं चल सकता। उत्तमा भक्ति का लक्षण [[रूप गोस्वामी]] ने इस प्रकार बताया है-[[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-8.jpg|thumb|left|[[गुरु पूर्णिमा]] पर श्रद्धालुओं का [[भजन-कीर्तन]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
 
<blockquote><poem>अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकमद्यिनावृतम्।
 
आनुकूल्येन कृष्णनुशीलनं भक्तिरूत्तमा।।<ref>भक्तिरसामृतसिन्धु, पृष्ठ 10</ref></poem></blockquote>
 
चैतन्य की भक्ति पद्धति वस्तुत: व्यवहार का विषय अधिक है। यही कारण है कि चैतन्य मतानुयायियों ने भक्ति के भेदोपभेद या अन्य सैद्धांतिक पक्षों पर अधिक बल नहीं दिया। रूप गोस्वामी के भक्ति 'रसामृतसिन्धु' और 'उज्ज्वल नीलमणि' नामक ग्रन्थों तथा [[जीव गोस्वामी]] के 'भक्ति संदर्भ' नामक [[ग्रन्थ]] में भी इस तथ्य पर अधिक बल दिया गया है कि भक्ति केवल एक मार्ग ही नहीं, अपितु अपने आप में पंचम पुरुषार्थ है। रूप गोस्वामी का तो यहाँ तक कहना है कि मनुष्य के [[हृदय]] में रति के रूप में भक्ति का अंकुर उद्भूत होने के अनन्तर पुरुषार्थ चतुष्टय की कोई वांछा शेष नहीं रहती।
 
====गौड़ीय वैष्णव मत====
 
गौड़ीय वैष्णव मत में भक्तों या साधकों का उल्लेख नित्य सिद्ध, साधना सिद्ध और कृपासिद्ध के रूप में भी किया जाता है। नित्यसिद्धि भक्त वे हैं, जो [[कृष्ण]] के साथ नित्यवास करने की पात्रता अर्जित कर लेते हैं- जैसे गोपाल। साधन सिद्ध वे हैं, जो प्रयत्नपूर्वक कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करते हैं और कृपासिद्ध वे हैं, जो कृपा से ही सान्निध्य प्राप्त करते हैं। यद्यपि चैतन्य मतानुयायियों ने ज्ञानयोग और कर्मयोग की अपेक्षा भक्तियोग को अधिक ग्राह्य माना है, किन्तु उनके कथन यत्र-यत्र इस रूप में भी उपलब्ध हो जाते हैं कि यदि ज्ञानयोग और कर्मयोग का पालन समुचित रूप में किया जाए तो वे भक्ति की प्राप्ति भी करवा सकते हैं। अत: कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चैतन्य की भक्तिपरक विचारधारा में ज्ञान और कर्म के सम्बन्ध में भी संकीर्णता नहीं है। इसके साथ ही यह भी एक ध्यान देने योग्य बात है कि चैतन्य ने वेदान्त के सभी सम्प्रदायों के प्रति भी एक बहुत ही स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाया है। चैतन्य द्वारा निर्दिष्ट भक्ति मार्ग में गुरु का अत्यधिक महत्त्व है। गुरु द्वारा दीक्षित होने के अन्तर नामोच्चारण करना अपेक्षित है। तदनन्तर भक्त को सांसारिक विषयों का त्याग वृन्दावन, [[द्वारका]], आदि [[तीर्थ|तीर्थों]] या गंगातट पर निवास, आयाचित खाद्य सामग्री से जीवन निर्वाह, [[एकादशी व्रत|एकादशी का व्रत]] रखना, [[पीपल]] के पेड़ पर पानी चढ़ाना, आदि कार्य करने चाहिए। नास्तिकों के संग का त्याग, अधिक लोगों को शिष्य न बनाना, भद्दे वार्तालाप में न उबलना आदि भी भक्ति मार्ग के अनुयायियों के लिए अनिवार्य है। भक्तों के लिए [[तुलसी]] का भक्षण, [[भागवत पुराण|भागवत]] का श्रवण तथा कृष्ण संकीर्तन, सत्संग आदि भी अनिवार्य हैं। चैतन्य की भक्ति पद्धति में जप का अपना विशिष्ट स्थान है। विज्ञप्तिमय प्रार्थना, श्रवण और स्मरण, [[ध्यान]] और दास्यभाव भी आवश्यक है। चैतन्य मतानुयायियों का यह भी कथन है कि कृष्ण [[द्वारका|द्वारकाधाम]] में पूर्ण रूप से, [[मथुरा]] में पूर्णतर रूप से और [[वृन्दावन]] में पूर्णतम रूप से बिराजते हैं। इस पूर्णतम भक्ति के लिए वृन्दावन ही सर्वोत्तम स्थान है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि 'चैतन्य' वस्तुत: एक दार्शनिक ही नहीं, एक महान भक्त ही नहीं और एक महापुरुष ही नहीं, अपितु भारतीय मानस में बड़ी गहराई से बसी हुई ऐसी भावना है, जो चिरकाल तक भारतीय समाज को अनुप्रमाणित करती रहेगी।
 
