चाणक्य के अनमोल वचन: Difference between revisions
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* [[आंख]] के अंधे को दुनिया नहीं दिखती, काम के अंधे को विवेक नहीं दिखता, मद के अंधे को अपने से श्रेष्ठ नहीं दिखता और स्वार्थी को कहीं भी दोष नहीं दिखता। | * [[आंख]] के अंधे को दुनिया नहीं दिखती, काम के अंधे को विवेक नहीं दिखता, मद के अंधे को अपने से श्रेष्ठ नहीं दिखता और स्वार्थी को कहीं भी दोष नहीं दिखता। | ||
* ईश्वर न तो काष्ठ में विद्यमान रहता है, न पाषाण में और न ही [[मिट्टी]] की मूर्ति में। वह तो भावों में निवास करता है। | * ईश्वर न तो काष्ठ में विद्यमान रहता है, न पाषाण में और न ही [[मिट्टी]] की मूर्ति में। वह तो भावों में निवास करता है। | ||
* फल मनुष्य के कर्म के अधीन है, बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है, फिर भी | * फल मनुष्य के कर्म के अधीन है, बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है, फिर भी विद्वान् और महात्मा लोग अच्छी तरह से विचार कर ही कोई कर्म करते हैं। | ||
* बुद्धिमान को चाहिए कि वह धन का नाश, मन का संताप, घर के दोष, किसी के द्वारा ठगा जाना और अमानित होना-इन बातों को किसी के समक्ष न कहे। | * बुद्धिमान को चाहिए कि वह धन का नाश, मन का संताप, घर के दोष, किसी के द्वारा ठगा जाना और अमानित होना-इन बातों को किसी के समक्ष न कहे। | ||
* जिस गुण का दूसरे लोग वर्णन करते हैं उससे निर्गुण भी गुणवान होता है। | * जिस गुण का दूसरे लोग वर्णन करते हैं उससे निर्गुण भी गुणवान होता है। | ||
* स्वयं अपने गुणों का बखान करने से इंद्र भी छोटा हो जाता है। | * स्वयं अपने गुणों का बखान करने से इंद्र भी छोटा हो जाता है। | ||
* गुणों से ही मनुष्य | * गुणों से ही मनुष्य महान् होता है, ऊंचे आसन पर बैठने से नहीं। महल के कितने भी ऊंचे शिखर पर बैठने से भी [[कौआ]] गरुड़ नहीं हो जाता। | ||
* गुण की पूजा सर्वत्र होती है, बड़ी संपत्ति की नहीं, जिस प्रकार पूर्ण चंद्रमा वैसा वंदनीय नहीं है जैसा निर्दोष द्वितीया का क्षीण चंद्रमा। | * गुण की पूजा सर्वत्र होती है, बड़ी संपत्ति की नहीं, जिस प्रकार पूर्ण चंद्रमा वैसा वंदनीय नहीं है जैसा निर्दोष द्वितीया का क्षीण चंद्रमा। | ||
* भली स्त्री से घर की रक्षा होती है। | * भली स्त्री से घर की रक्षा होती है। | ||
* पानी में तेल, दुर्जन में गुप्त बात, सत्पात्र में दान और | * पानी में तेल, दुर्जन में गुप्त बात, सत्पात्र में दान और विद्वान् व्यक्ति में शास्त्र का उपदेश थोड़ा भी हो, तो स्वयं फैल जाता। | ||
* तब तक ही भय से डरना चाहिए जब तक कि वह पास नहीं आ जाता। परंतु भय को अपने निकट देखकर प्रहार करके उसे नष्ट करना ही ठीक है। | * तब तक ही भय से डरना चाहिए जब तक कि वह पास नहीं आ जाता। परंतु भय को अपने निकट देखकर प्रहार करके उसे नष्ट करना ही ठीक है। | ||
* ब्रह्मा ज्ञानी को स्वर्ग तृण है, शूर को जीवन तृण है, जिसने इंद्रियों को वश में किया उसको स्त्री तृण-तुल्य जान पड़ती है, निस्पृह को | * ब्रह्मा ज्ञानी को स्वर्ग तृण है, शूर को जीवन तृण है, जिसने इंद्रियों को वश में किया उसको स्त्री तृण-तुल्य जान पड़ती है, निस्पृह को जगत् तृण है। | ||
* जिस देश में मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का लाभ भी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए। | * जिस देश में मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का लाभ भी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए। | ||
* दूसरों की सुन लो, लेकिन अपना फैसला गुप्त रखो। | * दूसरों की सुन लो, लेकिन अपना फैसला गुप्त रखो। | ||
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* यदि तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करें तो दूसरे के गुणों को मान्यता दो। | * यदि तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करें तो दूसरे के गुणों को मान्यता दो। | ||
* मेहनत वह चाबी है जो किस्मत का दरवाज़ा खोल देती है। | * मेहनत वह चाबी है जो किस्मत का दरवाज़ा खोल देती है। | ||
* जो प्रकृति से ही | * जो प्रकृति से ही महान् हैं उनके स्वाभाविक तेज को किसी (शारीरिक) ओज-प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती। | ||
* प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का अपना हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है। | * प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का अपना हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है। | ||
* कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। | * कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। |