आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट दिसम्बर 2013

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आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
दिनांक- 28 दिसम्बर, 2013

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राजा महाराजाओं के काल में तो यह कहा जाना सही रहा होगा-
"यथा राजा तथा प्रजा" याने जैसा राजा वैसी प्रजा।
लेकिन लोकतंत्र में तो अपना राजा, हम चुनते हैं।
अब तो इसका ठीक उल्टा याने
"यथा प्रजा तथा राजा" ही सही बैठता है।
नेता जैसे भी हैं, उनके आचरण के लिए,
वे नहीं, बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ हम ज़िम्मेदार हैं।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अयोग्य नेताओं को गाली देने का अर्थ है,
अपने आप को ही गाली देना।
कभी यह सोचने में भी समय लगाना चाहिए कि क्या कारण है कि नेता दिन ब दिन 'अनेता' होते जा रहे हैं ?
कहीं इसका कारण ये तो नहीं कि हम में ही कुछ गड़बड़ है ?
ज़रा हम अपने गरेबाँ में भी झांक कर देखें...

दिनांक- 28 दिसम्बर, 2013

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यदि पड़ोस से रोते हुए बच्चे के रोने की आवाज़ से आपके ध्यान, पूजा या स्तुति जैसे कार्य में बाधा नहीं पड़ती और आपका ध्यान भंग नहीं होता, तो आप किसी संन्यासी, साधु, सन्त या धर्मात्मा की श्रेणी में नहीं बल्कि दुष्टात्मा की श्रेणी में आते हैं।

दिनांक- 28 दिसम्बर, 2013

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इंसान, ज़्यादा पैसा कमाने पर कुछ और कर पाये या न कर पाए
लेकिन खोखले रिश्ते जोड़ने और सच्चे रिश्ते तोड़ने का काम बड़े सुविधाजनक तरीक़े से गर्व के साथ कर लेता है।

दिनांक- 23 दिसम्बर, 2013

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कौन सहारे विश्वासों के जीता है?
कौन दिवा स्वप्नों की मदिरा पीता है?

मार दिया उसको ही जिसने मुँह खोला
या फिर जेलों में ही जीवन बीता है

भरी जेब वालों के भीतर मत झांको
सब कुछ भरा मिलेगा, दिल ही रीता है

नहीं आसरा मिलता हो जब महलों में
कोई झोंपड़ी ढूंढो, बहुत सुभीता है

ख़ैर मनाओ यार! अभी तुम ज़िन्दा हो
रोज़ ज़हर खाकर भी कोई जीता है ?

नेताओं के सच्चे झूठे झगड़ों में
वोटर अपना फटा गरेबाँ सीता है

ख़ुदा और भगवानों की इस दुनिया में
एक भले मानुस का बहुत फ़ज़ीता है।

दिनांक- 17 दिसम्बर, 2013

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इंग्लॅण्ड के पूर्व प्रधानमंत्री विंग्सटन चर्चिल ने कहा है-
"If a man is not a socialist by the time he is 20, he has no heart. If he is not a conservative by the time he is 40, he has no brain."
इसे हिन्दी में कहें तो-

20 वर्ष की उम्र के आस-पास जो सोशलिस्ट (या वामपंथी) नहीं है उसके दिल नहीं है, अर्थात् वह एक नैसर्गिक भावुक युवा नहीं है और 40 की उम्र के आस-पास जो दक्षिण पंथी (या पूँजीवादी) नहीं है उसके दिमाग़ नहीं है, अर्थात् उसके पास व्यावहारिक बुद्धि नहीं है।

दिनांक- 15 दिसम्बर, 2013

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दुनिया के विकसित देशों की लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया में नेताओं को जनता की समस्या को हल करने की बात, उसके हल करने के कार्यक्रम और प्रक्रिया के साथ करनी होती है। जैसे कि यदि कोई पार्टी या नेता कहता है कि वह सत्ता में आया, तो बेरोज़गारी कम करेगा, तो उसे पूरा कार्यक्रम भी प्रक्रिया सहित बताना पड़ता है कि कौन-कौन से उपाय वह किस-किस संसाधन का उपयोग करके करेगा।
हमारे देश में तो रीत ही निराली है। चुनाव में नेता बाज़ीगर की तरह कहता फिरता है कि फलाँ समस्या तो हमारे सत्ता में आते ही ख़त्म हो जाएगी। यदि पूछा जाय कि कैसे ? तो कोई उचित उत्तर नहीं होता। पार्टियों के चुनावी घोषणा पत्र भी कोई स्पष्ट कार्यक्रम नहीं बताते।
कोई कुछ भी कहे लेकिन भारत की जनता को सिर्फ़ ऐसा नेता चाहिए जो भारत की विशाल आबादी को ही भारत के विकास और प्रगति का कारण बना सके, न कि बढ़ती आबादी का रोना रोकर अपनी असफलता से ध्यान हटाता फिरे।
हमें ऐसा नेता चाहिए जो भारत की विशाल आबादी को कमज़ोरी मानने की बजाय ताक़त समझ कर उसे उत्पादन में झोंक देने वाला एक सुनियोजित कार्यक्रम रखता हो। जो 'विशाल आबादी-विशाल उत्पादन' के मंत्र को व्यवहार के धरातल पर उतार सके।
आज हमारी विशाल आबादी, विश्व का सबसे उत्पादक न होकर, विश्व का सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गयी है। जो हमारी समझ में नहीं आया वह चीन ने समझ लिया। चीन ने अपनी आबादी को ही अपना हथियार बनाया और उसे उत्पादन में लगा दिया। इसलिए विश्व बाज़ार में, भारत एक बड़ा ख़रीददार बन खड़ा है और चीन एक बड़ा विक्रेता बनकर।

