आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट मार्च 2014: Difference between revisions

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; दिनांक- 24 अप्रॅल, 2014
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    क्या आप किसी का सुख-दु:ख, भीतर का संताप-अवसाद और अच्छा-बुरा...
विभिन्न क्षेत्रों में बंगाल के वासियों की अद्भुत क्षमता और प्रतिभा तो जगज़ाहिर है ही लेकिन मतदाता के रूप में भी हमारे बांग्ला बंधु, मतदान प्रतिशत में कीर्तिमान स्थापित करते रहते हैं।
जानना चाहते हैं? विशेषकर किसी 'अपने' का?
क्या मछली खाने से अक़्ल ज़्यादा आती है।
    तो जानिए वे बातें जो उसने 'नहीं कहीं', जबकि कह सकता था और जानिए वो काम
ये सवाल तो कोलकाता में जा बसे श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी से भी पूछा जाना चाहिए... आख़िर मामला क्या है।
जो उसने 'नहीं किए', जबकि कर सकता था।
    क्या आप ऐसा कर सकते हैं या ऐसा करने की कोशिश करते हैं ? यदि नहीं तो फिर
दो ही बात हो सकती हैं कि या तो वह आपका अपना नहीं हैं या आप उसके अपने नहीं हैं।
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| [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-11.jpg|250px|center]]
| 31 मार्च, 2014
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; दिनांक- 21 अप्रॅल, 2014
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<poem>
इस दुनिया में बहुत कुछ बदलता है
इसी मैदान में उस शख़्स को फाँसी लगी होगी
बस एक ज़माना ही है
तमाशा देखने को भीड़ भी काफ़ी लगी होगी
जो कभी नहीं बदलता है
और बदले भी कैसे ?
जब इंसान का
नज़रिया ही नहीं बदलता है


चलो कोई बात नहीं
जिन्हें आज़ाद करने की ग़रज़ से जान पर खेला
सब चलता है
उन्हीं को चंद रोज़ों में ख़बर बासी लगी होगी


बंदर से आदमी बनने की बात तो
बड़े सरकार आए हैं, यहाँ पौधा लगाएँगे
झूठी लगती है
हटाने धूल को मुद्दत में अब झाडू लगी होगी
वो तो गिरगिट है
जो माहौल के साथ रंग बदलता है


वैसे तो आग का काम ही जलाना है
शहर में लोग ज़्यादा हैं जगह रहने की भी कम है
वो बात अलग है कि
इसी को सोचकर मैदान की बोली लगी होगी
कोई मरने से पहले
तो कोई मरने के बाद जलता है


और दम निकलने से मरने की बात भी झूठी है
यहाँ तो ज़ात और मज़हब का अब बाज़ार लगता है
कुछ लोग,
उसे अपनी शहादत ही बहुत फीकी लगी होगी
मर तो कब के जाते हैं
दम है कि बहुत बाद में निकलता है
 
वस्त्रों की तरह
आत्मा का शरीर बदलना भी
ग़लत लगता है मुझको
हाँ कपड़ों की तरह इंसान
चेहरे ज़रूर बदलता है
 
चलो कोई बात नहीं
सब चलता है
सब चलता है
</poem>
</poem>
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| 31 मार्च, 2014
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; दिनांक- 21 अप्रॅल, 2014
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कभी तू है बादल
लहू बहता है तो कहना कि पसीना होगा
कभी तू है सागर
न जाने कब तलक इस दौर में जीना होगा
कहीं बनके तालाब पसरा पड़ा है


कभी तू है बरखा
'छलक ना' जाय सरे शाम कहीं महफ़िल में
कभी तू है नदिया
ये जाम-ए-सब्र तो हर हाल में पीना होगा
कहीं पर तू झीलों में अलसा रहा है


मगर तेरी ज़्यादा
यूँ तो अहसास भी कम है चुभन का ज़ख़्मों की
ज़रूरत जहाँ है
तूने जो चाक़ किया तो हमें सीना होगा
उसे सबने अाँखों का पानी कहा है
 
अब तो उम्मीद भी ठोकर की तरह दिखती है
करना बदनाम यूँ किस्मत को सही ना होगा
 
यही वो शख़्स जो कुर्सी पे जाके बैठेगा
वक़्त आने पे वो तेरा तो कभी ना होगा
</poem>
</poem>
| [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-13.jpg|250px|center]]
| 31 मार्च, 2014
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; दिनांक- 1 अप्रॅल, 2014
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<poem>
चाहे बैठे हों खेत खलिहान में
बीते लम्हों की यादों से
या हो उड़ान
अब उठें, भव्य उजियारा है
कहीं ऊँचे विमान में
इस नए साल को, यूँ जीएँ
होता हो
जैसे संसार हमारा है
किसी आलीशान मकान में सवेरा
 
या कहीं किसी
हम जीने दें और जी भी लें
कच्ची मढ़ैया में बसेरा
विश्वास जुटा कर उन सब में  
जो बात-बात पर कहते हैं
हमको किस्मत ने मारा है
 
अब रहे दामिनी निर्भय हो
निर्भय इरोम का जीवन हो
अब गर्भ में मुसकाये बिटिया
यह अंश, वंश से प्यारा है
 