==विधवाओं को प्रभु भक्ति की प्रेरणा==
 
[[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-10.jpg|thumb|[[गुरु पूर्णिमा]] पर श्रद्धालुओं का [[भजन-कीर्तन]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
 
चैतन्य महाप्रभु ने विधवाओं को [[वृंदावन]] आकर प्रभु भक्ति के रास्ते पर आने को प्रेरित किया था। वृंदावन क़रीब 500 वर्ष से विधवाओं के आश्रय स्थल के तौर पर जाना जाता है। कान्हा के चरणों में जीवन की अंतिम सांसें गुजारने की इच्छा लेकर देशभर से यहां जो विधवाएं आती हैं, उनमें अधिकांशत: 90 फीसदी बंगाली हैं। अधिकतर अनपढ़ और बांग्लाभाषी। वृंदावन की ओर बंगाली विधवाओं के रुख के पीछे मान्यता यह है कि [[भक्तिकाल]] के प्रमुख कवि चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1486 में [[पश्चिम बंगाल]] में हुआ था। वे 1515 में वृंदावन आए और उन्होंने अपना शेष जीवन वृंदावन में व्यतीत किया। निराश्रित महिलाओं के अनुसार, इसलिए उनका यहां से लगाव है। कहा जाता है चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल की विधवाओं की दयनीय दशा और सामाजिक तिरस्कार को देखते हुए उनके शेष जीवन को प्रभु भक्ति की ओर मोड़ा और इसके बाद ही उनके वृंदावन आने की परंपरा शुरू हो गई।<ref>{{cite web |url=http://www.jagran.com/spiritual/religion-chaitanya-mahaprabhu-to-vrindavan-widows-were-diverted-11638744.html |title=चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन को मोड़ी थीं विधवाएं |accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=जागरण डॉट कॉम |language=हिन्दी }}</ref>
 
==चैतन्य महाप्रभु का नृत्य एवं हरिनाम संकीर्तन==
 
[[ओडिशा]] में [[पुरी]] में जब चैतन्य महाप्रभु निवास कर रहे थे, तो प्रवास के दौरान रथयात्रा के दिन चैतन्य महाप्रभु कुल 7 टोलियां बनाकर हरिनाम संकीर्तन करते थे। उन टोलियों में दो-दो [[मृदंग]], [[ढोल]]-[[नगाड़ा|नगाड़े]] बजाने वाले कीर्तनकार होते थे। सभी भक्त जगन्नाथ जी के रथयात्रा उत्सव को देखकर नाचते थे और उसी धुन में मस्त होते। [[चित्र:Chaitanya sankirtan.jpg|thumb|left|300px|चैतन्य महाप्रभु का हरिनाम संकीर्तन]] चैतन्य महाप्रभु की लीला के कारण सभी टोलियों में सम्मिलित भक्तों को ऐसा आभास होता था कि चैतन्य महाप्रभु उनकी टोली का नेतृत्व कर रहे हैं। सभी भक्तों को चैतन्य महाप्रभु के साथ नृत्य एवं हरिनाम संकीर्तन करने में आत्मिक आनंद एवं प्रभु मिलन का सुख प्राप्त होता। [[रथयात्रा पुरी|रथयात्रा]] के दौरान चैतन्य महाप्रभु रथ पर विराजमान जगन्नाथ जी के दिव्य स्वरूप को देखकर आनंद के आंसू बहा रहे थे और उनकी आंखों से अश्रुधारा निकल रही थी। उन अश्रुधाराओं में आसपास खड़े सभी भक्त भीग गए। भक्त उन अश्रुधाराओं को अमृत मान पीकर स्वयं को कृष्ण भक्ति से ओतप्रोत करने लगे। चैतन्य महाप्रभु की ऐसी दिव्य लीलाओं को देखकर जगन्नाथ भगवान का रथ रुक जाता था। चैतन्य महाप्रभु हरि बोल, हरि बोल के उद्घोष करते रथयात्रा में अपनी योग शक्ति का परिचय देते थे। जो भक्त चैतन्य महाप्रभु को संकीर्तन के इस महास्वरूप में देखता, वह भक्त हरि बोल, हरि बोल कह उठता। संकीर्तन में चैतन्य महाप्रभु इतने मस्त हो जाते थे कि यदि जमीन पर गिर पड़ते तो वहां भी लोट-लोट कर प्रभु संकीर्तन और ऐसा दिव्य दृश्य प्रस्तुत करते कि मानो कोई स्वर्ण पर्वत भूमि पर लोट रहा है। इतना ही नहीं, इस अवस्था में उनके शरीर पर यदि कोई पांव रख कर भी गुजर जाता तो भक्ति भाव में अत्यंत मस्त होने के कारण उन्हें पीड़ा न होती। ऐसा प्रतीत होता जैसे भगवान ने अपनी शक्ति की किरण अपने भक्त में डाल दी हो। चैतन्य महाप्रभु के इस नृत्य को देखकर भगवान जगन्नाथ अति प्रसन्न होते। ऐसे अथाह भक्ति के प्रतीक श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रेरणा लेकर इस्कॉन के संस्थापक आचार्य ए.सी. भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद ने जगन्नाथ रथयात्राओं के माध्यम से संकीर्तन की छेड़ी तरंग को जारी रखा। आज भी जगन्नाथ रथयात्राओं एवं प्रभातफेरियों में चैतन्य महाप्रभु का नाम लेकर ‘निताई गौर हरि बोल’ का उद्घोष करके संकीर्तन शुरू किया जाता है।<ref>{{cite web |url=http://www.punjabkesari.in/news/article-291928 |title=आईए करें यात्रा चैतन्य महाप्रभु जी के नृत्य एवं हरिनाम संकीर्तन की|accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=पंजाब केसरी |language=हिन्दी }}</ref>
 