दिनांक- 14 दिसम्बर, 2013

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प्रताप सिंह कैरों पचास के दशक में पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। उनके शासन का उदाहरण आज भी दिया जाता है और महान् नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल से उनकी तुलना की जाती है। उस दौर में भी अनाज की कालाबाज़ारी ज़ोरों पर थी। देश नया-नया आज़ाद हुआ था। राज्य सरकारों के पास संसाधन कम थे। जमाख़ोरों और दलालों ने अनाज गोदामों में बंद किया हुआ था, मंहगाई आसमान को छूने लगी थी, जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाना चाहिए। कैरों ने एक गंभीर जनहितकारी चाल चली... केन्द्र सरकार और रेल मंत्रालय की सहायता से कई मालगाड़ियाँ रेलवे स्टेशनों पर जा पहुँची जिनके डब्बे सील बंद थे और उनपर विभिन्न अनाजों के नाम लिखे हुए थे। शहरों में आग की तरह से ये ख़बर फैल गयी कि सरकार ने 'बाहर' से अनाज मंगवा लिया है। इतना सुनना था कि जमाख़ोरो ने अपना अनाज बाज़ार में आनन-फानन में बेचना शुरू कर दिया। मंहगाई तुरंत क़ाबू में आ गई।
एक सप्ताह बाद मालगाड़ियाँ ज्यों की त्यों वापस लौट गईं क्योंकि वे ख़ाली थीं।... यदि सरकार ठान ले तो देश की तरक्की के लिए हज़ार-लाख तरीक़े निकाल सकती है लेकिन...

दिनांक- 14 दिसम्बर, 2013

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माता, पिता, पुत्री और गुरु को हर जगह महिमा मंडित किया जाता है। पुत्र, शिष्य, पत्नी और पति को नहीं... ऐसा क्यों?
हो सकता है कि इसका कारण ये हो कि माल-मत्ता तो सब पुत्र, शिष्य, पत्नी और पति के हाथ पड़ता है...
अब बाक़ी बचे माता-िपता, पुत्री और गुरु तो इन बेचारों की प्रशंसा करते रहो तो 'सैट' रहेंगे... ऐसा है क्या ?
ये हो भी सकता है... और नहीं भी... !
एक नज़र इस नज़रिये पर भी-
पत्नी अपने पति को माँ से अधिक लाड़ और स्नेह, बहन से अधिक साथ, पुत्री से अधिक सम्मान और गुरु से अधिक शिक्षा देकर भी
अपने पति से सार्वजनिक प्रशंसा की चार लाइनों के लिए महरूम क्यों ? पति अपनी पत्नी को पिता से अधिक लाड़ और स्नेह, भाई से अधिक सुरक्षा, पुत्र से अधिक उसके ममत्व की संतृप्ति और गुरु से अधिक शिक्षा देकर भी अपनी पत्नी से सार्वजनिक प्रशंसा की चार लाइनों के लिए महरूम क्यों ? पति या पत्नी की प्रशंसा में लिखने में हमें क्या हिचक है ? कोई शर्म है क्या ?
एक बात और है जो लोग यारी-दोस्ती में ज़्यादा मशग़ूल रहते हैं। उनको शायद यह नहीं मालूम कि पति-पत्नी, आपस में सबसे बड़े राज़दार होते हैं। इसलिए सबसे बड़े दोस्त भी। ये दोस्ती ऐसी होती है जो कि रिश्ता ख़त्म होने पर भी एक-दूसरे के राज़ बनाए रखती है, खोलती नहीं।
वो बात अलग है कि जब ये उन राज़ों को खोलने पर आते हैं तो वो राज़ भी खुल जाते हैं जिनको हम भगवान से भी छुपाते हैं लेकिन सामान्यत: ऐसा होता नहीं है।
याद रखिए अपनी जान तो हमारे लिए कोई भी दे सकता है लेकिन अपना जीवन तो एक दूसरे को पति-पत्नी ही देते हैं।