फ़ेयर ही लवली नहीं रहे
अनफ़ेयर यही अफ़ेयर हो  
काली मैया जब काली है
तो रंग से क्यों बंटवारा है
 
ये ज़ात-पात क्या होती है
माता की कोई ज़ात नहीं
यदि पिता ज़ात को रोता है
तो कैसा पिता हमारा है


हों व्यापारी अधिकारी
जाने कब हम ये समझेंगे
या कोई
ना जाने कब ये जानेंगे
बड़े नेता
मस्जिद में राम, मंदिर में ख़ुदा
खिलाड़ी हों आप
हर मज़हब एक सहारा है
या कोई अभिनेता


घूमते हों सुबह शाम पैदल
सुबह आज़ान जगाए हमें
या बस में
मंदिर की आरती झपकी दे
या गुज़रता हो दिन
सपनों में ख़ुदा या राम बसें
ज़िन्दगी के सरकस में
मक़सद अब प्रेम हमारा है


अलबत्ता सबके जीवन में
सहमी मस्जिद को बोल मिलेें
एक बात तो कॉमन है
मंदिर भी अब जी खोल मिलें
वो है
गिरजे गुरुद्वारे सब बोलें
बस दो की तलाश
जय हो ! यह देश हमारा है  
इक तो ईश्वर
जो कभी दिखता नहीं है
दूजा प्यार
जो कभी मिलता नहीं है  
</poem>
</poem>
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| 31 मार्च, 2014
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Latest revision as of 09:54, 2 May 2017

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
दिनांक- 24 अप्रॅल, 2014

विभिन्न क्षेत्रों में बंगाल के वासियों की अद्भुत क्षमता और प्रतिभा तो जगज़ाहिर है ही लेकिन मतदाता के रूप में भी हमारे बांग्ला बंधु, मतदान प्रतिशत में कीर्तिमान स्थापित करते रहते हैं।
क्या मछली खाने से अक़्ल ज़्यादा आती है।
ये सवाल तो कोलकाता में जा बसे श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी से भी पूछा जाना चाहिए... आख़िर मामला क्या है।

दिनांक- 21 अप्रॅल, 2014

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इसी मैदान में उस शख़्स को फाँसी लगी होगी
तमाशा देखने को भीड़ भी काफ़ी लगी होगी

जिन्हें आज़ाद करने की ग़रज़ से जान पर खेला
उन्हीं को चंद रोज़ों में ख़बर बासी लगी होगी

बड़े सरकार आए हैं, यहाँ पौधा लगाएँगे
हटाने धूल को मुद्दत में अब झाडू लगी होगी

शहर में लोग ज़्यादा हैं जगह रहने की भी कम है
इसी को सोचकर मैदान की बोली लगी होगी

यहाँ तो ज़ात और मज़हब का अब बाज़ार लगता है
उसे अपनी शहादत ही बहुत फीकी लगी होगी

दिनांक- 21 अप्रॅल, 2014

250px|right

लहू बहता है तो कहना कि पसीना होगा
न जाने कब तलक इस दौर में जीना होगा

'छलक ना' जाय सरे शाम कहीं महफ़िल में
ये जाम-ए-सब्र तो हर हाल में पीना होगा

यूँ तो अहसास भी कम है चुभन का ज़ख़्मों की
तूने जो चाक़ किया तो हमें सीना होगा

अब तो उम्मीद भी ठोकर की तरह दिखती है
करना बदनाम यूँ किस्मत को सही ना होगा

यही वो शख़्स जो कुर्सी पे जाके बैठेगा
वक़्त आने पे वो तेरा तो कभी ना होगा

दिनांक- 1 अप्रॅल, 2014

250px|right

बीते लम्हों की यादों से
अब उठें, भव्य उजियारा है
इस नए साल को, यूँ जीएँ
जैसे संसार हमारा है

हम जीने दें और जी भी लें
विश्वास जुटा कर उन सब में
जो बात-बात पर कहते हैं
हमको किस्मत ने मारा है

अब रहे दामिनी निर्भय हो
निर्भय इरोम का जीवन हो
अब गर्भ में मुसकाये बिटिया
यह अंश, वंश से प्यारा है

फ़ेयर ही लवली नहीं रहे
अनफ़ेयर यही अफ़ेयर हो
काली मैया जब काली है
तो रंग से क्यों बंटवारा है

ये ज़ात-पात क्या होती है
माता की कोई ज़ात नहीं
यदि पिता ज़ात को रोता है
तो कैसा पिता हमारा है

जाने कब हम ये समझेंगे
ना जाने कब ये जानेंगे
मस्जिद में राम, मंदिर में ख़ुदा
हर मज़हब एक सहारा है

सुबह आज़ान जगाए हमें
मंदिर की आरती झपकी दे
सपनों में ख़ुदा या राम बसें
मक़सद अब प्रेम हमारा है

सहमी मस्जिद को बोल मिलेें
मंदिर भी अब जी खोल मिलें
गिरजे गुरुद्वारे सब बोलें
जय हो ! यह देश हमारा है

शब्दार्थ


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