==एकादशी व्रत का महत्व==
 
चैतन्य महाप्रभु ऐसे संत हुए हैं जिन्होंने भक्ति मार्ग का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। भगवान्‌ श्री चैतन्य देव का आविर्भाव पूर्वबंग के अपूर्व धाम नवद्वीप में हुआ था।  [[चित्र:Chaitanya-Mahaprabhu-4.jpg|thumb|चैतन्य महाप्रभु का नृत्य]]  24 वर्ष की अवस्था में लोककल्याण की भावना से संन्यास धारण किया, जब [[भारत]] में चारों ओर विदेशी शासकों के भय से जनता स्वधर्म का परित्याग कर रही थी। तब चैतन्य महाप्रभु ने यात्राओं में हरिनाम के माध्यम से हरिनाम संकीर्तन का प्रचार कर प्रेमस्वरूपा भक्ति में बहुत बड़ी क्रांति फैला दी। सन्न्यास ग्रहण के पश्चात श्री चैतन्य ने [[दक्षिण भारत]] की ओर प्रस्थान किया। उस समय दक्षिण में मायावादियों के प्रचार-प्रसार के कारण वैष्णव धर्म प्रायः संकीर्तन का प्रचार न करते तो यह भारत वर्ष [[वैष्णव धर्म]] विहीन हो जाता।  हरिनाम का स्थान-स्थान पर प्रचार कर चैतन्यदेव [[श्रीरंगम]] पहुंचे और वहां गोदानारायण की अद्भुत्‌ रूपमाधुरी देख भावावेश में नृत्य करने लगे। श्री चैतन्य का भाव-विभावित स्वरूप देख मंदिर के प्रधान अर्चक श्रीवेंकट भट्ट चमत्कृत हो उठे और भगवान की प्रसादी माला उनके गले में डाल दी तथा उन्हें बताया कि वर्षाकालीन यह चातुर्मास कष्ट युक्त, जल प्लावन एवं हिंसक जीव-जन्तुओं के बाहुल्य के कारण यात्रा में निषिद्ध है, अतः उनके चार मास तक अपने घर में ही निवास की प्रार्थना की। श्रीवेंकट भट्ट के अनुरोध पर श्रीचैतन्य देव के चार मास उनके आवास पर व्यतीत हुए। उन्होंने पुत्र श्रीगोपाल भट्ट को दीक्षित कर वैष्णव धर्म की शिक्षा के साथ शास्त्रीय प्रमाणोंसहित एक स्मृति ग्रंथ की रचना का आदेश दिया। कुछ समय पश्चात श्रीगोपाल भट्ट वृंदावन आए एवं वहां निवास कर उन्होंने [[पंचरात्र]], [[पुराण]] और आगम निगमों के प्रमाणसहित 251 ग्रंथों का उदाहरण देते हुए हरिभक्ति विलास स्मृति की रचना की। इस ग्रंथ में उन्होंने [[एकादशी]] तत्व विषय पर विशेष विवेचना की। इस प्रसंग में आचार्य गौर कृष्ण दर्शन तीर्थ कहते हैं चातुः साम्प्रदायिक वैष्णवों के लिए आवश्यक रूप में एकादशी व्रत का महत्वपूर्ण स्थान है। एकादशी व्रत करने से जीवन के संपूर्ण पाप विनष्ट हो जाते हैं। इस व्रत को सहस्रों [[यज्ञ|यज्ञों]] के समान माना गया है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्न्यासी तथा विधवा स्त्रियां भी एकादशी व्रत के अधिकारी हैं। एकादशी व्रत त्याग कर जो अन्न सेवन करता है, उसकी निष्कृति नहीं होती। जो व्रती को भोजन के लिए कहता है, वह भी पाप का भागी होता है।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/indian-religion-sant-mahatma/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%9A%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A5%81-112011900180_1.htm |title=श्री चैतन्य महाप्रभु|accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेबदुनिया हिन्दी |language=हिन्दी }}</ref>
 