यह सही है कि 'माता-पिता ही हमारे साक्षात् भगवान हैं'।
लेकिन यह भी मत भूलिए कि पति-पत्नी भी एक दूसरे के लिए
साक्षात न सही तो 'मिनी भगवान' हैं।
ऐसा नहीं है कि पति-पत्नी के रिश्ते का आधार केवल संतान है।

दिनांक- 13 दिसम्बर, 2013

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'पॉज़टिव थिंकिंग' याने सकारात्मक सोच के संबंध में कुछ लोग सिखाते हैं कि अपने प्रयत्न के अच्छे परिणाम के संबंध में आश्वस्थ रहना ही पॉज़िटिव थिंकिंग है। कुछ लोग इस शिक्षा को सीख भी जाते हैं। यह सकारात्मक सोच नहीं है बल्कि अति आशावादी होना है।
सकारात्मक सोच है परिणाम की प्रतीक्षा के प्रति सहज हो जाना। याने बिना बेचैनी के प्रतीक्षा करना। प्रतीक्षा में सहज होना ही सकारात्मक सोच है।
वैसे तो जीवन बहुत कुछ है लेकिन जीवन एक प्रतीक्षा भी है। सभी को किसी न किसी की प्रतीक्षा है और प्रतीक्षा करने में बेचैनी होना सामान्य बात है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो प्रतीक्षा करने में बेचैन नहीं होते। असल में हम जितने अधिक नासमझ होते हैं उतना ही प्रतीक्षा करने में बेचैन रहते हैं। बच्चों को यदि हम देखें तो आसानी से समझ सकते हैं कि किसी की प्रतीक्षा करने में बच्चे कितने अधीर होते हैं। धीरे-धीरे जब उम्र बढ़ती है तो यह अधीरता कम होती जाती है क्योंकि उनमें 'समझ' आ जाती है। इसी 'समझ' को समझना ज़रूरी है क्योंकि जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि हमारे जीवन में प्रतीक्षा का क्या महत्त्व है और इसका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव होता है तब तक हम सकारात्मक सोच नहीं समझ सकते।
सीधी सी बात है कि सकारात्मक सोच के व्यक्ति बहुत कम ही होते हैं। राजा हो या रंक इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। साधु-संत भी ईश्वर के दर्शन की या मोक्ष की प्रतीक्षा में रहते हैं। यहाँ समझने वाली बात ये है कि हम प्रतीक्षा कैसे कर रहे हैं। यदि कोई संत मोक्ष की प्रतीक्षा में है और वह सहज रूप से यह प्रतीक्षा नहीं कर रहा तो उसका मार्ग ही पूर्णतया अर्थहीन है। यदि और गहराई से देखें तो मोक्ष को 'प्राप्त' करने जैसा भी कुछ नहीं है। मोक्ष तो 'होता' और 'घटता' है, बस इसे समझना ज़रूरी है। जीवन में सहजता को प्राप्त हो जाना ही मोक्ष को प्राप्त हो जाना है।
प्रतीक्षा के प्रति सहज भाव हो जाना ही हमें सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति बनाता है। असल में प्रतीक्षा के प्रति निर्लिप्त हो जाना ही सकारात्मक सोच है। जो कि निश्चित रूप से कठिन है।

दिनांक- 13 दिसम्बर, 2013

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बहादुर उसे माना गया, जिसने अपने डर को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सहिष्णु वह माना गया, जिसने अपनी ईर्ष्या को प्रदर्शित नहीं होने दिया
विनम्र वह माना गया, जिसने अपने अहंकार को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सुन्दर वह माना गया, जिसने अपनी कुरूपता को प्रदर्शित नहीं होने दिया
चरित्रवान वह माना गया, जिसने अपने दुश्वरित्र को प्रदर्शित नहीं होने दिया
ईमानदार वह माना गया, जिसने अपनी बेईमानी को प्रदर्शित नहीं होने दिया
बुद्धिमान वह माना गया, जिसने अपनी मूर्खताओं को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सफल शिक्षक वह माना गया, जिसने अपने अज्ञान को प्रदर्शित नहीं होने दिया
अहिंसक और दयालु वह माना गया, जिसने अपनी हिंसा को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सफल प्रेमी/प्रेमिका, वे माने गए जिन्होंने अपनी पारस्परिक घृणा को प्रदर्शित नहीं होने दिया