==चैतन्य महाप्रभु के नृत्य का रहस्य==
 
[[राधा|श्रीराधा]] तथा [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] के मिलन में ही [[जगन्नाथ मन्दिर पुरी|श्रीजगन्नाथ पुरी]] में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के अभिनय का रहस्य छुपा हुआ है। श्रीमहाप्रभु के कुछ ही पार्षद इसे समझते हैं। इस्कान के संस्थापक ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज जी बताते हैं कि [[रथयात्रा पुरी|रथयात्रा]] उत्सव का सारा भाव श्रीकृष्ण को [[कुरुक्षेत्र]] से [[वृन्दावन]] वापस लाने का है। [[पुरी]] स्थित श्रीजगन्नाथ जी का भव्य मन्दिर [[द्वारका]] राज्य को प्रदर्शित करता है, जहाँ श्रीकृष्ण परम-ऐश्वर्य का भोग करते हैं तथा गुण्डिचा मन्दिर वृन्दावन का रूप है जहाँ भगवान को लाया जाता है, जो कि उनकी मधुरतम लीलाओं की जगह है। राधारानी की भूमिका अदा करते हुए श्रीचैतन्य महाप्रभु जी उनके भाव में रथयात्रा के समय रथ के पीछे रहकर भगवान जगन्नाथ जी की परीक्षा की लीला करते हैं ,'क्या श्रीकृष्ण हमारा स्मरण करते हैं? मैं यह देखना चाहता हूँ कि क्या सचमुच उन्हें हमारी परवाह है? यदि परवाह है तो वे अवश्य ही प्रतीक्षा करेंगे और यह पता लगाने की प्रयत्न करेंगे कि हम कहाँ हैं?' आश्चर्य की बात तो यह है कि श्रीमहाप्रभु जी जब-जब रथ के पीछे चले जाते तब-तब रथ रुक जाता। भगवान श्रीजगन्नाथ प्रतीक्षा करते और देखने का प्रयास करते कि राधा कहाँ है? व्रजवासी कहाँ हैं? भगवान श्रीजगन्नाथ, जो कि साक्षात् श्रीकृष्ण हैं, श्रीचैतन्य महाप्रभु को यह दिव्य भाव बतलाना चाहते हैं कि यद्यपि मैं वृन्दावन से दूर था, किन्तु मैं अपने भक्तों को, विशेषतया राधारानी को भूला नहीं हूँ।<ref>लोकनाथ स्वामी (हिन्दी मासिक पत्रिका भगवद्दर्शन जनवरी 1994 से संग्रहीत)</ref><ref>{{cite web |url=https://www.facebook.com/bbgovind1/posts/605782812831124 |title= Shree Chaitanya Mahaprabhu Charitable Trust (फेसबुक वाल) |accessmonthday= |accessyear= |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी }}</ref>
 
==विश्वास से पाया महाप्रभु का अाशीर्वाद==
 
भगवान चैतन्य महाप्रभु के लिए भगवद-भजन ही सर्वस्व था। वे नृत्य करते हुए कीर्तन करते और मग्न रहते थे। उन्हें भौतिक दुनिया के लोगों से सरोकार नहीं रहता था और इसी कारण उनके जान-पहचान का दायरा सीमित था। बात उन दिनों की है जब चैतन्य महाप्रभु श्रीवास पंडित के आवास में रहते थे। श्रीवास पंडित के आंगन में उनका नृत्य-कीर्तन चलता रहता। [[चित्र:Chaitanya-Mahaprabhu-ji.jpg|thumb|left|300px|चैतन्य महाप्रभु]] श्रीवास पंडित के घर के सारे सदस्य और नौकर-चाकर चैतन्य महाप्रभु को जानते थे और उनके प्रति श्रद्धा-भाव रखते थे, किंतु महाप्रभु कभी आगे रहकर किसी से बातचीत नहीं करते थे। वहीं पर एक सेविका काम करती थीं, जो चैतन्य महाप्रभु के लिए प्रतिदिन जल लेकर आती थी। महाप्रभु ने तो कभी उस पर ध्यान नहीं दिया, किंतु वह उनके प्रति अत्यंत श्रद्धा-भाव से भरी हुई थी और सोचती थी कभी तो भगवान उसे आशीष देंगे। उसकी सेवा तो साधारण थी, किंतु धैर्य अटल था और इस कारण विश्वास भी प्रबल था। अंतत: एक दिन महाप्रभु को बहुत गर्मी लगने लगी और उन्होंने स्नान करने की इच्छा प्रकट की। तब उपस्थित भक्तों ने उसी सेविका को जल लाने के लिए कहा। वह दौड़-दौड़कर अनेक घड़े भरकर लाई और फिर श्रीवास आंगन में भक्तों ने मिलकर महाप्रभु को स्नान कराया। उस दिन महाप्रभु ने स्वयं के लिए इतना परिश्रम करने वाली सेविका को देखा, उसके श्रद्धा भाव सेवा-कर्म को पहचाना और उसके सिर पर हाथ रखकर हार्दिक आशीर्वाद दिया। सेविका धन्य हो गई, क्योंकि उसका अभिलाषित सुख उसे प्राप्त हो गया। धैर्य धारण करने पर मन में विश्वास की ऐसी अखंड जोत जलती है, जो कृपा में अवश्य ही परिणति होती है। वस्तुत: धैर्य से प्राप्त विश्वास ही निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचाता है।<ref>{{cite web |url=http://www.bhaskar.com/news/MP-OTH-MAT-latest-dhar-news-023004-593799-NOR.html |title=विश्वास से पाया महाप्रभु का आशीर्वाद |accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=दैनिक भास्कर |language=हिन्दी }}</ref>
 
==चैतन्य महाप्रभु की मूर्ति==
 
[[चित्र:Lord-Caitanya-Dances-with-His-Followers.jpg|thumb|300px|चैतन्य महाप्रभु अपने अनुयायियों के साथ नृत्य करते हुए]]
 
[[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] ने [[यदुवंश]] के राजा श्रीसत्राजित की कन्या श्रीमती [[सत्यभामा]] जी से विवाह किया था। वही सत्यभामा जी, भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की लीला में श्रीमती विष्णुप्रिया जी के रूप में आईं व राजा सत्राजित, श्रीमती विष्णुप्रिया जी के पिताजी श्रीसनातन मिश्र के रूप में प्रकट हुए। विष्णुप्रिया बचपन से ही पिता-माता और विष्णु-परायणा थीं। विष्णुप्रिया प्रतिदिन तीन बार गंगा-स्नान करती थीं। गंगा-स्नान को जाने के दिनों में ही शचीमाता के साथ आपका मिलन हुआ था। आप उनको प्रणाम करतीं तो शचीमाता आपको आशीर्वाद देतीं। आपके और भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के विवाह की कथा को जो सुनता है, उसके तमाम सांसारिक बन्धन कट जाते हैं। श्रीमन महाप्रभु जी के द्वारा 24 वर्ष की आयु में सन्न्यास ग्रहण करने पर आप अत्यन्त विरह संतप्त हुईं थीं। इन्होंने अद्भुत भजन का आदर्श प्रस्तुत किया था। [[मिट्टी]] के दो बर्तन लाकर अपने दोनों ओर रख लेतीं थीं। एक ओर खाली पात्र और दूसरी ओर [[चावल]] से भरा हुआ पात्र रख लेतीं थीं। सोलह नाम तथा बत्तीस अक्षर वाला मन्त्र (हरे कृष्ण महामन्त्र) एक बार जप कर एक चावल उठा कर खाली पात्र में रख देतीं थीं।  इस प्रकार दिन के तीसरे प्रहर तक हरे कृष्ण महामन्त्र का जाप करतीं रहतीं और चावल एक बर्तन से दूसरे बर्तन में रखती जातीं। इस प्रकार जितने चावल इकट्ठे होते, उनको पका कर श्रीचैतन्य महाप्रभु की को भाव से अर्पित करतीं। और वहीं प्रसाद पातीं। कहाँ तक आपकी महिमा कोई कहे, आप तो श्रीमन महाप्रभु की प्रेयसी हैं और निरन्तर हरे कृष्ण महामन्त्र करती रहती हैं। आपने ही सर्वप्रथम श्रीगौर-महाप्रभु जी की मूर्ति (विग्रह) का प्रकाश कर उसकी पूजा की थी। कोई-कोई भक्त ऐसा भी कहते हैं। श्रीमती [[सीता]] देवी के वनवास काल में एक पत्नी व्रती भगवान [[राम|श्रीरामचन्द्र]] जी ने सोने की सीता का निर्माण करवाकर यज्ञ किया था, पर दूसरी बार विवाह नहीं किया था। श्रीगौर-नारायण लीला में श्रीमती विष्णुप्रिया देवी ने उस ऋण से उऋण होने के लिए ही श्रीगौरांग महाप्रभु जी की मूर्ति का निर्माण करा कर पूजा की थी। श्रीमती विष्णुप्रिया देवी द्वारा सेवित श्रीगौरांग की मूर्ति की अब भी श्रीनवद्वीप में पूजा की जाती है।<ref>{{cite web |url=http://hindivina.blogspot.in/2014/02/blog-post.html |title= किसने बनवाई 'पहली बार' श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की मूर्ति और क्यों ?|accessmonthday=16 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वीणा हिन्दी |language=हिन्दी }}</ref>
 