किन्तु महान् केवल वह ही है जिसने अपने 'उन कारणों' के पीछे छुपी कमज़ोरियों को भी नहीं छुपाया
 'जिन कारणों' के चलते वह प्रशंसनीय और सफल हुआ।

दिनांक- 10 दिसम्बर, 2013

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मुझे गर्व है कि मैं, चौधरी दिगम्बर सिंह जी का बेटा हूँ। आज 10 दिसम्बर को उनकी पुन्य तिथि है। पिताजी स्वतंत्रता सेनानी थे। 4 बार लोकसभा सांसद रहे (तीन बार मथुरा, एक बार एटा) और 25 वर्ष लगातार, मथुरा ज़ि. सहकारी बैंक के अध्यक्ष रहे । सादगी का जीवन जीते थे। कभी कोई नशा नहीं किया और आजीवन पूर्ण स्वस्थ रहे। राजनैतिक प्रतिद्वंदी ही उनके मित्र भी होते थे। उनकी व्यक्तिगत निकटता पं. नेहरू, लोहिया जी, शास्त्री जी, पंत जी, इंदिरा जी, चौ. चरण सिंह जी, अटल जी, चंद्रशेखर जी आदि से रही।
सभी विचारधारा के लोग उनकी मित्रता की सूची में थे चाहे वह जनसंघी हो या मार्क्सवादी। सभी धर्मों का अध्ययन उन्होंने किया था। जातिवाद से उनका कोई लेना-देना नहीं था। वे बेहद 'हैंडसम' थे। उन्हें पहली संसद 1952 में मिस्टर पार्लियामेन्ट का ख़िताब भी मिला। संसद में दिए उनके भाषणों को राजस्थान में सहकारी शिक्षा के पाठ्यक्रम में लिया गया। उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि जब वे संसद में बोलते थे तो अपनी पार्टी के लिए नहीं बल्कि निष्पक्ष रूप से किसानों के हित में बोलते थे। इस कारण उनको केन्द्रीय मंत्रिमंडल में लेने से नेता सकुचाते थे कि पता नहीं कब सरकार के ही ख़िलाफ़ बोल दें। उन्होंने ज़मींदार परिवार से होने के बावजूद अपना खेत उन्हीं को दान कर दिए थे जो उन्हें जोत रहे थे। सांसद काल में उन्होंने राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रीवीपर्स के ख़िलाफ़ वोट दिया था जब कि उन्हें उस वक्त लाखों रुपये का लालच दिया गया था। उन जैसा नेता और इंसान होना अब मुमकिन नहीं है। वे मेरे हीरो थे, गुरु थे और मित्र थे। आज भारतकोश के कारण विश्व भर में मुझे पहचान और सम्मान मिल रहा है किंतु मेरी सबसे बड़ी पहचान यही है कि मैं उनका बेटा हूँ।

दिनांक- 6 दिसम्बर, 2013

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फाँसी ग़रीब का जन्मसिद्ध अधिकार है क्या ?
कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में शायद ही कोई भी अरबपति हो। शायद एक भी नहीं...
ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति फाँसी के योग्य अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध का

दिनांक- 3 दिसम्बर, 2013

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       आख़िर, सफलता मिलती कैसे है ? क्या कोई ऐसा मंत्र, तंत्र, युक्ति या किताब है जो सफलता दिला दे ?
हाँ है... निश्चित है! जिस तरह 'भूख में स्वाद' और 'शारीरिक श्रम में नींद' छुपी होती है उसी तरह 'जुनून' में सफलता छुपी होती है। जुनून कहिए या पॅशन, यही है एक मात्र रास्ता, सफलता का...
...लेकिन किस तरह...
       असल में जिस ढांचे में हम ढले हुए होते हैं उसमें हमारी सोच के सीमित दायरे में घूमती रहती है। इसी सोच की वजह से जो हमारी 'पसंद' या 'इच्छा' होती है उससे हम चुनते हैं अपना 'कैरियर'। जबकि अपने जुनून को हम सही तरह से पहचान करने की भी कोशिश हम नहीं करते। आपने देखा होगा कि लोग अपनी 'हॉबी' में ही 'जुनून' की संतुष्टि पाते हैं।
यदि अपना कैरियर भी अपने जुनून को समझते हुए चुना जाय

दिनांक- 3 दिसम्बर, 2013

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जिस पल में हम यह कह रहे होते हैं
कि अब तो ज़माना ख़राब आ गया
तो सहसा
हम इस ज़माने के कटे होने के बात कह रहे होते हैं
और ख़ुद को
इस मौजूदा वक़्त से
तालमेल न बिठा पाने वाला व्यक्ति
घोषित कर रहे होते हैं।


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