==विलक्षण प्रतिभा के धनी==
 
[[चित्र:Chaitanya-Mahabrabhu-at-Jagannath.jpg|thumb|चैतन्य महाप्रभु]]
 
चैतन्य महाप्रभु विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। न्यायशास्त्र में इनको प्रकांड पाण्डित्य प्राप्त था। कहते हैं कि इन्होंने न्यायशास्त्र पर एक अपूर्व ग्रंथ लिखा था, जिसे देख कर इनके एक मित्र को बड़ी ईर्ष्या हुई क्योंकि उन्हें भय था कि इनके ग्रंथ के प्रकाश में आने पर उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ का आदर कम हो जाएगा। इस पर श्री चैतन्य ने अपने ग्रंथ को [[गंगा|गंगा जी]] में बहा दिया। चौबीस वर्ष की अवस्था में चैतन्य महाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके सन्न्यास लिया। इनके गुरु का नाम केशव भारती था। इनके जीवन में अनेक अलौकिक घटनाएं हुईं, जिनसे इनके विशिष्ट शक्ति-सम्पन्न भगवद्विभूति होने का परिचय मिलता है। इन्होंने एक बार अद्वैत प्रभु को अपने विश्वरूप का दर्शन कराया था। नित्यानंद प्रभु ने इनके नारायण रूप और [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] रूप का दर्शन किया था। इनकी माता शची देवी ने नित्यानंद प्रभु और इनको [[बलराम]] और श्रीकृष्ण रूप में देखा था। [[चैतन्य चरितामृत|चैतन्य-चरितामृत]] के अनुसार इन्होंने कई कोढिय़ों और असाध्य रोगों से पीड़ित रोगियों को रोग मुक्त किया था। चैतन्य महाप्रभु के जीवन के अंतिम छ: वर्ष तो राधा-भाव में ही बीते। उन दिनों इनके अंदर महाभाव के सारे लक्षण प्रकट हुए थे। जिस समय यह कृष्ण प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य करने लगते थे, लोग देखते ही रह जाते थे। इनकी विलक्षण प्रतिभा और श्रीकृष्ण भक्ति का लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानंद सरस्वती जैसे वेदांती भी इनके क्षण मात्र के सत्संग से श्रीकृष्ण प्रेमी बन गए। इनके प्रभाव से विरोधी भी इनके भक्त बन गए और जगाई, मधाई जैसे दुराचारी भी संत हो गए। इनका प्रधान उद्देश्य भगवन्नाम का प्रचार  करना और संसार में भगवद् भक्ति और शांति की स्थापना करना था। इनके भक्ति-सिद्धांत में द्वैत और अद्वैत का बड़ा ही सुंदर समन्वय हुआ है। इन्होंने कलिमल ग्रसित जीवों के उद्धार के लिए भगवन्नाम-संकीर्तन को ही प्रमुख उपाय माना है। इनके उपदेशों का सार है-
 
* मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन का अधिक से अधिक समय भगवान के सुमधुर नामों के संकीर्तन में लगाए। यही अंत:करण की शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय है।
 
* कीर्तन करते समय वह प्रेम में इतना मग्र हो जाए कि उसके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगे, उसकी वाणी गद्गद् हो जाए और शरीर पुलकित हो जाए।
 
* भगवन नाम के उच्चारण में देश-काल का कोई बंधन नहीं है। भगवान ने अपनी सारी शक्ति और अपना सारा माधुर्य अपने नामों में भर दिया है। यद्यपि भगवान के सभी नाम मधुर और कल्याणकारी हैं किंतु
 
<blockquote>'''हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।'''</blockquote>
 
यह महामंत्र सबसे अधिक मधुर और भगवत प्रेम को बढ़ाने वाला है।<ref>{{cite web |url=http://www.punjabkesari.in/news/article-238481|title=संसार सागर से बेड़ा पार कराता है यह महामंत्र|accessmonthday=16 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=पंजाब केसरी |language=हिन्दी }}</ref>  
 
  
  
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*[http://www.vichar.bhadas4media.com/sahitya-jagat/1638-2011-10-17-11-00-13.html गौरांग ने आबाद किया कृष्‍ण का वृन्‍दावन ]
 
*[http://www.vichar.bhadas4media.com/sahitya-jagat/1638-2011-10-17-11-00-13.html गौरांग ने आबाद किया कृष्‍ण का वृन्‍दावन ]
 
*[http://www.gaudiya.com/ Gaudiya Vaishnava]
 
*[http://www.gaudiya.com/ Gaudiya Vaishnava]
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*[http://www.dlshq.org/saints/gauranga.htm Lord Gauranga (Sri Krishna Chaitanya Mahaprabhu)]
 
*[http://gaudiyahistory.com/caitanya-mahaprabhu/ Gaudiya History]
 
*[http://gaudiyahistory.com/caitanya-mahaprabhu/ Gaudiya History]
 
*[http://www.iskcontruth.com/2015/02/sri-gaura-purnima-special-scriptures.html Sri Gaura Purnima Special: Scriptures that Reveal Lord Chaitanya’s Identity as Lord Krishna]
 
*[http://www.iskcontruth.com/2015/02/sri-gaura-purnima-special-scriptures.html Sri Gaura Purnima Special: Scriptures that Reveal Lord Chaitanya’s Identity as Lord Krishna]
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*[https://www.youtube.com/watch?v=9p99dnKpTVA Shri Chaitanya Mahaprabhu -Hindi movie (youtube)]
 
*[https://www.youtube.com/watch?v=9p99dnKpTVA Shri Chaitanya Mahaprabhu -Hindi movie (youtube)]
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{दार्शनिक}}{{भारत के संत}}
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{{चैतन्य महाप्रभु}}{{भारत के संत}}{{दार्शनिक}}
 
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Latest revision as of 11:44, 3 August 2017

chaitany mahaprabhu vishay soochi
chaitany mahaprabhu
poora nam chaitany mahaprabhu
any nam vishvambhar mishr, shrikrishna chaitany chandr, nimaee, gauraang, gaur hari, gaur suandar
janm 18 faravari sanh 1486[1] (phalgun shukl poornima)
janm bhoomi navadvip (nadiya), pashchim bangal
mrityu sanh 1534
mrityu sthan puri, u disa
abhibhavak jagannath mishr aur shachi devi
pati/patni lakshmi devi aur vishnupriya
karm bhoomi vrindavan
vishay krishna bhakti
prasiddhi chaitany sagun bhakti ko mahattv dete the. bhagavan ka vah sagun roop, jo aparimey shaktiyoan aur gunoan se poorn hai, unhean many raha.
nagarikata bharatiy
any janakari mahaprabhu chaitany ke vishay mean vrindavanadas dvara rachit 'chaitany bhagavat' namak granth mean achchhi samagri upalabdh hoti hai. ukt granth ka laghu sanskaran krishnadas ne 1590 mean 'chaitany charitamrit' shirshak se likha tha. shri prabhudatt brahmachari dvara likhit 'shri shri chaitany-charitavali' gita pres gorakhapur ne chhapi hai.
bahari k diyaan chaitany mahaprabhu -amritalal nagar
inhean bhi dekhean kavi soochi, sahityakar soochi

chaitany mahaprabhu (aangrezi:Chaitanya Mahaprabhu, janm: 18 faravari sanh 1486[1] - mrityu: sanh 1534) bhaktikal ke pramukh santoan mean se ek haian. inhoanne vaishnavoan ke gau diy sanpraday ki adharashila rakhi. bhajan gayaki ki ek nayi shaili ko janm diya tatha rajanitik asthirata ke dinoan mean hindoo-muslim ekata ki sadbhavana ko bal diya, jati-paant, ooanch-nich ki bhavana ko door karane ki shiksha di tatha vilupt vrindavan ko phir se basaya aur apane jivan ka aantim bhag vahian vyatit kiya. mahaprabhu chaitany ke vishay mean vrindavanadas dvara rachit 'chaitany bhagavat' namak granth mean achchhi samagri upalabdh hoti hai. ukt granth ka laghu sanskaran krishnadas ne 1590 mean 'chaitany charitamrit' shirshak se likha tha. shri prabhudatt brahmachari dvara likhit 'shri shri chaitany-charitavali' gita pres gorakhapur ne chhapi hai.

parichay

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

chaitany mahaprabhu ka janm sanh 18 faravari sanh 1486[1]ki phalgun shukl poornima ko pashchim bangal ke navadvip (nadiya) namak us gaanv mean hua, jise ab 'mayapur' kaha jata hai. balyavastha mean inaka nam vishvanbhar tha, parantu sabhi inhean 'nimaee' kahakar pukarate the. gauravarn ka hone ke karan log inhean 'gauraang', 'gaur hari', 'gaur suandar' adi bhi kahate the. chaitany mahaprabhu ke dvara gau diy vaishnav sanpraday ki adharashila rakhi gee. unake dvara praranbh kie ge mahamantr 'nam sankirtan' ka atyant vyapak v sakaratmak prabhav aj pashchimi jagath tak mean hai. kavi karnapur krit 'chaitany chandroday' ke anusar inhoanne keshav bharati namak sannyasi se diksha li thi. kuchh log madhavendr puri ko inaka diksha guru manate haian. inake pita ka nam jagannath mishr v maan ka nam shachi devi tha.

janm kal

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

chaitany ke janmakal ke kuchh pahale subuddhi ray gau d ke shasak the. unake yahaan husainakhaan namak ek pathan naukar tha. raja subuddhiray ne kisi rajakaj ko sampadit karane ke lie use rupaya diya. husainakhaan ne vah rakam kha pikar barabar kar di. raja subuddhiray ko jab yah pata chala to unhoanne dand svaroop husainakhaan ki pith par ko de lagavaye. husainakhaan chidh gaya. usane shadyantr rach kar raja subuddhiray ko hata diya. ab husain khaan pathan gau d ka raja tha aur subuddhiray usaka kaidi. husainakhaan ki patni ne apane pati se kaha ki purane apaman ka badala lene ke lie raja ko mar dalo. parantu husainakhaan ne aisa n kiya. vah bahut hi dhoort tha, usane raja ko jabaradasti musalaman ke hath se pakaya aur laya hua bhojan karane par badhy kiya. vah janata tha ki isake bad koee hindoo subuddhiray ko apane samaj mean shamil nahian karega. is prakar subuddhiray ko jivanmrit dhang se apaman bhare din bitane ke lie ‘ekadam mukt’ chho dakar husainakhaan husainashah ban gaya.

vivah

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

nimaee (chaitany mahaprabhu) bachapan se hi vilakshan pratibha sanpann the. sath hi, atyant saral, suandar v bhavuk bhi the. inake dvara ki gee lilaoan ko dekhakar har koee hataprabh ho jata tha. 15-16 varsh ki avastha mean inaka vivah lakshmi devi ke sath hua. sanh 1505 mean sarpadansh se patni ki mrityu ho gee. vansh chalane ki vivashata ke karan inaka doosara vivah navadvip ke rajapandit sanatan ki putri vishnupriya ke sath hua.

krishna bhakti

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

chaitany ko inake anuyayi krishna ka avatar bhi manate rahe haian. sanh 1509 mean jab ye apane pita ka shraddh karane bihar ke gaya nagar mean ge, tab vahaan inaki mulaqat eeshvarapuri namak sant se huee. unhoanne nimaee se 'krishna-krishna' ratane ko kaha. tabhi se inaka sara jivan badal gaya aur ye har samay bhagavan shrikrishna ki bhakti mean lin rahane lage. bhagavan shrikrishna ke prati inaki anany nishtha v vishvas ke karan inake asankhy anuyayi ho ge. sarvapratham nityanand prabhu v advaitachary maharaj inake shishy bane. in donoan ne nimaee ke bhakti aandolan ko tivr gati pradan ki. nimaee ne apane in donoan shishyoan ke sahayog se dholak, mridang, jhaanjh, manjire adi vady yantr bajakar v uchch svar mean nach-gakar 'hari nam sankirtan' karana praranbh kiya.


age jaean »


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

  1. 1.0 1.1 1.2 Chaitanya Mahaprabhu (aangrezi) Gaudiya History. abhigaman tithi: 15 mee, 2015.

bahari k diyaan

sanbandhit lekh